सुनील कुमार झा (रांची). विधानसभा चुनाव-2019 में मिली हार के बाद झारखंड में चुनाव जीतने के लिए भाजपा द्वारा अब तक किया गया हर प्रयोग विफल होता दिख रहा है. राज्य में गठन के बाद पहली बार वर्ष 2014 में एनडीए गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला था. तब रघुवर दास राज्य के पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बने. इसके बाद 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी सत्ता से बाहर हो गयी. 2014 में 37 सीटें जीतनेवाली भाजपा 25 सीटों पर आ गयी. उसके बाद से ही भाजपा राज्य में अपनी खोयी हुई जमीन पाने के लिए जद्दोजहद कर रही है, लेकिन मौजूदा चुनाव में भाजपा का ग्राफ वर्ष 2019 से भी नीचे चला गया.
एससी आरक्षित सीट पर भाजपा की सीट कम हुई
वर्ष 2019 में भाजपा को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पांच सीटों पर जीत मिली थी. इस चुनाव में भाजपा तीन सीटों पर पहुंच गयी. नेता प्रतिपक्ष अमर बाउरी इस चुनाव में लड़ाई से ही बाहर हो गये. वे तीसरे स्थान पर पहुंच गये. कांके जैसी सीट, जिस पर भाजपा पिछले 34 वर्षों से जीत रही थी, वह हार गयी. छतरपुर में लगातार दो बार चुनाव जीती भाजपा इस बार सीट नहीं बचा पायी.
दूसरे दलों से आये आदिवासी नेता भी रहे बेअसर
एसटी सीट पर 25 में से 19 पर उतारे थे नये चेहरे
राष्ट्रीय नेताओं के हाथ में दी गयी थी कमान
लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने राष्ट्रीयस्तर के अनुभवी नेताओं के हाथ में झारखंड की कमान सौंपी थी. पूरा चुनाव उनकी देखरेख में लड़ा गया, लेकिन पार्टी का प्रदर्शन आशा के अनुरूप नहीं रहा.
अब तक की दूसरी सबसे बड़ी हार
गठबंधन भी रहा बेअसर
वर्ष 2019 में भाजपा बिना गठबंधन का चुनाव लड़ी थी, पार्टी के हार का एक कारण आजसू से गठबंधन नहीं होना बताया गया था. इस चुनाव में भाजपा आजसू के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ी, लेकिन गठबंधन भी कारगर साबित नहीं हुआ. पार्टी की सीटें पिछले चुनाव से भी कम हो गयीं.
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