रांची. चूल्हे की आंच और पिस्टल की पकड़. झारखंड पुलिस की महिला अधिकारी इन दोनों भूमिकाओं को बखूबी निभा रही हैं. घर की चौखट से बाहर वर्दी की जवाबदेही में वे पूरी मुस्तैदी से डटी हैं. बड़े पुलिस अफसर से लेकर थाना और ट्रैफिक व्यवस्था तक, हर स्तर पर उनकी भूमिका निर्णायक है. वे कानून व्यवस्था को सशक्त बना रही हैं, और साथ ही घर-परिवार की बुनियाद को भी संभाल रही हैं. निजी संघर्ष उनके जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन कार्य पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ने देतीं. वर्दी उन्हें रौब और हिम्मत का एहसास देती है, तो घर में वे ममता की मूर्ति बन जाती हैं. यही है महिला पुलिसकर्मियों की वह छवि जो ड्यूटी और संवेदना, सख्ती और स्नेह के बीच सटीक संतुलन साधती है. यह विशेष रिपोर्ट उन महिलाओं को समर्पित है जो वर्दी के भीतर साहस, संवेदना और समर्पण का उदाहरण बनी हुई हैं.
खुश हूं कि इस फील्ड को चुना, कोई टास्क मुश्किल नहीं लगता
गढ़वा की डीएसपी यशोधरा कहती हैं मेरे परिवार में पहले से लोग सिविल सेवा में हैं. मैंने शुरू से ही सोच लिया था कि मुझे भी पुलिस सेवा में ही जाना है. असली खुशी मुझे यहीं मिलती है. पुलिस की ड्यूटी में कोई तय समय नहीं होता, काम उसी हिसाब से होता है जैसा ऑफिस से टास्क मिले. मुश्किल नहीं लगता, क्योंकि परिवार और विभाग दोनों साथ होते हैं. हम अपने कर्तव्य के लिये पूरी तरह तैयार रहते हैं. कभी-कभी थकान होती है, लेकिन यह हमारा काम है और हमें निभाना ही है. तनाव से दूर रहने के लिये वो पॉजिटिव सोच, परिवार और दोस्तों का साथ अपनाती हैं.
आज की महिला पुलिस बदलाव की प्रतीक
साइबर थाना की डीएसपी नेहा बाला कहती हैं कि महिला पुलिसकर्मी अब किसी भी स्तर पर कमजोर नहीं हैं. वे घर, ड्यूटी और समाज तीनों के बीच संतुलन बना रही हैं. कभी-कभी चुनौतियां आती हैं. रात की ड्यूटी, बच्चों का अकेलापन, समाज की सोच. लेकिन जब कोई महिला पीड़िता हिम्मत पाकर कहती है कि मैम आपने तो मेरी ज़िंदगी बदल दी, तब सारी थकान दूर हो जाती है. समाज में बदलाव आ रहा है. अब लड़कियां सिर्फ सपना नहीं देख रही हैं, उन्हें पूरा भी कर रही हैं.
त्योहार में जब बच्चे पूछते हैं, मम्मी कब घर आ रही, दिल भर आता है
लातेहार की सरस्वती टोप्पो सदर थाना में जूनियर एएसआइ के पद पर कार्यरत हैं. सरस्वती बताती हैं कि उन्हें पुलिस सेवा में आने की प्रेरणा गांव की उन घटनाओं से मिली जहां महिलाएं अत्याचार सहने के बावजूद चुप रहीं. जब वर्दी में महिला पुलिसकर्मी को देखती थीं, तो लगता था कि हां, यही ताकत है जो महिला को सुरक्षा का एहसास देती है. आम महिला की तरह हमारी भी जवाबदेही है. सुबह की शुरुआत घर के काम से होती है. बच्चों को स्कूल भेजना, खाना बनाना, सास-ससुर और पति की देखरेख के बाद ही वे ड्यूटी पर निकलती हैं. घर से थाना पहुंचती हूं, तो वर्दी मेरी पहचान नहीं, मेरा फर्ज बन जाती है. त्योहारों पर जब बच्चे पूछते हैं कि मम्मी कब आओगी? तब एक मां का दिल भर आता है. लेकिन पुलिसकर्मी का मन ड्यूटी पर अडिग रहता है.
गांव की लड़की, अब वर्दी में गांव की आवाज
बासंती धान राजधानी में बतौर महिला पुलिसकर्मी काम कर रही हैं. बासंती एक साधारण परिवार से हैं. अपने दो बेटों की जवाबदेही निभाते हुए, अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं. वह बताती हैं: मैं जब छोटी थी, हमारे गांव में महिला पुलिसकर्मियों को देखती थी और सोचती थी कि क्या मैं भी कभी ऐसा कर पाउंगी. मेरा सपना पूरा हो गया. शुरू में तो लोगों ने ताना मारा करते थे. लेकिन अब गांव की ही लड़कियां पुलिस में बहाल होने के लिये कैसे तैयारी करें, पूछती हैं. गांव की लड़की थी. अब मेरी वर्दी गांव की आवाज बन गयी है. त्योहारों पर घर की याद आती है, लेकिन जब किसी पीड़ित महिला को न्याय दिलाती हूं तो वही मेरा उत्सव बन जाता है.
जब कोई साथ न हो, तब खुद ही ताकत बनना पड़ता है
14 वर्षों से महिला मुंशी के रूप में कार्य कर रहीं पूनम भट्ट की कहानी सबसे अलग है. टाटीसिल्वे की पूनम दो साल पहले शादी के बंधन में बंधीं और अब एक बेटे की मां हैं. लेकिन परिवार से उन्हें कोई सहयोग नहीं मिलता. बच्चे को साथ लेकर थाना आती हैं. वो यहीं खेलता है, यहीं बड़ा हो रहा है. मैं उसे साथ लेकर रिपोर्ट लिखती हूं, पूछताछ करती हूं. शिकायतें सुनती हूं. वह कहती हैं आज महिलाओं को आगे आने का समय है. जो लड़कियां इस सेवा में आना चाहती हैं, उन्हें डरने की जरूरत नहीं. परिवार भले न माने, पर जब आप खुद पर भरोसा रखोगे, तो पूरा सिस्टम आपके साथ खड़ा होगा.
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