पंडित रघुनाथ मुर्मू ने संताली को दिलायी अंतरराष्ट्रीय पहचान, ओल चिकी लिपि के शताब्दी समारोह में बोले DSPMU वीसी

Ol Chiki Script Centenary Celebration: संताली भाषा की लिपि ‘ओल चिकी’ के 100 वर्ष पूरे होने पर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय में सोमवार को शताब्दी समारोह का आयोजन किया गया. कुलपति तपन कुमार शांडिल्य ने कहा कि संताली भाषा को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने एवं स्थापित करने में पंडित रघुनाथ मुर्मू का अद्वितीय योगदान रहा है.

By Guru Swarup Mishra | May 19, 2025 8:08 PM
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Ol Chiki Script Centenary Celebration: रांची-डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (DSPMU) में संताली विभाग की ओर से संताली भाषा के लिपि ‘ओल चिकी’ निर्माण के 100 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित सम्मेलन में बतौर मुख्य अतिथि कुलपति तपन कुमार शांडिल्य ने कहा कि संताली भाषा को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने एवं स्थापित करने में पंडित रघुनाथ मुर्मू का अद्वितीय योगदान रहा है. ओल चिकी लिपि के माध्यम से ही संताली जैसी आदिवासी भाषा सरकारी तंत्र पर स्थापित हो पायी. कार्यक्रम की शुरुआत संताली समाज की परंपरा के अनुसार छात्र-छात्राओं द्वारा मंच पर उपस्थित सभी अतिथियों एवं सभागार में बैठे सबों को ‘लोटा-पानी’ देकर सह डोबोक् जोहार प्रणाम कर किया गया. इसके बाद ओल चिकी के प्रणेता पंडित रघुनाथ मुर्मू के छायाचित्र पर पुष्पार्पण किया गया.

ओल चिकी का शताब्दी समारोह मनाना गर्व की बात


जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं के को-ऑर्डिनेटर एवं खोरठा के विभागाध्यक्ष डॉ बिनोद कुमार ने इस विश्वविद्यालय के बीते दिनों को याद करते हुए कहा कि पूरे भारत में पहली बार इस विश्वविद्यालय में संताली भाषा की टेक्निकल शब्दावली पर दो-दो वर्कशॉप की गयी थी. ओल चिकी लिपि की अपनी गरिमा, मान-मर्यादा है. यह हमारे लिए गर्व की बात है कि विश्वविद्यालय में ओल चिकी का शताब्दी समारोह मनाया जा रहा है.

मातृभाषा कभी गरीब नहीं होती


विशिष्ट अतिथि के रूप में हिंदी के विभागाध्यक्ष डॉ जिंदर सिंह मुंडा ने कहा कि ‘गोमके’उपाधि से दो व्यक्तित्व को नवाजा गया है. पहला मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा और दूसरा गुरू गोमके पंडित रघुनाथ मुर्मू. ओल चिकी एक सांस्कृतिक लिपि है. इसमें संताली समाज, परंपरा, सभ्यता और संस्कृति की झलक देखने को मिलती है. विषय प्रवेश कराते हुए संताली विभाग की सहायक प्राध्यापक डॉ डुमनी माई मुर्मू ने ओल चिकी के इतिहास और पंडित रघुनाथ मुर्मू के जीवन पर चर्चा की. उन्होंने कहा कि जिस प्रकार मां अपने बच्चों के लिए कभी गरीब नहीं होती, उसी प्रकार मातृभाषा भी कभी गरीब नहीं होती. वह हम सबको विकट से विकट परिस्थिति में भी अपने पथ से विचलित नहीं होने देती.

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विद्यार्थियों को रघुनाथ मुर्मू से प्रेरणा लेने की है जरूरत


एनसीसी को-ऑर्डिनेटर कैप्टन डॉ गणेश चंद्र बास्के ने कहा कि आज के विद्यार्थी को अपने आप में झांक कर देखने की आवश्यकता है. जब 100 वर्ष पूर्व पंडित रघुनाथ मुर्मू जैसे अभावों, असुविधाओं से घिरे रहने के बावजूद इनके अंदर अपनी मातृभाषा के लिए ओल चिकी निर्माण करना और समाज, साहित्य, शिक्षा जगत में स्थापित हो सकता है तो आप जैसे आधुनिक सुख-सुविधा से लैस होनहार विद्यार्थी कहां तक सोच सकते है? संताली विभाग रांची विश्वविद्यालय से की डॉ शकुंतला बेसरा ने एक गीत के माध्यम से बताया कि ओल चिकी का निर्माण पंडित रघुनाथ मुर्मू ने किस तरह संघर्ष कर किया. मंच संचालन हो भाषा के सहायक प्राध्यापक डॉ जय किशोर मंगल ने करते हुए ओल चिकी से संबंधित एक कविता पाठ किया. धन्यवाद ज्ञापन संताली विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ डुमनी माई मुर्मू ने किया.

मौके पर ये थे मौजूद


कार्यक्रम के बीच में बाबुलाल मुर्मू, बिनय टुडू, उषा किरण हांसदा, अनिल सोरेन आदि ने संताली गीत गाया एवं अंत में सामूहिक नृत्य-गीत प्रस्तुत किया. इस अवसर पर विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग की डॉ आभा झा, भौतिकी के डॉ जेपी शर्मा, कुड़मालि के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ परमेश्वरी प्रसाद महतो, संताली के संतोष मुर्मू, कुड़मालि के डॉ निताई चंद्र महतो, नागपुरी के डॉ मनोज कच्छप, डॉ मालती बागिशा लकड़ा, कुड़ुख की सुनीता कुमारी, खड़िया की शांति केरकेट्टा, मुंडारी की डॉ शांति नाग, खोरठा की सुशीला कुमारी, शोधार्थी सलमा टुडू समेत अन्य उपस्थित थे.

पंडित रघुनाथ मुर्मू के संघर्ष से मिली ओल चिकी लिपि


‘ओल चिकी’ संताली भाषा की एक वैज्ञानिक लिपि है. आज से 100 वर्ष पूर्व ब्रिटिश भारत में 1925 ई को इसे विकसित किया गया था. इसके प्रणेता पंडित रघुनाथ मुर्मू थे. इनका जन्म भारत के ओडिशा के मयूरभंज जिले के रायरंगपुर के नजदीक डाहारडीह गांव में वैशाख पूर्णिमा के दिन 5 मई 1905 को हुआ था. इसके पिता नंदलाल और माता सलमा मुर्मू थे. वे बचपन से ही अपनी मातृभाषा संताली में अध्ययन के लिए इच्छुक थे, परंतु स्कूल में उन्हें ओड़िया भाषा में पठन-पाठन करना पड़ता था. इससे उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. इस कठिनाई से प्रेरित होकर उन्होंने बचपन से ही नई लिपि में अपने समाज को शिक्षित करने को ठाना. ओल चिकी लिपि निर्माण के लिए गांव-घर, नदी में स्थित मिट्टी, बालू में चित्रात्मक ढंग से गढ़ने का प्रयास करने लगे. प्रिंट के लिए अपने हाथों से लकड़ी में इस लिपि का ढांचा बनाया. 1925 आते-आते एक संपूर्ण लिपि का निर्माण कर दिया. इसे आज हम ‘ओल चिकी’ लिपि के नाम से जानते हैं.

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