Sarhul 2025 : सरहुल में केकड़ा पकड़ने की परंपरा और मुर्गी की बलि देने के पीछे क्या है मान्यता ?

Sarhul 2025 : सरहुल पर्व में आदिवासी समाज के लोग प्रकृति की पूजा करते है. इस पर्व में साल अर्थात सखुआ वृक्ष की पूजा की जाती है. सरहुल में केकड़ा पकड़ने की एक विशेष परंपरा निभायी जाती है.

By Dipali Kumari | March 23, 2025 3:42 PM
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रांची : प्रकृति पर्व सरहुल इस बार 1 अप्रैल को मनाया जाएगा. आदिवासी समाज के लोगों ने अभी से ही इसकी तैयारियां शुरू कर दी है. यह त्योहार चैत मास के शुक्ल पक्ष के तृतीया को मनाया जाता है. जनजातीय समाज के लोग इस दिन सखुआ वृक्ष की पूजा करते हैं. यूं तो इस पर्व से जुड़ी कई धार्मिक परंपरा और मान्यताएं हैं. ऐसे ही एक परंपरा केकड़ा पकड़ने और रंगी हुई मुर्गी की बली देने का है. आज हम इस परंपरा के पीछे की कहानी को बतायेंगे

सरहुल में केकड़े का महत्त्व

सरहुल में केकड़ा पकड़ने की एक खास परंपरा है. पूजा के दूसरे दिन गांव के पाहन उपवास रखते हैं और केकड़ा पकड़ने जाते हैं. इस केकड़े को अरवा धागा से बांधकर पूजा घर में टांग दिया जाता है. जब धान की बुआई शुरू होती है तब केकड़े का चूर्ण बनाकर गोबर में मिला दिया जाता है. इसके बाद उस चूर्ण से धान की बुआई की जाती है. आदिवासियों में मान्यता है कि केकड़े का चूर्ण डालने से धान की फसल बहुत अच्छी होती है. इस समाज के लोगों का कहना है कि केकड़े के असंख्य बच्चे होते हैं. अगर उसका चूर्ण मिलाकर धान की बुआई की जाए तो इसकी असंख्य बालियां निकलेंगी.

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बारिश की भविष्यवाणी

सरहुल से एक दिन पहले सरना स्थल पर दो घड़े रखा जाता है. जिस पर सफेद धागा बांधा जाता है. फिर दूसरे दिन पूजा करते वक्त घड़े का पानी को देखा जाता है. अगर उस घड़े में पानी रहता है तो, इससे अच्छी बारिश होने के संकेत मिलते हैं. अगर घड़े में रखा पानी सूख जाता है तो इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस वर्ष अच्छी बारिश नहीं होगी.

मुर्गी की बलि

सरहुल के तीसरे दिन गांव के पाहन द्वारा रंगी हुई मुर्गी की बलि दी जाती है. चावल और बलि की मुर्गी का मांस मिलाकर खिचड़ी बनायी जाती है, जिसे सूड़ी कहते हैं. पूरे गांव में प्रसाद के रूप में इसका वितरण किया जाता है. मुर्गी की बलि देने की परंपरा सदियों पुरानी है. पाहन ईष्ट देवता से बुरी आत्मा को गांव से दूर भगाने की मनोकामना करते हैं.

सरहुल के अलग-अलग नाम

सरहुल को विभिन्न जनजातीय समुदाय में अलग–अलग नामों से भी जाना जाता है. उरांव समाज में इसे ‘खद्दी’ कहा जाता है. तो वहीं, मुंडा के लोग इसे बाह अर्थात फूलों का त्योहार कहते हैं. संथाल में इसे ‘बाहा’ कहते हैं जिसका अर्थ भी फूल होता है. खड़िया में इसे ‘जनकोर’ कहा जाता है जिसका मतलब होता है बीज का अंकुरित होना.

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