Shibu Soren: खामोश हो गयी झारखंड के योद्धा शिबू सोरेन की आवाज, चले गये दिशोम गुरु
Shibu Soren: शिबू सोरेन ने अपनी राजनीतिक जमीन संताल परगना को बनाया. इसे झामुमो का अभेद्य किला बना दिया. संताल के आदिवासियों में ऐसी चेतना भरी की, गुरुजी का कोई जगह शायद ही ले पाये. शिबू सोरेन की राजनीति संताल-परगना के बिना अधूरी है. 70 व 80 के दशक में धनबाद के टुंडी और पारसनाथ के जंगलों में शिबू सोरेन की समानांतर सरकार चलती थी.
By Mithilesh Jha | August 4, 2025 4:42 PM
Shibu Soren Death News| रांची, आनंद मोहन : दिशोम गुरु शिबू सोरेन नहीं रहे. झारखंड की आवाज खामोश हो गयी. झारखंड का योद्धा चला गया. एक ऐसा लड़ाका, जिसने चार दशकों की लड़ाई से यहां को आदिवासी-मूलवासी को पहचान दी. अलग राज्य दिलाया. अस्मिता और सम्मान दिलाया. रामगढ़ के छोटे से गांव ‘नेमरा’ से संघर्ष की ऐसी चिंगारी लगायी, जिसकी लौ पूरे देश ने देखी. शिबू जीवट थे. संघर्ष में कभी हार नहीं मानी.
महाजनी, सूदखोरी को जड़ से हिला दिया
शुरुआती संघर्ष में महाजनी, सूदखोरी को जड़ से हिला दिया. छोटे से गांव नेमरा की यह लड़ाई, बाद में गोला, पेटरवार, बोकारो, धनबाद, गिरिडीह होते हुए कोल्हान और संताल परगना तक पहुंची. शिबू आदिवासियों के बड़ा चेहरा बन गये. चार फरवरी 1972 को अलग राज्य की लड़ाई को धार देने के लिए झामुमो का गठन हुआ. शिबू झामुमो के पहले महासचिव बने.
जमीनी संघर्ष के बाद बुलंदी तक पहुंचे शिबू सोरेन
जमीनी संघर्ष के साथ-साथ अलग राज्य की आवाज बुलंदी छूने लगी. झारखंड की आवाज दिल्ली के कानों में गूंजने लगी. इधर, शिबू ने संताल परगना को अपनी राजनीति की जमीन बनायी. 1980 में दुमका से पहली बार सांसद का चुनाव जीतकर देश की राजनीति में दस्तक दी. इसके बाद राष्ट्रीय फलक पर भी राजनीति की धुरी बने. केंद्रीय मंत्री से लेकर राज्य गठन के बाद वह 2005 में पहली बार मुख्यमंत्री बने.
शिबू सोरेन ने अपनी राजनीतिक जमीन संताल परगना को बनाया. इसे झामुमो का अभेद्य किला बना दिया. संताल के आदिवासियों में ऐसी चेतना भरी की, गुरुजी का कोई जगह शायद ही ले पाये. शिबू सोरेन की राजनीति संताल-परगना के बिना अधूरी है. 70 व 80 के दशक में धनबाद के टुंडी और पारसनाथ के जंगलों में शिबू सोरेन की समानांतर सरकार चलती थी.
उसके बहुत पहले से ही उन्होंने संताल-परगना के कुछ इलाकों में जाना शुरू कर दिया था. उसमें अधिकांश वे इलाके होते थे, जो टुंडी से करीब हों. तब झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन भी नहीं हुआ था. शिबू सोरेन की इच्छा थी कि वे सिदो-कान्हू की पवित्र धरती भोगनाडीह भी जायें. उन दिनों गुरुजी का परिचय दिगंबर या डी मरांडी से हुआ था, जो मूलतः दुमका के रामगढ़ के रहनेवाले थे. डी मरांडी और नंदलाल सोरेन को लेकर गुरुजी सन 1972 में पहली बार भोगनाडीह गये थे.
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