(जीइएल चर्च का गौरवशाली इतिहास)
जीइएल चर्च के आटोनोमी दिवस (10 जुलाई पर विशेष)
प्रथम विश्वयुद्ध के समय जर्मन मिशनरियों को मान लिया था शत्रु
ब्रिटिशों की असफल उम्मीदें और मिशनरियों की स्वदेश वापसी
ब्रिटिश प्रशासन को उम्मीद थी कि इन मिशनरियों के माध्यम से जर्मनी के शासकों के साथ किसी तरह की कूटनीतिक बातचीत संभव होगी. लेकिन, जर्मन सरकार ने भारत में कार्यरत इन मिशनरियों के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. अंततः सभी बंदियों को एक जहाज के माध्यम से स्वदेश भेज दिया गया. जहां 250 यात्रियों की क्षमता वाले जहाज में 600 लोगों को ठूंसकर जर्मनी रवाना किया गया. जर्मन मिशनरियों के प्रस्थान के बाद जीइएल चर्च के समक्ष एक गंभीर संकट खड़ा हो गया चर्च के संचालन का. उस समय आदिवासी नेतृत्व के समक्ष दो विकल्प थे: या तो वे एंग्लिकन चर्च में विलय कर जायें या फिर स्वतंत्र रूप से जीइएल चर्च का संचालन करें. इस ऐतिहासिक मोड़ पर रांची के आदिवासी नेताओं ने विलय के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए स्वावलंबन का रास्ता चुना और खुद अपने बलबूते जीइएल चर्च का संचालन जारी रखा. यह निर्णय झारखंड में आत्मनिर्भर ईसाई नेतृत्व की नींव बन गया, जिसकी प्रेरणा आज भी प्रासंगिक है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है
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