:::: बच्चों की मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत कर सकते हैं स्कूली
:::: डब्ल्यूएचओ ने स्कूली बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत रखने के लिए बनाया हेल्थ मैनुअल
15 हजार घंटे स्कूल में गुजारते हैं बच्चे
डब्ल्यूएचओ का मानना है कि विद्यार्थी अपना अधिक समय स्कूल में ही गुजारते हैं. नर्सरी से स्कूली शिक्षा पूरा करने तक विद्यार्थी औसतन 15 हजार घंटे स्कूल में ही गुजारते हैं. इस कारण बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत रखने के लिए स्कूली स्तर पर ही प्रयास जरूरी है. इससे बच्चों में विकसित होने वाले नकारात्मक सोच को रोका जा सकता है. बाल अपराध को कम किया जा सकता है. स्कूल बच्चों को अच्छे व्यवहार (इसमें हेल्दी डाइट, फिजिकल एक्टिविटी) की जानकारी दे सकता है. इससे बच्चों का भविष्य बेहतर गुणवत्ता के साथ संवारा जा सकता है. स्कूल के बच्चों का शिक्षक, स्कूल स्टाफ और अपने साथियों के साथ लगाव भी मानसिक रूप से उन्हें मजबूत कर सकता है. इसे ध्यान में रखते हुए डब्ल्यूएचओ ने स्कूली बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत रखने के लिए हेल्थ मैनुअल बनाया है. उम्र सीमा छह से आठ वर्ष
बदलाव : इस उम्र के बच्चों में एक सामान्य डर होता है. परिवार की समस्या, फेल होने का डर और रिजेक्शन जैसी समस्याएं होती हैं. इसका कारण पड़ोसी और एक ही लिंग वाले साथी भी हो सकते हैं. छोटे बच्चों पर अधिकार दिखाने और बड़ों को फॉलो करने की प्रवृत्ति होती है. दूसरों की चीजें अच्छी लगती हैं. अपने आप को गतिविधि, बनावट से दिखाने की भावना विकसित होती है. कम गुस्सा और ज्यादा निराशा की भावना होती है. अधिक आत्म-जागरूक बनने की कोशिश करते हैं. बड़ों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बकवास करना इस उम्र के बच्चों की एक आम प्रवृत्ति है. इसी उम्र में अंधेरे या राक्षसों से डर लग सकता है.
क्या हो सकते हैं उपाय
-गैर-प्रतिस्पर्धी खेलों को प्रोत्साहित करें-व्यक्तिगत लक्ष्य निर्धारित करने में मदद करें
-आत्म-नियंत्रण और अच्छे निर्णय लेने के बारे में बातें करें-धैर्य रखने, बांटने और दूसरों के अधिकारों का सम्मान क्यों जरूरी है, यह बतायें
नौ से 12 साल
क्या हो सकते हैं उपाय :
-हमेशा उनकी भावनाओं के प्रति सचेत रहें
-उच्च ऊर्जा और शांत गतिविधियों के बीच संतुलन बनायें
13 से 16 साल
बदलाव : इस उम्र के बच्चों के जीवन का एक अत्यंत संवेदनशील और निर्णायक चरण होता है. यह उम्र किशोरावस्था कहलाती है, जिसमें शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्तर पर तेजी से बदलाव होते हैं. आत्म-चेतना बढ़ जाती है. कभी खुश, कभी उदास. खुद को पहचानने और समाज में अपनी जगह तलाशने की कोशिश. अकेले रहना पसंद करना, कभी-कभी ज्यादा भी हो जाना. अभिभावकों से तर्क करना या उनकी बातों को चुनौती देना. यह बदलाव अक्सर अभिभावकों और शिक्षकों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन अगर सही तरीके से समझा जाये, तो यह बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण का मजबूत आधार बन सकता है.
सहानुभूति से सुनें, उपदेश न दें.
हेल्दी लाइफस्टाइल सिखायें, व्यायाम, नींद, पोषण.
सीमाएं तय करें, लेकिन तानाशाही नहीं चलायें.
साथ मिलकर बनेगा संबल
स्कूल की भूमिका
स्कूल काउंसलर की व्यवस्था करें.
पाठ्यक्रम में ‘जीवन कौशल’, आत्म-नियंत्रण और सहानुभूति की शिक्षा.
मंच दें. नाटक, संगीत, चित्रकला, कविता आदि से बच्चे खुद को व्यक्त कर सकें.
शिक्षकों की भूमिका
बच्चों की बातें ध्यान से सुनना ही उन्हें सशक्त बनाता है.
हर छात्र को सुरक्षित महसूस हो कि वह अपनी बात कह सके.
दिन की शुरुआत बच्चों से “कैसा महसूस कर रहे हो?” पूछकर करें.
हर बच्चे को “महत्वपूर्ण” महसूस करायें.
अभिभावकों की भूमिकाडांटने से पहले बच्चे से उसका पक्ष जरूर पूछें.
इतना भी क्या सोचते हो? जैसे वाक्य भावनाओं को दबा देते हैं.
नंबर जरूरी है, पर मानसिक सुख-शांति उससे कहीं ज्यादा.
अपने व्यवहार से सीख दें, आप खुद कैसे तनाव झेलते हैं, बच्चा वही सीखेगा.
झारखंड के 5.6 फीसदी बच्चों ने की आत्महत्या
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:::: डब्ल्यूएचओ ने स्कूली बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत रखने के लिए बनाया हेल्थ मैनुअल
15 हजार घंटे स्कूल में गुजारते हैं बच्चे
डब्ल्यूएचओ का मानना है कि विद्यार्थी अपना अधिक समय स्कूल में ही गुजारते हैं. नर्सरी से स्कूली शिक्षा पूरा करने तक विद्यार्थी औसतन 15 हजार घंटे स्कूल में ही गुजारते हैं. इस कारण बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत रखने के लिए स्कूली स्तर पर ही प्रयास जरूरी है. इससे बच्चों में विकसित होने वाले नकारात्मक सोच को रोका जा सकता है. बाल अपराध को कम किया जा सकता है. स्कूल बच्चों को अच्छे व्यवहार (इसमें हेल्दी डाइट, फिजिकल एक्टिविटी) की जानकारी दे सकता है. इससे बच्चों का भविष्य बेहतर गुणवत्ता के साथ संवारा जा सकता है. स्कूल के बच्चों का शिक्षक, स्कूल स्टाफ और अपने साथियों के साथ लगाव भी मानसिक रूप से उन्हें मजबूत कर सकता है. इसे ध्यान में रखते हुए डब्ल्यूएचओ ने स्कूली बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत रखने के लिए हेल्थ मैनुअल बनाया है.उम्र सीमा छह से आठ वर्ष
बदलाव : इस उम्र के बच्चों में एक सामान्य डर होता है. परिवार की समस्या, फेल होने का डर और रिजेक्शन जैसी समस्याएं होती हैं. इसका कारण पड़ोसी और एक ही लिंग वाले साथी भी हो सकते हैं. छोटे बच्चों पर अधिकार दिखाने और बड़ों को फॉलो करने की प्रवृत्ति होती है. दूसरों की चीजें अच्छी लगती हैं. अपने आप को गतिविधि, बनावट से दिखाने की भावना विकसित होती है. कम गुस्सा और ज्यादा निराशा की भावना होती है. अधिक आत्म-जागरूक बनने की कोशिश करते हैं. बड़ों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बकवास करना इस उम्र के बच्चों की एक आम प्रवृत्ति है. इसी उम्र में अंधेरे या राक्षसों से डर लग सकता है.
क्या हो सकते हैं उपाय
-गैर-प्रतिस्पर्धी खेलों को प्रोत्साहित करें-व्यक्तिगत लक्ष्य निर्धारित करने में मदद करें
-आत्म-नियंत्रण और अच्छे निर्णय लेने के बारे में बातें करें-धैर्य रखने, बांटने और दूसरों के अधिकारों का सम्मान क्यों जरूरी है, यह बतायें
नौ से 12 साल
क्या हो सकते हैं उपाय :
-हमेशा उनकी भावनाओं के प्रति सचेत रहें
-उच्च ऊर्जा और शांत गतिविधियों के बीच संतुलन बनायें
13 से 16 साल
बदलाव : इस उम्र के बच्चों के जीवन का एक अत्यंत संवेदनशील और निर्णायक चरण होता है. यह उम्र किशोरावस्था कहलाती है, जिसमें शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्तर पर तेजी से बदलाव होते हैं. आत्म-चेतना बढ़ जाती है. कभी खुश, कभी उदास. खुद को पहचानने और समाज में अपनी जगह तलाशने की कोशिश. अकेले रहना पसंद करना, कभी-कभी ज्यादा भी हो जाना. अभिभावकों से तर्क करना या उनकी बातों को चुनौती देना. यह बदलाव अक्सर अभिभावकों और शिक्षकों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन अगर सही तरीके से समझा जाये, तो यह बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण का मजबूत आधार बन सकता है.
सहानुभूति से सुनें, उपदेश न दें.
हेल्दी लाइफस्टाइल सिखायें, व्यायाम, नींद, पोषण.
सीमाएं तय करें, लेकिन तानाशाही नहीं चलायें.
साथ मिलकर बनेगा संबल
स्कूल की भूमिका
स्कूल काउंसलर की व्यवस्था करें.
पाठ्यक्रम में ‘जीवन कौशल’, आत्म-नियंत्रण और सहानुभूति की शिक्षा.
मंच दें. नाटक, संगीत, चित्रकला, कविता आदि से बच्चे खुद को व्यक्त कर सकें.
शिक्षकों की भूमिका
बच्चों की बातें ध्यान से सुनना ही उन्हें सशक्त बनाता है.
हर छात्र को सुरक्षित महसूस हो कि वह अपनी बात कह सके.
दिन की शुरुआत बच्चों से “कैसा महसूस कर रहे हो?” पूछकर करें.
हर बच्चे को “महत्वपूर्ण” महसूस करायें.
अभिभावकों की भूमिकाडांटने से पहले बच्चे से उसका पक्ष जरूर पूछें.
इतना भी क्या सोचते हो? जैसे वाक्य भावनाओं को दबा देते हैं.
नंबर जरूरी है, पर मानसिक सुख-शांति उससे कहीं ज्यादा.
अपने व्यवहार से सीख दें, आप खुद कैसे तनाव झेलते हैं, बच्चा वही सीखेगा.
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