उलगुलान और बलिदान ने बिरसा मुंडा को बनाया ‘भगवान’

Birsa Munda: बिरसा मुंडा भारत के एक आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और लोकनायक थे. अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में उनकी ख्याति जगजाहिर है. वर्ष 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘उलगुलान’ चला. इसी विद्रोह ने उन्हें भगवान बना दिया. आईए, गणतंत्र दिवस पर वीर बिरसा मुंडा के संघर्ष को याद करते हुए उनको श्रद्धांजलि दें.

By Mithilesh Jha | January 26, 2025 11:15 AM
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Birsa Munda: ब्रिटिश सरकार और उनके द्वारा नियुक्त जमींदार आदिवासियों को जल-जंगल-जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से लगातार बेदखल कर रहे थे. वर्ष 1895 में बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों द्वारा लागू की गयी जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान कर दिया. ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, कर्ज के बदले उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे. यह सिर्फ विद्रोह नहीं था, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति को बचाने का संग्राम था.

15 नवंबर, 1875 को खूंटी जिले के उलिहातु गांव में जन्मे बिरसा मुंडा का जीवन बेहद गरीबी में बीता. उनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हटू था. बिरसा की शुरुआती शिक्षा साल्गा गांव चाईबासा जीईएल चर्च (गोस्नर एवंजिलकल लुथार) विद्यालय से हुई. उन दिनों अंग्रेज आदिवासियों का शारीरिक और मानसिक रूप से शोषण कर रहे थे. बिरसा ने ब्रिटिश राज की नीतियों का हमेशा विरोध किया और लोगों को एकजुट होकर लड़ने के लिए प्रेरित किया. बड़ी संख्या में लोग उनकी बातों से प्रभावित होने लगे थे.

अंधविश्वास से लड़कर बिरसा मुंडा कहलाये ‘धरती आबा’

बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आदिवासी समाज अंधविश्वास और आस्था की कुरीतियों के शिकंजे में कैद है. सामाजिक कुरीतियों के कारण ही आदिवासी समाज अज्ञानता के अंधकार में जी रहा है. उस समय ब्रिटिश शासकों और जमींदारों के शोषण से आदिवासी समाज झुलस रहा था. बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना शुरू किया.

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सामाजिक स्तर पर, आर्थिक स्तर पर एवं राजनीतिक स्तर पर, जिसके तहत उन्होंने आदिवासी समाज को अंधविश्वास और ढकोसलों के चंगुल से बाहर निकालने पर काम किया. वहीं, आर्थिक स्तर पर हो रहे शोषण के खिलाफ भी चेतना पैदा की. इसका नतीजा यह हुआ कि सारे आदिवासी शोषण के खिलाफ संगठित होने लगे. बिरसा मुंडा ने उनका नेतृत्व किया. देखते ही देखते बिरसा मुंडा लोगों के लिए धरती आबा यानी धरती पिता हो गये.

छापामार लड़ाई से अंग्रेजों के छक्के छुड़ाये

अंग्रेजी हुकूमत के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए बिरसा मुंडा ने आदिवासियों की एक सेना बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ छापामार लड़ाई शुरू कर दी. वर्ष 1895 से 1900 के बीच मुंडा आदिवासियों ने बिरसा के नेतृत्व में छापामार लड़ाई करते हुए अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया. अगस्त, 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोल दिया.

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वर्ष 1898 में तजना नदी के किनारे बिरसा मुंडा ने अपने अनुयायियों के साथ अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया. अंग्रेजी सेना को बिरसा मुंडा की आदिवासी सेना ने पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया. बाद में अतिरिक्त अंग्रेजी सेनाओं के आने के बाद आदिवासी लड़ाकों की हार हुई. कई आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया. 3 फरवरी, 1900 को अंग्रेजी सेना ने बिरसा को उसके समर्थकों के साथ जंगल से गिरफ्तार कर लिया.

रांची जेल में संदेहास्पद स्थिति में बिरसा मुंडा की हुई थी मौत

भगवान बिरसा की 9 जून, 1900 को जेल में संदेहास्पद स्थिति में मौत हो गयी. अंग्रेजी हुकूमत ने बताया कि हैजा के चलते उनकी की मौत हुई है. महज 25 साल की उम्र में मातृभूमि के लिए शहीद होकर बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए उद्वेलित कर दिया. बिरसा के संघर्ष और बलिदान की वजह से उन्हें ‘धरती आबा’ की संज्ञा दी गई. उन्हें ‘भगवान बिरसा मुंडा’ कहा गया.

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