World Suicide Prevention Day: स्कूल की छत से छठी क्लास की एक छात्रा कूद जाती है. उसके स्कूल बैग से एक नोट मिलता है, जो बताता है कि वह फैमिली मैटर को लेकर काफी परेशान थी. कुछ छात्राओं को विद्यालय में शिक्षक से डांट पड़ती है और वे जान देने के लिए जहर पी लेती हैं. एक विद्यालय में बिंदी लगाने को लेकर छात्रा को डांट पड़ती है और वह आत्महत्या कर लेती है. इन खबरों के साथ हाल ही में कोटा शहर में पढ़ाई के दबाव में आकर एक छात्र की आत्महत्या की खबर ने हर माता-पिता की चिंता को बढ़ा दिया, जिनके बच्चे दूसरे शहरों में पढ़ाई कर रहे हैं. आखिर हम बच्चों की कैसी परवरिश कर रहे हैं, वे क्यों इतने दबाव में आ जा रहे हैं कि जिंदगी से दूर चले जा रहे हैं? इन घटनाओं को कैसे रोका जाये? इन्हीं बिंदुओं पर प्रस्तुत है यह विशेष रिपोर्ट.
कानपुर के क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ सुधांशु मिश्रा क्या कहते हैं-
अभिभावकों पर बच्चों के भविष्य की चिंता इतनी हावी है कि कई बार वे जन्म से पहले ही बच्चे के पेशे के बारे में निर्णय लेने लगते हैं. भावी पीढ़ी के सपनों और मौजूदा विकल्पों पर विचार किये बिना डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या सिविल सरवेंट बनने का सपना देख लिया जाता है, जिन अपेक्षाओं का बोझ बच्चों में घोर निराशा, डर व अवसाद का कारण बनता है. जो बच्चे अंकों की दौड़ में पीछे रह जाते हैं, वे आलोचना का शिकार बनते हैं. मीनमेख निकालने वालों में पेरेंट्स, टीचर्स और रिश्तेदार तक सभी शामिल होते हैं. उन्हें लगता है कि हर हाल में डॉक्टर, इंजीनियर बनना ही है, वरना सभी से अपमान और हीनता ही मिलेगी. याद रखिए कि माता-पिता का दबाव बच्चों पर भारी भावनात्मक बोझ डालता है. जो बच्चे इसे सह नहीं पाते, वे खुदकुशी की राह पर चले जाते हैं. याद रखें, पैरेंट होने की पहली शर्त बच्चों से कोई उम्मीद न पालना है.
भुवनेश्वर के करियर कंसल्टेंट (फास्ट ट्रैक) पीके प्रमाणिक क्या कहते हैं-
माता-पिता, सरकार और शिक्षाविदों को सच्चाई स्वीकार करनी चाहिए कि कोचिंग संस्थान प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कठिन विषयों में केवल थोड़ी-बहुत मदद कर सकते हैं, वे पारंपरिक स्कूलों या कॉलेजों की जगह नहीं ले सकते. आप परिणामों का विश्लेषण करें, तो पायेंगे कि अधिकांश टॉपर्स केवल सेल्फ स्टडी और माता-पिता व शिक्षकों के सहयोग के कारण बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं. ध्यान रहे, केवल परीक्षा पास करना और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने में बड़ा फर्क है. हो सकता है कि कुछ बच्चे एग्जाम के हिसाब से तैयारी सही कर लेते हैं, मगर आगे जाकर करियर में उतने सफल नहीं हो पाते, वहीं कई बच्चे बड़े एग्जाम पास नहीं कर पाते, मगर हुनर और करियर में वे कहीं आगे निकल सकते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि आज हमारे आस-पास कई कोचिंग संस्थान बुनियादी शिक्षा देने के बजाय बच्चों को शॉर्टकट बताने में लगे हैं और अभिभावकों से शुल्क के तौर पर मोटी रकम वसूलते हैं.
यदि आप जेइइ/एनइइटी, यूपीएससी आदि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करानेवाले संस्थानों को करीब से जानें, तो आश्चर्य होगा कि ये छात्रों पर उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए अत्यधिक दबाव डालते हैं और ऐसा न हो पाने पर वे छात्रों का खुलेआम मजाक उड़ाते हैं, अपमानित करते हैं. इससे छात्रों को मानसिक आघात पहुंच सकता है और वे किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिसे रोकना हम सबकी जिम्मेदारी है. करियर सलाहकार के रूप में मेरा सुझाव है कि अपने बच्चों को पास के स्कूल या कॉलेज में पढ़ने दें. आपको अपने बच्चों पर भरोसा होना चाहिए, कोचिंग पर नहीं.
रांची की सेवानिवृत्त शिक्षिका शेफालिका सिन्हा क्या कहती हैं-
एक अभिभावक एवं शिक्षक के रूप में हमारी भूमिका ऐसी हो कि हमारे बच्चे मानसिक रूप से मजबूत बनें. आज ज्यादातर परिवार एकल होते जा रहे हैं. पहले की तरह दुलार-प्यार देने वाले और उन्हें समझने वाले दादा-दादी, नाना-नानी प्राय: उनके साथ नहीं रहते. उनके साथ रहने से बच्चे का भावनात्मक लगाव तो होता ही है, यह उनको मानसिक रूप से मजबूत भी बनाता है.
पढ़ाई के मोर्चे पर हम सब जानना चाहते हैं कि पढ़ाई करते समय बच्चा किसी भी विषय को कितना समझ रहा है, कितना जानता है और कितना नंबर लाता है. मतलब यह कि उसकी बौद्धिक क्षमता की जांच तो हम करते हैं, लेकिन यह नहीं देखते कि भावनात्मक रूप से वह कितना मजबूत है. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि व्यक्ति की सफलता के लिए आइ क्यू से अधिक इमोशनल कोशंट जरूरी है. इसलिए एक बच्चे का मन से मजबूत होना बहुत जरूरी है, तभी वह आने वाली छोटी-छोटी बातों से डरेगा नहीं और बड़ी समस्याओं का भी सामना करने को तैयार रहेगा. बढ़ते बच्चे के शारीरिक व मानसिक विकास के लिए उनसे संवाद करना, उनको समय देना बहुत जरूरी है. आज बच्चों के साथ बड़े भी तकनीकी दुनिया में इतने व्यस्त हैं कि मन की बात मन में ही रह जाती है. यह मानसिक तनाव कम नहीं करता, बल्कि बढ़ा देता है. घर और विद्यालय ही वो जगह हैं, जहां बच्चे का सबसे अधिक समय बीतता है. अत: बच्चे के मन की जानकारी रखने का दायित्व भी इन दोनों का है. माता-पिता बच्चे को समय दें, उनकी बातें सुनें और घर का माहौल शांत व सौहार्दपूर्ण रखें.