इतिहास के पन्नों से गायब
दरअसल, 3 जुलाई 1857 को अंग्रेज हुकूमत ने बस्ती जिले के महुआ डाबर गांव को चारों ओर से घेरकर आग के हवाले कर दिया था. करीब 5000 निर्दोष ग्रामीणों की निर्मम हत्या कर दी गई थी. गांव को न सिर्फ जलाया गया, बल्कि उसका नाम-ओ-निशान तक मिटा दिया गया. यहां कभी छींट कपड़े की अंतरराष्ट्रीय मंडी हुआ करती थी, जिसे अंग्रेजों ने ‘गैर चिरागी’ यानी अंधकार में धकेल दिया.
इतिहास की सबसे बड़ी साजिश
डॉ. शाह आलम राना ने कहा कि ब्रिटिश हुकूमत ने न केवल असली महुआ डाबर को जला डाला, बल्कि करीब 50 किलोमीटर दूर गौर क्षेत्र में नया महुआ डाबर गांव बसा कर असली इतिहास को दफन करने की साजिश रची. साल 2010 में लखनऊ विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई में गांव के अवशेष, ईंटों की दीवारें, कुएं, जले हुए लकड़ी के टुकड़े, प्राचीन औजार, सिक्के और नालियां मिलीं, जो इस बात की गवाही देते हैं कि महुआ डाबर कभी एक समृद्ध और ऐतिहासिक स्थल था.
डॉ. राना ने जताया आक्रोश
डॉ. राना ने आक्रोश जताते हुए कहा कि जालियांवाला बाग पर ब्रिटेन ने शर्म जताई, अफसोस भी जताया, पर महुआ डाबर पर आज भी खामोशी क्यों? जब 5000 निर्दोष भारतीयों की लाशें राख में बदल दी गईं, तब दुनिया चुप क्यों रही?” इतना ही नहीं डॉ. राना ने राष्ट्रीय स्मारक की मांग करते हुए कहा कि भारत की आजादी केवल दिल्ली, मेरठ या लखनऊ तक सीमित नहीं थी. बस्ती की जमीन भी आजादी की चिंगारी से धधकी थी, जिसे इतिहास से मिटाने की साजिश सफल नहीं हो पाई.
महुआ डाबर संग्रहालय का प्रयास
संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. शाह आलम राना के नेतृत्व में 1999 में महुआ डाबर संग्रहालय की स्थापना की गई. उनके प्रयासों से यह स्थान उत्तर प्रदेश पर्यटन नीति 2022 के ‘स्वतंत्रता संग्राम सर्किट’ में शामिल हो चुका है. हाल ही में 10 जून 2025 से प्रशासन द्वारा यहां शस्त्र सलामी भी शुरू की गई है.
शहीदों को श्रद्धांजलि
स्मरण दिवस पर डॉ. संजीव कुमार मौर्या, फकीर मोहम्मद, नासिर खान, यशवंत सहित अन्य वक्ताओं ने अपने विचार रखे. वहीं, रमजान खान, मुम्ताज अली, ताहिर अली, वसीम खान, अशफाक, आलम खान, मोहम्मद गुलाम, नजर आलम सहित सैकड़ों लोगों ने शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की. श्रद्धांजलि कार्यक्रम का संचालन बुद्ध विक्रम सेन ने किया.