वह क्रांतिकारियों के ठहरने, अस्त्र-शस्त्र छिपाने और युवक-युवतियों का चयन व प्रशिक्षण के प्रबंध करने लगीं. उन्हीं दिनों ननिबाला ने ऐसा साहसिक काम किया, जो इन दिनों किसी हिंदू विधवा के लिए अकल्पनीय था. दरअसल, क्रांतिकारी रामचंद्र मजूमदार जेल में बंद थे. गिरफ्तारी से पहले वह अपना रिवॉल्वर कहां छिपा गये, इसका पता उनके साथियों को नहीं था. ननिबाला ने स्वयं को रामचंद्र मजूमदार की पत्नी बताया और जेल में उनसे भेंट की और रिवाल्वर का पता लगा लिया.
क्रांतिकारियों को छिपाने में की मदद
9 सितंबर, 1915 को बाघा जतिन की अंग्रेजों से मुठभेड़ हुई, जिसमें गोली लगने से वह घायल हो गये. जख्म गहरा होने के बाद अगले दिन ही उनकी मौत हो गयी. बाघा जतिन के हिंदू-जर्मन षड्यंत्र से भयभीत होकर अंग्रेजों ने युगांतर पार्टी से जुड़े सभी क्रांतिकारियों की खोजबीन शुरू कर दी. इसके चलते युगांतर के सभी क्रांतिकारियों को भूमिगत होकर क्रांति की योजना बनाने पर मजबूर होना पड़ा. इसी दौरान ननिबाला ने क्रांतिकारियों के लिए आश्रय स्थल खोजने में काफी मदद की. उन्होंने चंदन नगर में किराए पर मकान लेकर जादू गोपाल मुखर्जी, अमरेंद्र नाथ चटर्जी, शिवभूषण दत्त आदि को शरण दी.
जेल में व्याप्त अव्यवस्था के खिलाफ लड़ी लड़ाई, जेलर को जड़ दिया थप्पड़
पुलिस को पता चला कि युगांतर पार्टी के नेता रामचंद्र मजूमदार की शादी ही नहीं हुई है. उनकी पत्नी बन कर आखिर उनसे मिलने कौन आया था? रहस्य उजागर होने पर ननिबाला का नाम सामने आया. इसकी भनक लगते ही ननिबाला बंगाल छोड़ कर लाहौर चली गयीं और वहां पर भूमिगत होकर काम करने लगीं. उनकी गिरफ्तारी के लिए पुलिस को इनाम रखना पड़ा. इसी बीच उनकी तबीयत खराब हो गयी और पुलिस को उनके गुप्त स्थान पर पता चल गया. पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. पुलिस ने युगांतर से जुड़ी गुप्त जानकारी प्राप्त करने के लिए कई दिनों तक उन्हें यातनाएं दी. उनके विभिन्न अंगों में पिसी हुई मिर्च तक भर दी.
दर्द से कराहती हुई ननिबाला ने महिला पुलिस को जोरदार ठोकर मारी और बेहोश हो गयीं. बाद में उन्हें कलकत्ता के प्रेसिडेंसी जेल में रखा गया. यहां की व्यवस्था के विरोध में उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी. जब गोल्डी नाम के पुलिस सुपरिटेंडेंट ने उनके लिखित मांग-पत्र को उनके सामने ही फाड़ कर फेंक दिया, तो ननिबाला ने यहां भी पूरी ताकत से एक घूंसा उसके मुंह पर जमा दिया. 1919 में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया, पर किसी ने उनकी सुध नहीं ली. कष्ट और बीमारी झेलते हुए उन्होंने अपना अंतिम समय कलकत्ता की एक बस्ती में गुजारा. वर्ष 1967 में उनका निधन हो गया.