पाकिस्तान में मुखौटा पीएम का चुनाव

पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें इतनी कमजोर हैं कि तीन-चार साल बाद इस पर कोई न कोई कुठाराघात हो जाता है. वहां का प्रधानमंत्री सबसे कमजोर कड़ी है. चाहे वह भारी जनादेश वाली नवाज शरीफ की सरकार हो अथवा साधारण बहुमत वाली इमरान खान सरकार, सेना को उसे गिराते देर नहीं लगती है.

By Ashutosh Chaturvedi | February 12, 2024 4:35 AM
an image

पाकिस्तान के हालिया आम चुनाव में किसी दल को बहुमत हासिल नहीं हुआ है. वहां चुनावों में धांधली के आरोप तो कोई नयी बात नहीं है, क्योंकि हर चुनाव सेना संचालित करती है. नतीजा क्या होगा, यह हर कोई जानता है. वहां प्रधानमंत्री सेना का मुखौटा भर होता है, पर कई बार वहां के प्रधानमंत्री को यह भ्रम हो जाता है कि सेना उसके अधीन है और वह स्वतंत्र निर्णय लेने लगता है, तभी उसकी उल्टी गिनती शुरू हो जाती है. पहले नवाज शरीफ के साथ यह हुआ था और फिर इमरान खान के साथ भी वही कहानी दोहरायी गयी. इसी वजह से कहा जाने लगा है कि पाकिस्तान में चुनाव नहीं होते, प्रधानमंत्री का चयन सेना करती है. पिछले चुनाव में इमरान खान सेना के मुखौटा रहे थे, तो इस बार सेना की पसंद नवाज शरीफ हैं. हालांकि इस बार की कहानी में थोड़ा झोल है. इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ (पीटीआइ) को चुनाव नहीं लड़ने नहीं दिया गया था, पर उसके समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार सबसे अधिक संख्या में जीते हैं. पीटीआइ के लिए नतीजे उम्मीद से अधिक बेहतर आये हैं. ये नतीजे सेना और मुस्लिम लीग (नवाज) के नेताओं के लिए झटका हैं, क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि मुस्लिम लीग (नवाज) अपने बूते सरकार बना लेगी. कहा जा रहा है कि सेना प्रमुख असीम मुनीर नतीजों को नियंत्रित करने में नाकाम रहे हैं, लेकिन ऐसी खबरें भी सामने आ रही हैं कि सेना की पटकथा के अनुसार अब नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) और आसिफ जरदारी व बिलावल भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) मिल कर सरकार बनायेंगे. पाकिस्तान में सेना का सत्ता पर नियंत्रण कोई नयी बात नहीं है. सत्ता से लेकर न्यायपालिका तक उसका पूर्ण नियंत्रण है. अदालतें भी सेना के इशारे पर फैसले सुनाती हैं, अन्यथा जजों को ही रुखसत कर दिया जाता है. यही वजह है कि वहां जितने भी तख्तापलट हुए हैं, उन सभी को पाक सुप्रीम कोर्ट ने उचित ठहराया है. पाकिस्तान में सेना कितनी ताकतवर है, इसका आम भारतीयों को अंदाजा नहीं है, क्योंकि अपने देश में राजनीति में सेना की कोई भूमिका कभी नहीं रही है. दिलचस्प यह है कि हर पाकिस्तानी नेता सार्वजनिक रूप से यह कहता है कि सत्ता उसके पास है और सेना उसके साथ खड़ी है, लेकिन हकीकत में वे केवल मुखौटा भर होते हैं. वहां सेना का साम्राज्य है. वह उद्योग-धंधा चलाती है. प्रॉपर्टी के धंधे में उसकी खासी दिलचस्पी है. उसकी अपनी अदालतें हैं. सेना का एक फौजी ट्रस्ट है, जिसके पास करोड़ों की संपदा है. खास बात यह है कि सेना के सारे काम-धंधे को जांच-पड़ताल के दायरे से बाहर रखा गया है. उसके पास लगभग हर शहर में जमीनें हैं. कराची और लाहौर में तो डिफेंस हाउसिंग अथॉरिटी के पास लंबी चौड़ी जमीनें हैं. गोल्फ क्लब से लेकर शॉपिंग माल और बिजनेस पार्क तक सेना के हैं.

पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें इतनी कमजोर हैं कि तीन-चार साल बाद इस पर कोई न कोई कुठाराघात हो जाता है. वहां का प्रधानमंत्री सबसे कमजोर कड़ी है. चाहे वह भारी जनादेश वाली नवाज शरीफ की सरकार हो अथवा साधारण बहुमत वाली इमरान खान सरकार, सेना को उसे गिराते देर नहीं लगती है. स्थापना के बाद से ही पाकिस्तान का राजनीतिक इतिहास बेहद उथल-पुथल भरा और रक्तरंजित रहा है. वहां चार बार चुनी हुई सरकारों को सैन्य तानाशाहों ने गिराया है. दो प्रधानमंत्रियों को न्यायपालिका ने बर्खास्त किया है, जबकि एक पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दे दी गयी और एक पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गयी थी. मौजूदा घटनाक्रम उसी उथल-पुथल का दोहराव है. यह तथ्य जगजाहिर है कि पिछले चुनाव में पाकिस्तानी सेना ने पूरी ताकत लगाकर इमरान खान को जिताया था. इसके लिए सेना ने चुनावों में भारी हेराफेरी की थी. चुनाव प्रचार से लेकर मतदान और मतगणना तक सारी व्यवस्था को सेना ने अपने नियंत्रण में रखा था. पाक सुरक्षा एजेंसियों ने चुनावी कवरेज को प्रभावित करने के लिए लगातार अभियान चलाया था. जो भी पत्रकार, चैनल अथवा अखबार नवाज शरीफ के पक्ष में खड़ा नजर आया, खुफिया एजेंसियां ने उसे निशाना बनाया था. चुनाव से ठीक पहले भ्रष्टाचार के एक मामले में नवाज शरीफ को 10 साल और उनकी बेटी मरियम को सात साल जेल की सजा सुना दी गयी थी, ताकि इमरान खान सत्ता के मजबूत दावेदार बन कर उभर सकें. सेना की मदद से इमरान खान 2018 में सत्ता में तो आ गये, लेकिन वे हर मोर्चे पर पूरी तरह नाकाम रहे. उनके कार्यकाल में पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति खस्ता हो गयी. सेना को लगा कि इन विषम परिस्थितियों में इमरान खान से पीछा छुड़ाना ही बेहतर है. साथ ही मौजूदा सेना प्रमुख असीम मुनीर से इमरान खान का छत्तीस का आंकड़ा है. जब असीम मुनीर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के प्रमुख थे, तो उन्हें इमरान खान ने हटवा दिया था. इस बार भी पटकथा वही है, बस किरदार दूसरे हैं. इमरान खान जेल में हैं. इन चुनावों में इमरान की पार्टी पीटीआइ को चुनाव से बाहर रखा गया. इस बार सेना का मुखौटा नवाज शरीफ और उनके भाई शहबाज शरीफ हैं. नवाज शरीफ को चुनाव के लिए लंदन से पाकिस्तान लाया गया है और उनके खिलाफ चल रहे सारे मामले ठंडे बस्ते में डाल दिये गये हैं. इसके पहले नवाज शरीफ जब प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने स्वीकार किया था कि पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं. उनका बयान सार्वजनिक होने के बाद पाकिस्तानी सेना उनके खिलाफ हो गयी थी और उन्हें जेल तक पहुंचा दिया गया था. नवाज शरीफ को 2017 में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त कर दिया था और उन पर देशद्रोह का मामला भी चला था.

हालांकि पाकिस्तान में सेना का इतना खौफ है कि राजनेता सेना पर सवाल उठाने से डरते हैं, लेकिन वहां के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि इमरान खान की पार्टी के नेता खुलेआम सेना को चुनौती देते नजर आ रहे हैं. इमरान खान की पार्टी के प्रत्याशी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीते हैं. पुरानी कहावत है कि आप अपना मित्र बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं. पाकिस्तान हमारा पड़ोसी मुल्क है, इसलिए न चाहते हुए भी वहां का घटनाक्रम हमें प्रभावित करता है. पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शक्तियों का कमजोर हो जाना और सेना का मजबूत होना शुभ संकेत नहीं है. पड़ोसी मुल्क में राजनीतिक अस्थिरता भारत के हित में नहीं है.

संबंधित खबर
संबंधित खबर और खबरें
होम E-Paper News Snaps News reels
Exit mobile version