वुसत का ब्लॉग: औरंगज़ेब के लिए अब इस्लामाबाद हुआ मुफ़ीद!

Getty Imagesतहरीक ए लब्बैक या रसूल अल्लाह के समर्थकों का प्रदर्शनजैसे 18वीं सदी में औरंगज़ेब के बाद जिसका मुंह उठता था वो दिल्ली की ओर चल देता था भले वो सिख हों या मराठा, नादिर शाह हों या अहमद शाह अब्दाली. ... इसी तरह पिछले चंद सालों से राजधानी इस्लामाबाद का हाल हो गया है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 29, 2017 7:02 AM
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जैसे 18वीं सदी में औरंगज़ेब के बाद जिसका मुंह उठता था वो दिल्ली की ओर चल देता था भले वो सिख हों या मराठा, नादिर शाह हों या अहमद शाह अब्दाली.

इसी तरह पिछले चंद सालों से राजधानी इस्लामाबाद का हाल हो गया है.

जिसका मूड होता है, हज़ार दो हज़ार बंदे लेकर इस्लामाबाद में धरना दे देता है और फिर सरकार को कभी ठोड़ी में हाथ देकर, कभी हंसकर, कभी आंखों में आंसू भरकर, कभी ख़ुदा का वास्ता देकर, तो कभी कुछ मांगें स्वीकार करके और सारे पुलिस पर्चे वापस लेकर धरना ख़त्म करवाना पड़ता है.

मौलाना ताहिरुल क़ादरी के 2013 और इमरान ख़ान के 2014 के धरने के बाद अब पेशे ख़िदमत है, मौलाना ख़ादिम हुसैन रिज़वी का धरना. मौलाना को दो साल पहले तक कोई नहीं जानता था.

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रिज़वी में जैसे ‘जिन’ आ गया

वो बस लाहौर की एक सरकारी मस्जिद में बस नमाज़ पढ़ाते थे और तनख़्वाह वसूल करते थे, लेकिन जब गवर्नर पंजाब सलमान तासीर को क़त्ल करने वाले मुमताज़ क़ादरी को फांसी दी गई तो मौलाना ख़ादिम हुसैन रिज़वी ने मुमताज़ क़ादरी के मिशन का बीड़ा उठा लिया.

क़ादरी के घरवालों को आज कोई नहीं जानता मगर ख़ादिम हुसैन रिज़वी को राष्ट्रपति से लेकर मेरे मोहल्ले के अब्दुल्ला पनवाड़ी तक सब जानते हैं.

पनामा केस के कारण जब नवाज़ शरीफ़ को प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा और उनकी ख़ाली सीट पर उनकी पत्नी कुलसुम नवाज़ ने चुनाव जीता तो इस जीत को यह ख़बर खा गई कि एक नई पार्टी तहरीक-ए-लब्बैक या रसूल अल्लाह के उम्मीदवार ने भी सात हज़ार वोट लिए हैं. यह पार्टी मौलाना ख़ादिम हुसैन रिज़वी की थी.

इसके बाद से रिज़वी साहब में एक जिन जैसी ताक़त आ गई और उन्होंने इस्लामाबाद और रावलपिंडी के संगम पर अपने दो हज़ार समर्थक बिठाकर दोनों शहरों के लाखों लोगों को 21 दिन से बंदी बना रखा है.

इस्लामाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की डांट-फटकार के बाद सरकार ने परसों ग़ैरत में आकर डंडे, रबड़ की गोलियों और आंसू गैस के ज़ोर पर यह धरना उठाने की कोशिश की. मगर ख़ादिम रिज़वी साहब के पत्थरों और गुलेलों से लैस समर्थकों ने यह कोशिश बुरी तरह नाक़ाम बना दी.

अब तो आर्मी चीफ़ जनरल बाजवा भी कह रहे हैं कि ‘मार से नहीं, प्यार से बात की जाए.’

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क्या हुक़्म है मेरे आक़ा

इस्लामाबाद औरंगज़ेब के बाद की दिल्ली मुफ़्त में नहीं बनी. इसके लिए जनरल ज़िया उल हक़ के दौर से अब तक बहुत मेहनत की गई.

आपके यहां तो एक जरनैल सिंह भिंडरावाला ने सरकार को संकट में डाल दिया था, हमारे हाथ जब अलादीन का चिराग़ आया तो उसे रगड़-रगड़कर हमने तो पूरी फ़ैक्ट्री डाल ली. हर साइज़, हर मॉडल, हर नज़रिए का भिंडरावाला ऑर्डर पर बनाया गया जिसे बस एक ही जुमला सिखाया गया, ‘क्या हुक़्म है मेरे आक़ा?’

पर अब मुश्किल यह है कि अलादीन का यह चिराग़ रगड़-रगड़कर के हर छोटा बड़ा काम निकलवा लिया गया है, अब कोई ख़ास काम ही नहीं बचा तो जिन क्या करे इसलिए चिराग़ जिन के हाथ में है और यह कहने की बारी अलादीन की है, ‘क्या हुक़्म है मेरे आक़ा?’

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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