अजय पांडेय
गया:सड़कों, गलियों, दुकानों व कल-कारखानों में बचपन को दम तोड़ते हुए देखा जाता है. लेकिन, एक और जगह है, जहां बच्चों का बचपन व उनकी कोमलता दोनों सिसक रहे हैं.
यह जगह है फल्गु का किनारा. यहां एक ओर छोटे-छोटे बच्चे अपने पूर्वजों का पिंडदान कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ बच्चे अपने परिवार को कुछ आर्थिक मदद करने के लिए फल्गु में नाव चला रहे हैं. नाव भी ऐसी नहीं, जो आसानी से पानी में तैर सके. यह घड़ों को जोड़ कर (घड़नई) बनायी गयी है, जिसे पानी में उतर कर खींचना पड़ता है.
हां, थोड़ा बहुत धारा का सपोर्ट मिलता है, लेकिन इतना भी नहीं कि वह आसानी से पानी में तैर जाये. अब उन बच्चों की मनोदशा समङिाए. एक तरफ वे बच्चे, जो प्रकृति के कटु सत्य से बेजार अपने सगे संबंधियों की मोक्ष के लिए पिंडदान कर रहे हैं, दूसरी तरफ वे बच्चे जो अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए नाव खींच रहे हैं.
यहां दोनों बच्चे बेवक्त अपने परिवार का बोझ खींच रहे हैं. जरा सोचिए, एक घड़नई पर 10-12 लोग बैठते हैं. उन्हें 14 या 15 साल का एक लड़का खींचता है. जीवन-मरण पर मनुष्य का कोई जोर नहीं, लेकिन यहां..? किसे दोषी ठहराएं ?
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