निराला
दस घर मुसलमानों के हैं मेरा गांव में, लेकिन जब ताजिया का जुलूस निकलता है, तो सैकड़ों की संख्या आसानी से पहुंच जाती है. अब कुछ कम हुआ है नहीं तो याद है बचपने की कि मेरे गांव में रहनेवाले तमाम हिंदुओं के घर में आफत-सुल्तानी के समय देवी-देवता-डीहवार-ब्रहम बाबा के साथ ताजिया निकालनेवाली मान्यता भी सबसे लोकप्रिय थी.
जैसे सासाराम के आसपास के पूरे इलाके में कुम्हऊ गांव के किस्से-कहानियां जानते हैं और किसी भी बिगड़ैल लड़के को गाली की तरह कहते हैं कि कुम्हऊ का लड़का हो रहा है का जी, उसी तरह बोधगया इलाके में रहनेवाले कोशिला के किस्से भी जानते हैं कि कैसे वहां बात-बेबात आजमा लिया जाता है एक-दूजे को. कितने अहूठ हैं वहां के लोग और किस तरह वहां जातीयता हावी है. लेकिन इन दोनो गांवों की तमाम बुराइयों में यह सबसे खूबसूरत पक्ष भी है, यहां हिंदू-मुसलमान का बंटवारा नहीं हुआ है उस तरह से, जैसा कि देश के लगभग हर कोने में तेजी से हुआ है.
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