क्या है जातीय समीकरण ?
2000 के बाद जदयू और राजद के बीच सीधा मुकाबला कायम हो गया. 2015 में जदयू के सुधांशु शेखर ने महागठबंधन के तहत जीत दर्ज की और 2020 में एनडीए के साथ रहते हुए वे फिर से विधायक बने. यह स्पष्ट संकेत है कि हरलाखी अब जदयू का गढ़ बन चुका है, हालांकि त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति बरकरार है, जिसमें छोटे दल और निर्दलीय उम्मीदवार भी असर डालते हैं. यहां के प्रमुख जातीय समीकरणों में यादव, मुस्लिम, ब्राह्मण और दलित समुदाय की अहम भूमिका है.
जन सुराज ने फूंका बिगुल
इन राजनीतिक समीकरणों के बीच अब जन सुराज और इसके संस्थापक प्रशांत किशोर (पीके) ने नई चुनौती पेश की है. मधुबनी में आयोजित “बिहार बदलाव सभा” में पीके ने दो बड़े वादे कर लोगों का ध्यान खींचा—60 साल से ऊपर के बुजुर्गों को ₹2000 प्रतिमाह पेंशन और 15 साल से कम उम्र के बच्चों को निजी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा (जब तक सरकारी स्कूलों की हालत न सुधरे). पीके ने भावनात्मक अपील करते हुए कहा, “अब वोट नेताओं के नाम पर नहीं, बच्चों के भविष्य के लिए दें.”
RJD पर साधा निशाना
सभा में उन्होंने राजद प्रमुख लालू यादव पर भी तीखा प्रहार किया. उन्होंने कहा, “लालू जी का बेटा 9वीं पास नहीं, फिर भी उन्हें मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं, जबकि बिहार का पढ़ा-लिखा युवा नौकरी के लिए पलायन कर रहा है.” उन्होंने यह भी कहा कि हर साल छठ के बाद लाखों युवक मजदूरी के लिए बाहर जाते हैं, लेकिन उनकी सरकार बनने पर युवाओं को स्थानीय रोजगार मिलेगा.
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बदलाव बनाम राजनीति
हरलाखी का राजनीतिक इतिहास जहां जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमता रहा है, वहीं अब जन सुराज इस ढांचे को तोड़कर विकास, शिक्षा और रोजगार को केंद्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है. अब देखना दिलचस्प होगा कि हरलाखी की जनता परंपरागत जातीय राजनीति के रास्ते पर चलती है या पीके के “जनता के राज” की ओर रुख करती है.