ब्रांड मोदी, पर भारी पड़ी वैचारिकता की राजनीति

।। पंकज मुकाती ।।... बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मोदी लहर को ब्लोअर की हवा कहा था. ये बात दिल्ली चुनाव के बाद सही होती दिख रही है. निश्चित रूप से ये लहर, हवा या आंधी कोई वैचारिकता, आंदोलन या व्यक्ति विशेष की नहीं ही थी. ये एक संक्रमण के दौर, अव्यवस्था से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 10, 2015 6:42 PM
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।। पंकज मुकाती ।।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मोदी लहर को ब्लोअर की हवा कहा था. ये बात दिल्ली चुनाव के बाद सही होती दिख रही है. निश्चित रूप से ये लहर, हवा या आंधी कोई वैचारिकता, आंदोलन या व्यक्ति विशेष की नहीं ही थी. ये एक संक्रमण के दौर, अव्यवस्था से जूझते देश, परेशान जनता की कांग्रेस के प्रति स्वाभाविक खीझ का वक्त था.

जनता कांग्रेस गठबंधन की सरकार को हर हाल में बाहर का रास्ता दिखाने को बैचैन थी. मोदी या बीजेपी की सरकार बनाना उसका एजेंडा नहीं था. जनता का एजेंडा सिर्फ कांग्रेस के दंभ, उसके नेताओं के अहंकारी बयानों के खिलाफ अपनी ताकत दिखाना था. यदि मोदी की हवा स्वाभाविक होती, उसके पीछे कोई वैचारिक आधार या उनकी छवि के प्रति जनता का अनुराग होता तो ये सिर्फ 9 महीने में नहीं दरक जाता. वैचारिकता या किसी व्यक्ति विशेष के प्रति विश्वास की बुनियाद पर जो जनमत मिलता है, वो बेहद मजबूत और स्थायी होता है.

ऐसा जनमत किसी एक नेता के उभरने या कोई नये विचार के आने पर बदल नहीं जाता.वो भी सिर्फ 8 महीने में. इसी दिल्ली ने लोकसभा चुनाव में मोदी के नाम पर पूरी सात सीटें उन्हें सौंप दी थी. यानि इस बार जो वोट पड़ा है, वो मोदी के 8 महीनों के काम का भी रिपोर्ट कार्ड माना जाएगा. इसे अरविन्द केजरीवाल के 49 दिन बनाम मोदी के 8 महीने मानने से भी नहीं बचा जा सकता.इसने ब्रांड मोदी को भी धक्का पहुंचाया है, हालांकि राजनीति ना तो कारोबार है, ना ही नेता ब्रांड होते है. पर ये पूरी छवि भारतीय जनता पार्टी ने खुद गढ़ी है.

इसलिए इसका आकलन भी ऐसे ही होगा. ये अरविन्द केजरीवाल, आप से ज्यादा विचारधारा की राजनीति की वापसी है, बाज़ार, पैसा, दिखावा और ब्रांड से भारी है जनमत और जमीनी नेता होना, इस विचार की वापसी है. ये शुभ संकेत,ताकत है प्रादेशिक दलों के ईमानदार और नैतिकता की राजनीति करने वाले नेताओं के लिए. इसने बीजेपी को भी आत्ममंथन का मौका दिया है. ये अवसर है कांग्रेस बीजेपी और तमाम दूसरे दलों को अपनी रणनीति को परखने का. अपने भीतर झांकने का.

इस चुनाव ने साबित किया कि नकारात्मक प्रचार, सपनों का मायाजाल ज्यादा दिन तक टिकता नही. विपक्षी दलों को खत्म कर देने को आमादा रहना, उनके नेताओं, विधायकों को अपने दल में शामिल करवाने की कोशिश, तोड़तोड़ की राजनीति को जीत की रणनीति का हिस्सा बना लेना भी कोई नीति नहीं है.ये चुनाव सभी अहंकारी, जिद में और खुद को पार्टी से बड़ा मानने वाले कई नेताओं के लिए सबक नही. बिना संगठन की सहमति के कोई नेता अपनी छवि बचाये नहीं रख सकता. लोकसभा चुनाव में मोदी के चुने जाने के पीछे बड़ा फैक्टर कांग्रेस हटाना और मोदी के अलावा कोई दूसरा नेता मैदान में ना होना रहा. ये भी कहा जा सकता है कि लोकप्रिय नेता से ज्यादा मोदी के चयन के पीछे विकल्प का ना होना बड़ा कारण है.

बताएं लोकसभा चुनाव में मोदी के सामने मुकाबले में कौन था? कोई नहीं ? विकल्पहीनता में चुना जाना लोकप्रियता नहीं कही जा सकती, ये आपकी स्वीकार्यता नहीं साबित करता. झारखण्ड के चुनाव इसका उदाहरण हैं, जहां मोदी के विजय रथ को मुकाबला संघर्ष करना पड़ा. झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन ने हार नहीं मानी मुकाबला किया तो इस सुनामी में भी उन्होंने अपनी पार्टी की सीट बढ़ा ली.

यदि वहां जनता दल यू. राजद, कांग्रेस हेमंत सोरेन के साथ मिलकर लड़ते तो बीजेपी के लिए सरकार बनाना आसान नहीं होता. दिल्ली में जनता ने अरविन्द केजरीवाल को चुना. इसका मतलब है कि अच्छी राजनीति, ईमानदार नेताओं के लिए अभी भी बहुत अवसर है. ब्लोअर की हवा थोड़े वक्त को माहौल गरमा सकती है, पर स्थायी विकल्प नहीं बन सकती.

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