आरके नीरद
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शीतकालीन सत्र के दौरान संसद में (राज्यसभा में एक दिन को छोड़कर) न आना संसदीय और राजनीतिक जगत में बहस का बड़ा मुद्दा है. हालांकि यह पहला अवसर नहीं है, जब नरेंद्र मोदी सदन में आने के प्रति उदासीन रहे. पिछले पूरे मानसून सत्र के दौरान भी लोकसभा में ऐसा ही हुआ था. विपक्ष इसे प्रधानमंत्री की संसद के प्रति उपेक्षा माना रहा है. संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस से लेकर तमाम विपक्षी दल इसे लेकर आहत भाव प्रकट कर रहे हैं. नोटबंदी को लेकर संसद में विपक्ष को भारी हंगामे और सत्र संचालन में आये गतिरोध का ठीकरा अब प्रधानमंत्री की संसद में गैर मौजूदगी के माथे फोड़ने का मौका मिल गया है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर दूसरे दलों के नेता यह कह रहे हैं कि हम शीतकालीन सत्र को सुचारू ढंग से चलाना चाहते हैं, लेकिन सरकार अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही.
नाेटबंदी पर संसद में प्रधानमंत्री को बुलाने की मांग पर विपक्ष अड़ा है. वहीं प्रधानमंत्री जनसभाओं मेें व्यस्त हैं. प्रधानमंत्री नोटबंदी को अपना पक्ष संसद से बाहर, अपनी जनसभाओं में रख रहे हैं. विपक्षी दलों की नाराजगी इससे और ज्यादा भड़क रही है. माकपा नेता सीताराम येचुरी ने प्रधानमंत्री के इस व्यवहार को संसद की अवमानना करार दिया, लेकिन सच क्या है?
प्रधानमंत्री ने कालेधन के खिलाफ जितना बड़ा कदम उठाया है, उस पर उनका संसद में आकर न बोलना वास्तव में आश्चर्य का विषय है. उन्होंने जो कदम उठाया है, वह आर्थिक सुधार के क्षेत्र में बहुत बड़ा प्रभाव पैदा करने वाला है. यह स्वाभाविक था कि इस पर वे सदन में आकर बोलते, लेकिन वे ऐसा कर नहीं रहे, बल्कि सरकार परंपरा से हट कर कैबिनेट की बैठकें कर रही है और उसमें नीतिगत फैसले ले रही है.
वरिष्ठ पत्रकार निरजा चौधरी कहती हैं, ‘एक समय था, जब प्रधानमंत्री सत्र के दौरान कोई नीतिगत निर्णय अपने कैबिनेट की बैठक में नहीं लेते थे, बल्कि उस पर सदन में चर्चा करते थे. यहां तक कि संसद के सत्र के दाैरान प्रधानमंत्री आमतौर पर बाहर भी नहीं जाते थे.’ ऐसा इसलिए कि प्रधानमंत्री संसद के प्रति जवाबदेह होता है. प्रतिपक्ष की यह मांग कि नोटबंदी के मुद्दे पर प्रधानमंत्री संसद में बोलें, संसद में बैठें और संसद की पूरी कार्यवाही में हिस्सा लें, पूरी तरह वाजिब है. निरजा चौधरी मानती हैं, ‘प्रधानमंत्री को सदन में बोलना चाहिए. उन्हें यह कहना चाहिए कि वे सदन की पूरी कार्रवाई में हिस्सा लेंगे और विपक्ष के एक-एक सवाल का जवाब देंगे.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के विभिन्न हिस्सों में जाते हैं. वहां जनसभा और रैलियां करते हैं. जिस नोटबंदी को लेकर संसद में गतिरोध बना हुआ है, उसी मुद्दे पर वे अपनी जनसभाओं में बोलते हैं, लेकिन सदन में आकर कुछ कहने से बचना चाहते है. यहां तक कि वे संसद परिसर की लाइब्रेरी में भी आकर इस मुद्दे पर सरकार का पक्ष रख रहे हैं, लेकिन संसद के भीतर जा कर कुछ बोलने से बच रहे हैं. आखिरकार प्रधानमंत्री सदन में क्यों नहीं आना चाहते और क्यों सरकार का पक्ष नहीं रखना चाहते? वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर मानते हैं, ‘इसमें कुछ भी अप्रत्याशित या अस्वाभाविक नहीं है. प्रधानमंत्री ने तो कह दिया कि वित्त मंत्री सदन में बोलेंगे. ऐसी परंपरा रही है.’
वहीं, निरजा चौधरी का मानना है, ‘प्रधानमंत्री का संसद के अंदर और उसके बाहर बोलने में बड़ा अंतर है. प्रधानमंत्री सदन के अंदर जो भी बोलेंगे या आश्वासन देंगे, वह सरकार के लिए बाध्यकारी होता है.’
तो क्या प्रधानमंत्री नाेटबंदी से उपजे हालात को सामान्य होने में लगने वाले समय और कालेधन पर रोक के लिए उठाये गये इस कदम के ठोस नतीजे के आकलन को लेकर खुद भी आश्वस्त नहीं हैं? अगर ऐसा है, तो विपक्ष का यह कहना कि प्रधानमंत्री के पास उनके तीखे सवालों का जवाब नहीं है, सही है?
वहीं, विपक्ष का रवैया भी सदन को सुचारु रूप से चलने देनेवाला नहीं लगता. गुरुवार को प्रधानमंत्री विपक्ष की मांग पर राज्यसभा में आये थे. संसद की कार्रवाई देखी-सुनी भी, लेकिन भोजनावकाश के बाद प्रधानमंत्री सदन में दिखायी नहीं दिये. विपक्ष इसे मुद्दा बनाया. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सदन को आश्वस्त किया कि प्रधानमंत्री थोड़ी देर में सदन में आयेंगे, लेकिन विपक्ष उन्हें तुरंत बुलाने की मांग करते हंगामे पर उतर आया और राज्यसभा की कार्रवाई स्थगित कर दी गयी. सुरेंद्र किशोर कहते हैं, ‘सरकार तो बहस के लिए तैयार दिख रही. प्रतिपक्ष इसके लिए तैयार नहीं है.’
दरअसल, विपक्ष में भी राजनीतिक नफा-नुकसान की चिंता गहरी है. कांग्रेस यह कभी नहीं चाहेगी कि मायावती, ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल नोटबंदी के मुद्दे पर ज्यादा माइलेज लें. उसकी चिंता अपने नेताओं को फोकस में रखने की ही है. लिहाजा, गुरुवार को राज्यसभा में विपक्ष के हंगामे का उसका अपना मकसद हो सकता है.
बहरहाल, इन सब के बीच, जिस तरह से सत्ता और विपक्ष में तनातनी का माहौल बन चुका है, उससे संसद का चलना लगभग मुश्किल हो चुका है. सत्ता और विपक्ष दाेनों नाक की लड़ाई लड़ रहे हैं. अगर यह स्थिति कायम रही, तो यह शीतकालीन सत्र ऐसे ही बीत जायेगा.
(वरिष्ठ पत्रकार निरजा चौधरी और सुरेंद्र किशोर से बातचीत पर आधारित)
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