125वीं जयंती : प्रकृति के अनोखे सुकुमार कवि थे सुमित्रानंदन पंत

125th birth anniversary ​​Sumitranandan Pant : उनके शुरुआती जीवन की बात करें, तो 20 मई,1900 को उन्हें जन्म देने के कुछ ही घंटों बाद उनकी मां इस संसार को छोड़ गयीं. वे अपने माता-पिता की सातवीं और सबसे छोटी संतान थे. उनके जन्म के बाद उन्हें गोसाईं दत्त नाम दिया गया था. पर बाद में उन्होंने उसे बदलकर सुमित्रानंदन कर दिया.

By कृष्ण प्रताप सिंह | May 20, 2025 6:07 AM
an image

125th birth anniversary ​​Sumitranandan Pant : पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश/पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश/मेखलाकार पर्वत अपार/अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़/अवलोक रहा है बार-बार/नीचे जल में निज महाकार/जिसके चरणों में पला ताल/दर्पण-सा फैला है विशाल! (वर्षा की ऋतु थी और पर्वतों के प्रदेश में प्रकृति पल-पल अपना रूप बदल रही थी. मेखलाकार पर्वत अपने चरण तल में दर्पण से फैले विशाल ताल के जल में अपने हजारों-हजार दृग सुमनों को फाड़-फाड़ कर अपना महाकार देख रहा था). ‘पर्वत प्रदेश में पावस’ शीर्षक कविता की इन पंक्तियों के बाद यह जताने के लिए किसी और उद्धरण की आवश्यकता नहीं रह जाती कि जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और महादेवी वर्मा के साथ हिंदी के छायावाद काल के चार प्रमुख कवियों (आधार स्तंभों) में से एक सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के कैसे सुकुमार कवि हैं.


हिंदी में प्रकृति के और भी कई प्रतिभासंपन्न कवि हुए हैं, परंतु प्रकृति के जैसे संश्लिष्ट चित्र पंत की रचनाओं में मिलते हैं, अन्यत्र दुर्लभ हैं. यह भी गौरतलब है कि प्रकृति के विकट आकर्षण में बंधे पंत अपनी काव्य यात्रा में एक ही जगह ठहरे नहीं रह जाते. एक समय जहां प्रकृति के प्रेम में पगे वे यह तक पूछ लेते हैं- ‘छोड़ द्रुमों की मृदु छाया/तोड़ प्रकृति से भी माया/बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूं लोचन/भूल अभी से इस जग को/तज कर तरल तरंगों को/इंद्रधनुष के रंगों को/तेरे भ्रू भ्रंगों से कैसे बिंधवा दूं निज मृग-सा मन/भूल अभी से इस जग को!’ वहीं आगे चलकर यह घोषणा भी करते हैं- ‘सुंदर हैं विहग, सुमन सुंदर/मानव! तुम सबसे सुंदरतम/निर्मित सबकी तिल-सुषमा से/तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!’ माना जाता है कि पंत का प्रकृति प्रेम भी और सुकुमारता भी, उनकी प्राकृतिक सुषमा से संपन्न उस जन्मभूमि की देन है, जो उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में कौसानी गांव में स्थित है और अपने पर्वतीय प्राकृतिक सौंदर्य, हिमानियों (ग्लेशियरों), नदियों और मंदिरों वगैरह के लिए प्रसिद्ध है.

कहते हैं कि अपनी जन्मस्थली के प्राकृतिक सौंदर्य को पंत ने भरपूर आत्मसात कर रखा था. उनके गांव कौसानी स्थित उनके घर को अब ‘सुमित्रानंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नाम के संग्रहालय में बदल दिया गया है और उसमें उनकी विभिन्न कृतियों की पांडुलिपियों के अलावा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का हिस्सा रहीं अनेक वस्तुएं संग्रहीत हैं. संग्रहालय में एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी अपनी तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है.


उनके शुरुआती जीवन की बात करें, तो 20 मई,1900 को उन्हें जन्म देने के कुछ ही घंटों बाद उनकी मां इस संसार को छोड़ गयीं. वे अपने माता-पिता की सातवीं और सबसे छोटी संतान थे. उनके जन्म के बाद उन्हें गोसाईं दत्त नाम दिया गया था. पर बाद में उन्होंने उसे बदलकर सुमित्रानंदन कर दिया. अल्मोड़ा में प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1918 में वे अपने भाई के साथ काशी चले आये और वहां के प्रतिष्ठित क्वींस कॉलेज से मैट्रिक तक की पढ़ाई की. फिर प्रयाग चले गये और म्योर कॉलेज में प्रवेश लिया. कविताएं वे इससे पहले से ही लिखने लगे थे. पर उनकी काव्य चेतना का समुचित विकास उनके प्रयाग आने के बाद उपयुक्त वातावरण मिलने पर ही हुआ. वह बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध था और चारों ओर स्वतंत्रता संघर्ष की धूम मची हुई थी. फिर वही भला इस संघर्ष से अलग कैसे रहते? असहयोग आंदोलन के दौरान जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजों की संस्थाओं व संस्थानों के संपूर्ण बहिष्कार का आह्वान किया, तो पंत ने कॉलेज छोड़ दिया और स्वाध्याय की बिना पर हिंदी, संस्कृत, बांग्ला व अंग्रेजी भाषा-साहित्य का भरपूर ज्ञान प्राप्त किया. इस स्वाध्याय का उनकी काव्य यात्रा पर गहरा असर हुआ.


वर्ष 1916 से 1977 तक फैली उनकी कोई छह दशकों की इस यात्रा में कहा जाता है कि हिंदी कविता का एक समूचा युग समाया हुआ है और इसके मोटे तौर पर तीन चरण हैं. वर्ष 1916 से 1935 तक के पहले चरण में उन्होंने छायावादी काव्य रचा और अपनी सर्जनात्मकता को चरम उत्कर्ष तक पहुंचाया. दूसरे चरण में उन्होंने प्रगतिवादी काव्य लिखा, जबकि तीसरे चरण में अरविंद दर्शन के प्रभाव में आकर भाव लोक में विचरण करने वाली अध्यात्मवादी रचनाएं कीं. वर्ष 1960 में उनको ‘कला और बूढ़ा चांद’ काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1968 में ‘चिदंबरा’ काव्य संग्रह के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसके अतिरिक्त, भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया और उन पर डाक टिकट जारी किया. प्रतिष्ठित सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार भी उनके खाते में है. उन्होंने कविता ही नहीं, नाटक, उपन्यास, निबंध और अनुवाद में भी योगदान दिया है. उनका संपूर्ण साहित्य ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ के आदर्शों से प्रभावित और समय के साथ सतत प्रवाहमान रहा. अट्ठाइस दिसंबर, 1977 को 77 वर्ष की आयु में उनके निधन के साथ ही हिंदी ने अपने एक युगांतरकारी कवि को खो दिया.

संबंधित खबर और खबरें
होम E-Paper News Snaps News reels
Exit mobile version