अजित रानाडे
अर्थशास्त्री
Forex: पिछले नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत निर्णायक रही. अमेरिकी संसद के निचले सदन यानी प्रतिनिधि सभा या कांग्रेस तथा ऊपरी सदन सीनेट में उनकी पार्टी का बहुमत है. व्हाइट हाउस पर भी उनका नियंत्रण है. इस तिहरे बहुमत को वहां ‘गवर्निंग ट्रिफेक्टा’ कहते हैं. दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के महज तीन सप्ताह में ही ट्रंप ने कुल 64 कार्यकारी आदेशों के जरिये अपनी बढ़ी हुई ताकत का प्रदर्शन किया है. अपने पिछले राष्ट्रपति काल के विपरीत परंपरावादी न्यायपालिका पर भी उनका दो तिहाई बहुमत है. अगर अमेरिका में पैदा होने पर अमेरिकी नागरिकता मिल जाने के अधिकार को वह खत्म करना चाहें, तो इसमें न्यायपालिका में उनका बहुमत महत्वपूर्ण होगा, इसलिए वह फैसला लेने के लिए उन्हें संविधान संशोधन करना पड़ेगा, जिसे सुप्रीम कोर्ट में निश्चय ही चुनौती दी जाएगी.
ट्रंप की लोकप्रियता में हुई 10 फीसदी की वृद्धि
बताया यह जा रहा है कि चुनावी जीत के बाद से ट्रंप की लोकप्रियता में 10 फीसदी की और वृद्धि हुई है. इसका मतलब यह है कि उन्हें वोट न देने वाले बहुतेरे लोग भी अब उनकी नीतियों का समर्थन कर रहे हैं. ये नीतियां हैं-व्यापार भागीदारों के खिलाफ शुल्क के जरिये कार्रवाई, अवैध प्रवासियों के खिलाफ कठोर कदम, दुनिया के दूसरे हिस्सों में जारी खर्चीले युद्धों से हाथ खींचना, नाटो सहयोगियों पर दबाव बढ़ाना तथा सरकार का आकार घटाना. ट्रंप ने ‘जैसे को तैसा’ की रणनीति के तहत अपने व्यापार साझेदार देशों पर जवाबी शुल्क लगाने की धमकी दी है. नतीजा यह है कि भारत ने तुरंत ही अमेरिकी बार्बन व्हिस्की पर आयात शुल्क 150 फीसदी से घटाकर 100 प्रतिशत कर दिया है. हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिल पर आयात शुल्क पहले ही घटा दिया गया था. अमेरिका के साथ व्यापार में भारत 30 अरब डॉलर के लाभ में रहता है, और ट्रंप इसे ही कम करना चाहते हैं. चूंकि रक्षा क्षेत्र में अमेरिका से एफ 35 फाइटर जेट्स और दूसरे उपकरण खरीदे जाने हैं, ऐसे में, उम्मीद है कि अमेरिका तब अपनी कसर निकाल लेगा. अलबत्ता ट्रंप की कुछ सोच अंतर्विरोधी हैं. एक तरफ वह व्यापार घाटा कम करना तथा डॉलर को सस्ता करना चाहते हैं. दूसरी ओर, वह चाहते हैं कि डॉलर दुनिया की सबसे मजबूत और वर्चस्व वाली मुद्रा बना रहे. उन्होंने ब्रिक्स देशों को धमकाया है कि अगर उन्होंने अपना व्यापार डॉलर से इतर दूसरी मुद्रा में किया, तो उनके आयातों पर 100 फीसदी आयात शुल्क थोपा जाएगा. ट्रंप डॉलर को एक ही साथ कमजोर और मजबूत मुद्रा कैसे बनाये रख सकते हैं? तथ्य यह है कि डॉलर इंडेक्स पिछले 25 साल में सबसे अधिक ऊंचाई पर पहुंच गया है.
डॉलर की मजबूती के क्या हैं कारण
डॉलर की इस मजबूती और आधिपत्य की वजह क्या है? क्या ट्रंप के राजनीतिक समर्थन और लोकप्रियता में वृद्धि के कारण डॉलर मजबूत हुआ है? या ‘गवर्निंग ट्रिफेक्टा’ की ट्रंप की उपलब्धि से डॉलर को पंख लग गये हैं? हालांकि यह ‘गवर्निंग ट्रिफेक्टा’ भी नाकाफी है, क्योंकि उच्च सदन सीनेट में बिल को कानून की शक्ल लेने के लिए 60 फीसदी बहुमत चाहिए, जो कि अभी ट्रंप के पास नहीं है. रिपब्लिकन पार्टी के भीतर की सुगबुगाहटें बताती हैं कि सरकार का आकार घटाने और लाभों में कटौती करने जैसे ट्रंप के फैसलों की आलोचना भी हो रही है. फिर डॉलर की मजबूती के क्या कारण हो सकते हैं? पहला कारण तो यही है कि डॉलर के मुकाबले कोई दूसरी करेंसी फिलवक्त विश्व बाजार में नहीं है. न पाउंड स्टर्लिंग, जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कभी उबर नहीं पाया, न 1999 में अस्तित्व में आया यूरो और न ही चीनी युआन. विश्व व्यापार में अमेरिकी हिस्सेदारी बेशक बहुत ज्यादा नहीं, मात्र 11 प्रतिशत है. लेकिन वैश्विक जीडीपी में अमेरिकी अर्थव्यवस्था का योगदान सर्वाधिक एक चौथाई है. ट्रंप की परेशानी का एक बड़ा कारण यह है कि अमेरिका का व्यापार घाटा एक ट्रिलियन (10 लाख करोड़) डॉलर है. जबकि चीन का व्यापार लाभ लगभग इतना ही है, जिसका एक तिहाई अमेरिका के साथ व्यापार में है. भारत समेत कई ऐसे देश हैं, अमेरिका के साथ व्यापार में जो लाभ की स्थिति में रहते हैं. अमेरिका को निर्यात करने वाले इन तमाम देशों का डॉलर विनिमय भंडार के रूप में मौजूद रहता है. पूरी दुनिया में जितनी भी धनराशि विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में है, उसका 60 फीसदी डॉलर की शक्ल में है, जो अमेरिका द्वारा बांड के रूप में जारी किये जाते हैं. विश्व अर्थव्यवस्था में अमेरिका के आधिपत्य का यही कारण है. दरअसल दुनिया के सभी देश चाहते हैं कि उनके मुद्रा भंडार में डॉलर सर्वाधिक रहे. इस कारण अमेरिकी बांड्स की व्यापक वैश्विक मांग है. इससे अमेरिकी सरकार के कर्ज लेने की लागत कम हो जाती है. जाहिर है कि विश्व बाजार में अपनी मजबूत करेंसी के कारण अमेरिका को विशेषाधिकार प्राप्त दर्जा मिला हुआ है.
दुनिया भर में 90 फीसदी विदेशी मुद्राओं का लेन-देन डॉलर में होता है
डॉलर को मजबूती एक और कारण से मिलती है. वह यह है कि दुनिया भर में 90 फीसदी विदेशी मुद्राओं का लेन-देन डॉलर में होता है. यानी यह विश्व में सर्वाधिक वरीयता प्राप्त करेंसी है. डॉलर को यह वरीयता इसलिए मिली है कि उसमें स्थिरता की गारंटी है. इसके अलावा दुनिया भर में यह भरोसा भी है कि अमेरिका कभी दिवालिया नहीं होगा कि अपना कर्ज भी न चुका सके. हालांकि अमेरिकी कानून सरकार को यह छूट नहीं देता कि वह जितना चाहे, कर्ज ले ले. अभी उसका मौजूदा कर्ज 33 ट्रिलियन डॉलर है. जब भी वैश्विक उथल-पुथल या अनिश्चय की स्थिति आती है, तब निवेशक डॉलर की शरण में जाते हैं. वैसे में, विकासशील देशों के शेयर बाजार से बड़ी मात्रा में डॉलर की निकासी होती है, जिससे उन देशों की मुद्रा डॉलर के मुकाबले कमजोर पड़ जाती हैं. ऐसा भारत में भी हुआ है. बड़ी बात यह है कि दुनिया को अमेरिका की वित्तीय प्रणाली में, अमेरिकी न्यायपालिका द्वारा विवादों को निपटाने की त्वरित गति में, लचीलेपन की इसकी क्षमता में भरोसा है, और यह विश्वास भी है कि अमेरिकी सरकार कभी कोई बेतुका या अप्रासंगिक कानून नहीं बनायेगी. बेशक इनमें से किसी भी अमेरिकी खासियत को हल्के में नहीं लिया जा सकता. लेकिन मौजूदा 21वीं सदी में भारत और चीन का उभार डॉलर के आधिपत्य को निश्चय ही चुनौती देने की स्थिति में होगा. भारत का उभार सामान्य है, लेकिन चीन का उभार पश्चिम को चुनौती दे रहा है. इनके आपसी रिश्ते वैश्विक अर्थव्यवस्था की दिशा और डॉलर का भविष्य तय करेंगे. लेकिन फिलहाल तो डॉलर ही शहंशाह है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)