दंडित हों दोषी

हिरासत में होनेवाली हत्याओं के लिए शायद ही कभी कोई पुलिसकर्मी दंडित होता है. इससे आपराधिक मानसिकता के पुलिसकर्मियों का हौसला बढ़ता है.

By संपादकीय | June 30, 2020 2:32 AM
feature

तमिलनाडु में पिता और पुत्र- जयराज एवं बेनिक्स- की पुलिस हिरासत में हुई जघन्य हत्या से पूरे देश में क्षोभ और क्रोध है तथा लोग न्याय की मांग कर रहे हैं. इसी राज्य में एक और मौत का मामला सामने आया है, जिसमें कुछ दिनों पहले पीड़ित युवक की पुलिसकर्मियों ने बेरहमी से पिटाई की थी और तब से उसकी तबियत बेहद खराब चल रही थी. पिता-पुत्र की हत्या ने देश का ध्यान एक बार फिर पुलिस हिरासत में होनेवाली मौतों की ओर खींचा है.

यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि पुलिस सुधार की तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसी आपराधिक हरकतों की रोकथाम नहीं हो पा रही है. लॉकडाउन की अवधि में पुलिस अत्याचार के मामले देशभर से सामने आये थे. कुछ दिन पहले आयी एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में 125 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई थी.साल 2017 में यह संख्या 100 थी, जबकि राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2010 से 2015 के बीच पुलिस हिरासत में 591 मौतें हुई थीं.

ये तथ्य स्पष्ट इंगित करते हैं कि सरकारों और पुलिस महकमे के आला अधिकारियों के दावे खोखले हैं. अक्सर ऐसा होता है कि संदिग्ध परिस्थितियों में हिरासत में हुई मौतों की वजह आत्महत्या या कोई अन्य बीमारी बता दी जाती है. इस तरह से जांच-पड़ताल की गुंजाइश भी खत्म हो जाती है. सरकारों और अधिकारियों द्वारा अपनी बदनामी से बचने के लिए थानों की दीवारों के भीतर के अपराधों या बड़ी खामियों पर परदा डाला जाता है.

ऐसी मौतें देश के अधिकतर राज्यों में होती हैं. पिछले साल हिरासत में मौतों के सबसे अधिक मामले उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब और बिहार से आये थे, पर मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली, ओडिशा, झारखंड आदि राज्य भी बहुत पीछे नहीं हैं. मारे गये 125 लोगों में 93 की मौत यातना के कारण हुई थी. बाकी के लिए अन्य वजहें बतायी गयी थीं. यदि मृतकों की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को देखें, तो कुछ को छोड़कर सभी गरीब और वंचित वर्गों से थे तथा इनमें से कई लोगों को मामूली अपराधों के आरोप में हिरासत में लिया गया था.

कायदे-कानून के हिसाब से तो गिरफ्तारी और हिरासत में लेने के अनेक नियम बने हुए हैं तथा पकड़े गये लोगों को अदालत के सामने जल्दी पेश करने की हिदायत भी है, लेकिन अपनी वर्दी की ताकत को ही सबसे बड़ी अदालत समझने की मानसिकता के सामने इन व्यवस्थाओं की अहमियत नहीं रह जाती है. हिरासत में होनेवाली हत्याओं के लिए शायद ही कभी कोई पुलिसकर्मी दंडित होता है.

इससे आपराधिक मानसिकता के पुलिसकर्मियों का हौसला बढ़ता है. पुलिस का यही रवैया फर्जी मुठभेड़ों, प्रभावशाली लोगों की आज्ञा मानने तथा सड़क पर साधारण लोगों से जोर-जबरदस्ती के रूप में भी सामने आता है. सरकार और अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे मामलों की सही जांच हो और दोषी पुलिसकर्मी दंडित हों.

संबंधित खबर और खबरें
होम E-Paper News Snaps News reels
Exit mobile version