हारे हुए मुनीर को बनाया फील्ड मार्शल, पढ़ें विवेक शुक्ला का लेख

Asim Munir : भारत से हारने के बाद भी वहां का फौजी जनरल नायक बना रहा. पाकिस्तान में फौज ने पहली बार सत्ता का सुख 1958 में लिया था. तब जनरल अयूब खान ने मीरजाफर के वंशज इस्कंदर मिर्जा की सरकार का तख्ता पलट कर पाकिस्तान की सत्ता पर कब्जा जमा लिया था.

By विवेक शुक्ला | May 23, 2025 6:09 AM
an image

Asim Munir : जनरल से फील्ड मार्शल बन गये आसिम मुनीर के बारे में कहा जा रहा है कि वह आने वाले समय में शहबाज शरीफ सरकार का तख्ता पलट सकते हैं. वैसे भी शरीफ सरकार फौज के रहमो-करम पर ही बनी थी. वहां का सबसे लोकप्रिय नेता इमरान खान तो जेल में सड़ रहा है. मुनीर के फील्ड मार्शल बनने को लेकर हैरानी इसलिए हो रही है, क्योंकि उनकी सदारत में पाकिस्तानी सेना की भारत ने ऑपरेशन सिंदूर में कसकर कुटाई की.


भारत से हारने के बाद भी वहां का फौजी जनरल नायक बना रहा. पाकिस्तान में फौज ने पहली बार सत्ता का सुख 1958 में लिया था. तब जनरल अयूब खान ने मीरजाफर के वंशज इस्कंदर मिर्जा की सरकार का तख्ता पलट कर पाकिस्तान की सत्ता पर कब्जा जमा लिया था. फिर तो फौजी जनरलों ने निर्वाचित सरकारों को हटाकर खुद राष्ट्रपति बनना शुरू कर दिया. स्वतंत्र देश बनने के बाद पाकिस्तान में पहला बड़ा बदलाव 1958 में बदलाव आया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़े जनरल अयूब खान ने सात अक्तूबर, 1958 को पहला सैन्य तख्तापलट कर दिया. तब वहां राजनीतिक अस्थिरता चरम पर थी.

तत्कालीन राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने मार्शल लॉ की घोषणा की और अयूब खान को इसका प्रशासक नियुक्त किया. उसके कुछ ही हफ्तों बाद अयूब खान ने मिर्जा को हटाकर सत्ता संभाल ली. उन्होंने ‘बेसिक डेमोक्रेसी’ प्रणाली लागू की, जिसके तहत 80 हजार स्थानीय प्रतिनिधियों के जरिये अप्रत्यक्ष चुनाव कराये गये. उन्होंने आर्थिक सुधारों और भूमि सुधारों की शुरुआत की, जिससे सेना की आर्थिक ताकत बढ़ी. उनका शासन ठीक चला. पर 1965 के युद्ध में भारत से मार खाने के कारण उनकी लोकप्रियता में कमी आयी. वर्ष 1967 के राष्ट्रपति चुनाव में अयूब खान ने मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना को सेना की ताकत से हरा दिया. उन पर फातिमा की हत्या करवाने के भी आरोप लगे. इससे उनके खिलाफ माहौल बनने लगा. वर्ष 1969 में बढ़ते जन आंदोलनों और राजनीतिक दबाव के कारण अयूब खान ने इस्तीफा दे दिया और सत्ता शराबी जनरल याह्या खान के पास आ गयी. उस तख्तापलट ने सेना को पाकिस्तान की राजनीति और अर्थव्यवस्था में शक्तिशाली केंद्र के रूप में स्थापित किया.

जनरल याह्या खान ने 1969 में सत्ता संभाली. उन्होंने मार्शल लॉ लागू किया और खुद को राष्ट्रपति घोषित किया. अयूब खान के शासन के खिलाफ खासकर पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में असंतोष बढ़ रहा था. याह्या खान ने 1970 में देश का पहला सामान्य चुनाव कराने की घोषणा की. चुनाव में शेख मुजीबुर रहमान की अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान में भारी जीत हासिल की, लेकिन याह्या खान और पश्चिमी पाकिस्तान के सत्ताधारी वर्ग ने सत्ता हस्तांतरण से इनकार कर दिया. परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह शुरू हुआ, जिसे दबाने के लिए सेना ने ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ शुरू किया. उसमें लाखों बांग्लाभाषियों का कत्ल हुआ. वह विद्रोह 1971 के बांग्लादेश मुक्तियुद्ध में बदल गया, जिसमें भारत के हस्तक्षेप के बाद पाकिस्तान को हार का सामना करना पड़ा और बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश बन गया. वर्ष 1971 की हार ने याह्या खान की विश्वसनीयता को गहरा आघात पहुंचाया और उन्होंने सत्ता जुल्फिकार अली भुट्टो को सौंप दी. तख्तापलट और हार ने पाकिस्तान में सेना की प्रतिष्ठा कमजोर की, लेकिन सेना ने जिया-उल-हक के जरिये जल्द ही अपनी स्थिति फिर मजबूत कर ली.


जालंधर में पैदा हुए जनरल जिया-उल-हक ने पांच जुलाई, 1977 को जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार का तख्ता पलट कर सत्ता हथिया ली. उस तख्तापलट को ‘ऑपरेशन फेयर प्ले’ नाम दिया गया. दरअसल 1977 के आम चुनाव में भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की जीत पर विपक्ष ने धांधली का आरोप लगाया और देश में व्यापक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये. जिया ने उसे अवसर के रूप में लिया और मार्शल लॉ लागू कर दिया. दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज के छात्र रहे जिया ने इस्लामीकरण की नीति अपनायी, जिसके तहत शरिया कानून लागू किया गया और पाकिस्तान को इस्लामी गणराज्य घोषित किया गया. जिया ने इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आइएसआइ) को मजबूत किया, जिसने विदेश नीति और आंतरिक सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. जिया की देखरेख में 1979 में जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दी गयी, जिसने जिया के शासन को विवादास्पद बना दिया.

उनकी 1988 में एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गयी. जिया के शासन ने पाकिस्तान में इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया और सेना की राजनीतिक हस्तक्षेप की परंपरा को और मजबूत किया. जिया के विदा होने के 11 साल बाद दिल्ली के दरियागंज में पैदा हुए परवेज मुशर्रफ ने 12 अक्तूबर, 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरकार का तख्ता पलट कर सत्ता पर कब्जा किया. वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के बाद नवाज शरीफ और मुशर्रफ के बीच तनाव बढ़ गया था. शरीफ ने मुशर्रफ को हटाने का प्रयास किया, पर सेना ने उनका समर्थन किया और शरीफ को हिरासत में ले लिया. मुशर्रफ ने खुद को चीफ एक्जीक्यूटिव घोषित किया और बाद में राष्ट्रपति बन गये. उन्होंने ‘नियंत्रित लोकतंत्र’ की नीति अपनायी, जिसमें 2002 में एक विवादास्पद जनमत संग्रह के जरिये उनकी सत्ता को वैधता दी गयी. उन्होंने आर्थिक सुधारों और मीडिया की स्वतंत्रता को बढ़ावा दिया, पर सेना का राजनीतिक दबदबा बरकरार रहा. वर्ष 2007 में उन्होंने आपातकाल लागू किया और मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को हटाने की कोशिश की, जिससे व्यापक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये. वर्ष 2008 में बढ़ते दबाव के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया.


मुशर्रफ के शासन ने सेना की सत्ता को मजबूत किया, पर उनके अंतिम वर्षों में लोकतांत्रिक आंदोलनों ने सेना के हस्तक्षेप को चुनौती दी. पाकिस्तान में लोकतांत्रिक संस्थानों को कभी पूरी तरह मजबूत होने का मौका नहीं मिला. बार-बार के सैन्य हस्तक्षेप ने असैनिक सरकारों की विश्वसनीयता कमजोर की. पाकिस्तान के नये फील्ड मार्शल आसिम मुनीर भी जिया जैसे हैं. वह कठमुल्ला मानसिकता वाले इंसान हैं और भारत और हिंदुओं के खिलाफ नफरत उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है. वर्ष 2022 में इमरान खान की सरकार के अपदस्थ होने के बाद वहां आसिम मुनीर की सदारत में सेना फिर महत्वपूर्ण हो चुकी है. उसे अवाम का प्यार और विश्वास मिल रहा है. ऑपरेशन सिंदूर में भारत से मार खाने के बाद भी जनरल मुनीर का फील्ड मार्शल बनना क्या बताता है? हमारा पड़ोसी देश फिर से सैनिक शासन की तरफ तो नहीं बढ़ रहा? (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

संबंधित खबर और खबरें
होम E-Paper News Snaps News reels
Exit mobile version