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पुलिस की जवाबदेही सुनिश्चित हो

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पुलिस की जवाबदेही सुनिश्चित हो
Paris: Protester kick in tear gas canisters during a demonstration Tuesday, June 2, 2020 in Paris. Thousands of people defied a police ban and converged on the main Paris courthouse for a demonstration to show solidarity with U.S. protesters and denounce the death of a black man in French police custody. The demonstration was organized to honor Frenchman Adama Traore, who died shortly after his arrest in 2016, and in solidarity with Americans demonstrating against George Floyd's death. AP/PTI Photo(AP03-06-2020_000010A)

विपुल मुदगल, निदेशक, कॉमनकॉज

vipul.mudgal@commoncause.in

अमेरिका के मिनीयापॉलिस शहर में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मई में जब पुलिस ज्यादती से मौत हुई, तो पूरे देश में कोहराम मच गया. एक बेहद मामूली अपराध के संदेह में फ्लॉयड की गिरफ्तारी के दौरान एक पुलिस अधिकारी ने उनकी गर्दन पर अपना घुटना गाड़ दिया और दो अन्य पुलिसकर्मी उनके बेहोश शरीर को दबाये रहे. अचेत होने से पहले फ्लॉयड कहते रहे ‘आइ कांट ब्रीद’ (मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं), मगर पुलिस ने उनकी नहीं सुनी और उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया. घटना की रिकॉर्डिंग सिक्योरिटी कैमरे पर दर्ज हो गयी थी. एक प्रत्यक्षदर्शी लड़की ने भी सेल फोन पर वीडियो बनाकर शेयर कर दिया, जो मिनटों में वायरल हो गया. आज अमेरिका की दीवारों और सड़कों पर एक ही नारा है ‘आइ कांट ब्रीद’, जो सामाजिक न्याय के संघर्ष का पर्याय बन गया है.

घटना के बाद चारों पुलिस अधिकारियों को तुरंत हत्या का अभियुक्त बनाकर पद मुक्त कर किया गया और अगले कुछ दिनों में उनके अपराध को गंभीर हत्या की श्रेणी में तब्दील कर दिया गया. मगर, फिर भी इस प्रकरण ने पूरे देश को विचलित कर दिया. मृतक के सम्मान और संवेदना में मिसीसिपी नदी किनारे बसे मिनीयापॉलिस शहर के रास्तों को जनता ने फूलों और गुलदस्तों से पाट दिया. जन-सैलाब सड़कों पर उतर आया और अटलांटिक तट से लेकर प्रशांत तट तक फैले अमेरिका में प्रदर्शनों का सिलसिला फूट पड़ा. कई जगहों पर लूटपाट और आगजनी की घटनाएं भी हुईं. प्रदर्शन जिस पुलिस के खिलाफ थे, उसी ने लोगों पर डंडे बरसाये और अश्रु गैस से लेकर प्लास्टिक बुलेट, और स्टन ग्रेनेड से लेकर टेसर गन जैसे भीड़ को निष्क्रिय बनानेवाले हथियारों का खुलकर प्रयोग किया.

संयोग से, मैं उस समय अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में एक फेलोशिप पर था और भारत वापस आने की तैयारी में जुटा था. मेरे लिए सबसे आश्चर्य की बात ये थी कि पुलिस महिलाओं, बूढ़ों और यहां तक कि पत्रकारों को भी नहीं बक्श रही थी. कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने सिर्फ पहले कुछ दिनों में ही 125 ऐसी घटनाओं की लिस्ट जारी की, जिसमें पत्रकारों के साथ हिंसा, उत्पीड़न और धरपकड़ की गयी. मेरे लिए दूसरी चौंकानेवाली बात थी- अमेरिका में पुलिस का मिलिट्रीकरण, जो भुलाये नहीं भूलता.

व्हाइट हाउस के आस-पास जहां मैं रोज शाम को सैर करने निकलता था, वहां का खुशनुमा माहौल युद्ध क्षेत्र में बदल चुका था. सामने बख्तरबंद गाड़ियां, चारों तरफ भारी-भरकम हथियारों से लैस बुलेट प्रूफ जैकेट में पुलिसकर्मी और आसमान पर काफी नीचे उड़ान भरते पुलिस के हेलिकॉप्टर. दमन की इस काली छाया के तले प्रदर्शनकारी भी खूब डटे रहे और नारे लगाते रहे ‘आइ कांट ब्रीद’ और न्याय नहीं, तो शांति नहीं (‘नो जस्टिस नो पीस’). यही आलम लगभग हर शहर में था और लड़ाई पुलिस के खिलाफ नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए थी.

प्रदर्शनकारी जिस समस्या को बेनकाब कर रहे थे, वह स्वतः ही अपने विकराल रूप में प्रकट थी. जो पुलिस व्यवस्था काले-गोरों के बीच भेदभाव करती है, वह अश्वेत लोगों पर हो रहे तमाम अत्याचारों का प्रतीक बन गयी थी. मैपिंग पुलिस वाइलेंस (एमपीवी) नामक स्वयंसेवी संस्था की एक रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस के हाथों मरनेवाले अश्वेत नागरिक (24 प्रतिशत) अपनी जनसंख्या (13 प्रतिशत) से लगभग दोगुने से कुछ ही कम हैं. बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस के हाथों मरनेवाले श्वेत लोग (36 प्रतिशत) अपनी जनसंख्या (60 प्रतिशत) के आधे के आस-पास है.

अश्वेतों के साथ पुलिस के अन्याय पर अमेरिका में दर्जनों रिपोर्टें हैं, जिन पर सही अमल अभी तक नहीं हुआ है. मगर, इस आंदोलन के दौरान भी पुलिस भीड़ के साथ वही कर रही थी, जो वह हमेशा से करती आयी है, यानी अत्यधिक बल प्रयोग. अमेरिका में पिछले कुछ दशकों में, पुलिस का भारी मिलिट्रीकरण हुआ है और ‘क्राउड कंट्रोल’ के कानूनों को बेहद सख्त बनाया गया है. जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के पहले और बाद भी ऐसी बहुत घटनाएं हुई हैं और हो रही हैं.

मगर, यह कहा जा सकता है कि प्रतिरोध के साथ-साथ परिवर्तन की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है. चाहे उसकी गति कितनी भी मंद क्यों न हो. वहां पुलिस विकेंद्रीयकृत संस्था है और मुख्यतः स्थानीय निकायों के अधीन है, जिससे स्थानीय जन प्रतिनिधि भी स्थितियों में सुधार ला सकते हैं. राष्ट्रपति चुनावों में भी पुलिस के सुधार और सामाजिक न्याय बहुत बड़े मुद्दे बने हैं. अंततः क्या होता है, वह तो समय के साथ ही पता चलेगा, मगर इस पूरे प्रकरण में कुछ ऐसी समानताएं और विषमताएं सामने आयीं, जिनका जिक्र करना मैं आवश्यक समझता हूं.

पहली, ये कि सामाजिक अन्याय के खिलाफ महिला, पुरुष, काले, गोरे, एशियाई, हिस्पानिक, नौजवान, बूढ़े इत्यादि सभी सड़कों पर उतर आये. कई जुलूसों में तो अश्वेत लोग अल्पसंख्या में नजर आ रहे थे. भारत में अक्सर देखा गया है कि जब अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों पर या अल्पसंख्यकों पर पुलिस की ज्यादतियां होती हैं, तो अन्य वर्गों के नागरिक आवाज उठाने में कोताही करते हैं, जिससे सामाजिक न्याय की लड़ाई जाति की लड़ाई बन जाती है. दूसरी, ये कि मुख्यधारा के लगभग सारे अमेरिकी मीडिया ने अन्याय के खिलाफ जंग में अश्वेत और पीड़ितों का साथ दिया और खबरों के साथ पक्षपात नहीं किया.

सत्ता पक्ष के रिपब्लिकन मीडिया ने भी पुलिस की भीड़ पर कार्रवाई का छुटपुट समर्थन तो किया, मगर अश्वेतों पर हुई पुलिस ज्यादतियों का पक्ष नहीं लिया. तीसरी बात, ये कि रंगभेद के समर्थकों को मीडिया ने लगभग शून्य कवरेज दिया. चौथी और अंतिम बात, अमेरिका की घटनाओं का एक सबक है कि पुलिस सुधारों का मतलब यह नहीं है कि पुलिस को ज्यादा हथियार देकर उसकी मारक शक्ति बढ़ायी जाए या उसका मिलिट्रीकरण किया जाए, बल्कि ये है कि उसे जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जाए, जिसकी आवश्यकता दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका और सबसे बड़े लोकतंत्र भारत दोनों को है. दोनों जगह लड़ाई अभी बाकी है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Posted by : Pritish Sahay

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