बेहतर रिश्ते में बाधक है चीन का दोहरापन, पढ़ें आनंद कुमार का लेख

India- China Relations : एससीओ की बैठक में चीन का रुख बहुत निराशाजनक रहा, खासकर तब जब हाल ही में दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य करने के कुछ संकेत मिले थे. कैलाश-मानसरोवर यात्रा को पांच वर्ष बाद फिर से शुरू करने के निर्णय से उम्मीद जगी थी कि दोतरफा संबंधों में कुछ सुधार होगा.

By आनंद कुमार | July 3, 2025 6:02 AM
an image

India- China Relations : एससीओ, यानी शंघाई सहयोग संगठन में आतंकवाद पर चीन के निराशाजनक रुख की पृष्ठभूमि में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा बीजिंग को दो टूक और स्पष्ट बात करने का मतलब साफ है. चीन के रक्षा मंत्री से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि द्विपक्षीय संबंधों में नयी पेचीदगी जोड़ना उचित नहीं होगा. यही नहीं, उन्होंने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तनाव कम करने के लिए विकल्प भी सुझाये, ताकि भविष्य में गलवान जैसी स्थिति पैदा न हो.

एससीओ की बैठक में चीन का रुख बहुत निराशाजनक रहा, खासकर तब जब हाल ही में दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य करने के कुछ संकेत मिले थे. कैलाश-मानसरोवर यात्रा को पांच वर्ष बाद फिर से शुरू करने के निर्णय से उम्मीद जगी थी कि दोतरफा संबंधों में कुछ सुधार होगा. चीनी रक्षा मंत्री एडमिरल डोंग जुन और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बीच सीमा विवाद के स्थायी समाधान और विश्वास निर्माण की आवश्यकता पर चर्चा हुई. लेकिन चीन का रणनीतिक दोहरापन आपसी रिश्तों को सामान्य बनाने की संभावना पर संदेह की छाया डालता है.


चीन की यह ‘ड्यूल ट्रैक’ नीति अब काफी स्पष्ट हो गयी है. एक ओर वह भारतीय नेताओं से उच्च स्तरीय बैठकें कर रहा है, दूसरी ओर व्यापार को हथियार बनाकर भारत पर दबाव डाल रहा है. हाल ही में चीन ने दुर्लभ पृथ्वी चुंबकों, विशेष उर्वरकों और सुरंग खोदने की मशीनों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाये हैं, जो भारत के निर्माण, कृषि और आधारभूत ढांचे के लिए बेहद आवश्यक हैं. यह सब एक रणनीति के तहत हो रहा है, ताकि भारत को झुकाया जा सके और उससे रणनीतिक रियायतें ली जा सकें. ये प्रतिबंध निरीक्षण प्रोटोकॉल जैसे प्रशासनिक बहानों में छिपे हुए हैं, लेकिन इनका उद्देश्य साफ है.

चीन भारत की आर्थिक नीतियों, जैसे एफडीआइ पर नियंत्रण, चीनी एप्स पर प्रतिबंध और सीधी उड़ानों की सीमाओं से नाराज है. बीजिंग का संदेश स्पष्ट है : यदि आप आर्थिक रूप से अलग होना चाहते हैं, तो उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. भारत ने इस दबाव के आगे झुकने के बजाय जवाबी रणनीति अपनायी है. अब वह रूस से अधिक उर्वरक आयात कर रहा है, जिससे चीनी निर्भरता में कमी आयी है. साथ ही, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान के साथ दुर्लभ पृथ्वी तत्वों पर साझेदारी को मजबूत किया जा रहा है. इसके अतिरिक्त, पीएलआइ के तहत भारत घरेलू स्तर पर महत्वपूर्ण उत्पादों के निर्माण को बढ़ावा दे रहा है.


यह आर्थिक आत्मनिर्भरता भारत की व्यापक रणनीतिक पुनर्संरचना का हिस्सा है. भारत एक ओर चीन से कूटनीतिक संवाद बनाये रख रहा है, दूसरी ओर, अपने हितों की रक्षा के लिए मजबूती से खड़ा भी है. एससीओ के संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने से इनकार दरअसल इसी नये आत्मविश्वासी दृष्टिकोण का प्रतीक है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी राजनाथ सिंह के निर्णय का समर्थन किया और कहा कि एक सदस्य (संकेत स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की ओर था) ने बयान में आतंकवाद का जिक्र करने का विरोध किया, जबकि आतंकवाद से लड़ना ही एससीओ की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य रहा है. एससीओ की सर्वसम्मति आधारित निर्णय प्रणाली के चलते संयुक्त बयान जारी नहीं हो सका, क्योंकि भारत ने आपत्ति जतायी. इससे न केवल इस मंच की आंतरिक विसंगतियां उजागर हुईं, बल्कि यह भी सिद्ध हुआ कि कुछ सदस्य अपने राजनीतिक हितों के लिए मंच का दुरुपयोग कर रहे हैं.

पाकिस्तान द्वारा बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी की गतिविधियों को पहलगाम आतंकी हमले के समकक्ष बताने की कोशिश और चीन द्वारा इस तुलना का समर्थन भारत के लिए अस्वीकार्य था. भारत को अब एससीओ जैसे बहुपक्षीय मंचों के प्रति अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. यदि भारत इन मंचों से अलग होने का फैसला करता है, तो वह पाकिस्तान और चीन जैसे विरोधी देशों को और अधिक प्रभावी भूमिका निभाने का अवसर देगा. इसके बजाय भारत को इन मंचों पर डटे रहकर अपने पक्ष को मजबूती से रखना चाहिए और उन देशों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, जो एससीओ के मूल उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्ध हैं. इस महीने होने वाली विदेश मंत्रियों की बैठक और वर्ष के अंत में प्रस्तावित एससीओ शिखर सम्मेलन भारत के लिए इन मंचों की विश्वसनीयता को परखने और अपनी कूटनीतिक क्षमता दिखाने का एक और अवसर होगा.


इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में भारत-चीन राजनयिक संबंधों की 75वीं वर्षगांठ भी मनायी गयी है. हालांकि दोनों देशों ने संबंधों को स्थिर करने की इच्छा जतायी है, लेकिन संरचनात्मक मुद्दे अब भी संबंधों में बाधक बने हुए हैं. वर्ष 2020 के गलवान संघर्ष के बाद सीमा विवाद अब भी अविश्वास का एक बड़ा कारण बना हुआ है. कुछ क्षेत्रों में सैनिकों की वापसी हुई है, लेकिन पूर्ण रूप से तनाव मुक्ति और विघटन अभी बाकी है. तिब्बत पर चीन की आक्रामक नीति, दलाई लामा के उत्तराधिकारी को लेकर उसकी रणनीति और ऐतिहासिक सीमाओं पर अडिग रुख से स्पष्ट है कि तनाव भविष्य में भी बना रहेगा. साथ ही, अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती निकटता विश्वास की खाई को और गहरा कर रही है. वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल द्वारा चीन की अनुचित व्यापार नीतियों की आलोचना और अमेरिका के साथ व्यापार अवसरों की सराहना इसी बदलते समीकरण का हिस्सा है. इसके बावजूद भारत और चीन के बीच कुछ साझा हित हैं, जैसे वैश्विक शासन संस्थाओं में सुधार और जलवायु परिवर्तन व एआइ जैसे मुद्दों पर वैश्विक दक्षिण की आवाज उठाना. लेकिन एशिया में वर्चस्व की चीन की महत्वाकांक्षा और एकतरफा शक्ति प्रदर्शन की उसकी नीति भारत की बहुध्रुवीय और नियम आधारित व्यवस्था की सोच से मेल नहीं खाती.

एससीओ में हालिया घटनाक्रम केवल एक कूटनीतिक घटना नहीं, बल्कि एशिया में बदलते शक्ति संतुलन और प्रतिस्पर्धी रणनीतिक हितों का प्रतिबिंब है. यह न केवल चीन-पाकिस्तान गठजोड़ की भूमिका को रेखांकित करता है, यह भी दर्शाता है कि इस बहुपक्षीय मंच पर कितनी जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. जाहिर है, भारत को टकराव और सहयोग के बीच संतुलन बनाकर चलना होगा, अपने हितों की रक्षा करनी होगी और किसी भी तरह के दबाव या भ्रामक कूटनीति से सावधान रहना होगा. एससीओ इस बार भले ही विफल रहा हो, पर यह प्रभाव और कथानकों की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण मंच बना रहेगा, जिसे भारत नजरअंदाज नहीं कर सकता.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

संबंधित खबर और खबरें
होम E-Paper News Snaps News reels
Exit mobile version