दाई बनी मेड : पहचान बदली, हालात नहीं

Insta Maid service : दफ्तरों और कारखानों में कामगारों के लिए आठ घंटे काम करने प्रावधान होता है, लेकिन घरेलू दाइयों के लिए काम के घंटे निर्धारित नहीं होते हैं, साहब और मेम साहब की दिनचर्या के अनुसार उन्हें चलना है. जब तक कि घर के लोग सो नहीं जाते, इनकी ड्यूटी चालू रहती है.

By Ashutosh Chaturvedi | April 21, 2025 6:02 AM
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Insta Maid service : होम सर्विस उपलब्ध करवाने वाली एक कंपनी ने अपनी नयी सेवा की घोषणा की है, जिसमें वह 15 मिनट के भीतर एक ‘मेड’ यानी कामवाली दाई उपलब्ध करायेगी. कंपनी ने इस सेवा का नाम ‘इंस्टा मेड’ रखा है. ये इंस्टा मेड्स घर पर साफ सफाई और खाना बनाने जैसी सेवाएं देंगी. यह सेवा फिलहाल मुंबई में ही लागू की गयी है. कंपनी ने कहा है कि 49 रुपये प्रति घंटा का ऑफर एक सीमित समय के लिए है. जैसे ही इस सेवा की मांग बढ़ेगी, यह सेवा महंगी होगी. कंपनी ने कहा है कि इस सेवा से जुड़ने वाली दाइयों के लिए मुफ्त में स्वास्थ्य बीमा, जीवन और दुर्घटना बीमा भी दिया जायेगा. साथ ही वह कामगारों की एक निश्चित आय और ग्राहकों को सेवा दोनों के प्रति प्रतिबद्ध है. जब से कंपनी ने इस सेवा की घोषणा की है, इसे लेकर व्यापक बहस छिड़ गयी है. मुझे लगता है कि छिड़नी भी चाहिए.

तत्काल सामान पहुंचाने की श्रेणी में दाइयों को भी रखे जाने पर व्यापक विमर्श की निश्चित रूप से जरूरत है. वह बड़ी संख्या में घरों में काम करती रहती हैं. उनकी ओर न तो समाज का और न ही सरकारों का ध्यान जाता है. इन घरेलू सहायकों के बिना उच्च और मध्यम वर्ग के लोग जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. उनके बिना जीवन कितना कठिन हो सकता है, इस विषय में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं है. इनका भरपूर शोषण किया जाता है.

दफ्तरों और कारखानों में कामगारों के लिए आठ घंटे काम करने प्रावधान होता है, लेकिन घरेलू दाइयों के लिए काम के घंटे निर्धारित नहीं होते हैं, साहब और मेम साहब की दिनचर्या के अनुसार उन्हें चलना है. जब तक कि घर के लोग सो नहीं जाते, इनकी ड्यूटी चालू रहती है. दाइयों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के काम के घंटे, न्यूनतम वेतन कुछ निर्धारित नहीं हैं. उनकी कोई छुट्टियां तय नहीं हैं. कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं है. जिस दिन दाई बीमार पड़ने की वजह से भी छुट्टी करे, तो उस दिन उसकी तनख्वाह तक कट जाने का खतरा रहता है. अपने आसपास देखें, तो सभी जगह यही कहानी है. उनके प्रति निष्ठुरता की सैकड़ों कहानियां मीडिया में आती रहती हैं, लेकिन हमारा समाज उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखा पा रहा है.


वैसे पूरा समाज जाति और धर्म में विभाजित है, लेकिन दाइयों की जाति और धर्म पर ध्यान नहीं दिया जाता. उनकी जाति गौण हो गयी है और उनकी एक ही जाति और पहचान है- कामवाली दाई. बिहार और झारखंड से रोजगार की तलाश में हजारों लोग हर साल बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं. इनमें दिल्ली एनसीआर जाने वाले लोगों की संख्या बहुत बड़ी हैं. ऐसी अनेक घटनाएं सामने आयी हैं, जिनमें झारखंड की बेटियों को बहला-फुसला कर ले जाया गया. झारखंड के सुदूर इलाकों से ज्यादातर लड़कियां दिल्ली से सटे गुड़गांव ले जायी जाती हैं. यहां बड़े मल्टीनेशनल अथवा बड़ी आइटी कंपनियों में काम करने वाले साहब रहते हैं. मेम साब भी अक्सर काम करती हैं, उन्हें गृह कार्य के लिए दाइयों की जरूरत होती है. इस इलाके में तमाम प्लेसमेंट एजेंसियां हैं, जो उन्हें ये उपलब्ध कराती हैं. इनके एजेंट देशभर में सक्रिय हैं, जो गरीब माता-पिता को प्रलोभन देकर लड़कियों को प्लेसमेंट एजेंसियों तक पहुंचाते हैं. इनमें से कई लड़कियां शारीरिक शोषण का भी शिकार हुई हैं. अमानवीय व्यवहार की घटनाएं तो आम हैं. अभी तक इन्हें कामगारों की श्रेणी में नहीं रखा गया है, जिसके कारण उनके अधिकारों की अनदेखी होती है. सबसे बड़ी समस्या इनका असमान वेतन है. इन्हें अपने काम के अनुरूप वेतन नहीं मिलता है. कानूनन 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से घरेलू कामकाज नहीं कराया जा सकता है, लेकिन इस देश में ऐसे कानूनों की परवाह कौन करता है.


यह बात हर दौर में साबित हुई कि इस देश की अर्थव्यवस्था का पहिया कंप्यूटर से नहीं, बल्कि मेहनतकश कामगारों से चलता है. यह भी स्पष्ट हो गया है कि बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम चलने वाला नहीं है. देश का कोई कोना ऐसा नहीं है, जहां इन राज्यों के लोग नहीं पाये जाते हैं. ये मेहनतकश हैं और गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों की जो आभा और चमक दमक नजर आती है, उसमें प्रवासी मजदूरों का भारी योगदान है. विकसित माने जाने वाले राज्यों की यह बात समझ आ जानी चाहिए कि इन राज्यों की विकास की कहानी बिना बिहार और झारखंड के मजदूरों के योगदान के नहीं लिखी जा सकती है. कॉरपोरेट जगत को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि वे अपने कल-कारखाने बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में लगाएं, जहां हुनरमंद कामगारों की भरमार है. ये प्रवासी मजदूर मेहनतकश हैं और पूरी ताकत से खटते हैं.


अगर गौर करें, तो महानगरों में छुआछूत का नया स्वरूप सामने आया है. गांव में दलितों-वंचितों को गांव के कुएं से पानी नहीं भरने नहीं दिया जाता है. महानगरों में तो कुएं हैं नहीं, केवल उसका स्वरूप बदल गया है. हमारे आसपास में ऐसे कितने अपार्टमेंट हैं, जिनमें दाइयों के लिफ्ट के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है या फिर उनके लिए अलग से एक पुरानी लिफ्ट निर्धारित है कि वे केवल उसका इस्तेमाल करेंगी. वे घर के टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं. रहती भले ही वे घर में हैं, लेकिन टॉयलेट के इस्तेमाल के लिए सोसाइटी में ग्राउंड फ्लोर पर बने टॉयलेट का ही इस्तेमाल कर सकती हैं. दाइयों के शोषण की दास्तां केवल भारत तक सीमित नहीं हैं. जैसे यह भारतीयों के रगों में बस गयी है.

ऐसे भी मामले सामने आये हैं कि भारतीय विदेश सेवा जैसे संभ्रांत तबके के अधिकारी विदेशों में तैनाती के दौरान भारत से दाइयों को ले गये हैं और वहां उनके साथ शोषण और दुर्व्यवहार किया है. जब उस देश ने हस्तक्षेप किया, तो वह कूटनीतिक विवाद का मामला बन गया है. यह सच है कि यूपी, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में हम अभी बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर पाये हैं. अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद ये सभी राज्य प्रति व्यक्ति आय के मामले में अब भी पिछड़े हुए हैं. हमें इन राज्यों में ही शिक्षा और रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध कराने होंगे, ताकि लोगों को बाहर जाने की जरूरत ही न पड़े. यह सही है कि देश में धीरे-धीरे ही सही, गरीबी घट रही है और विकास के अवसर बढ़े हैं, लेकिन आजादी के 77 साल बाद भी समाज में भारी असमानताएं मौजूद हैं.

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