Israel-Iran-War : इस्राइल और ईरान के बीच चल रहा युद्ध खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुका है. इस्राइल द्वारा तेहरान में परमाणु सुविधाओं तथा सैन्य ठिकानों पर किये गये हवाई हमलों ने ईरान को भारी नुकसान पहुंचाया है. इस्राइली हमलों में कुछ उच्च स्तरीय ईरानी सैन्य अधिकारियों और परमाणु वैज्ञानिकों की भी मौत हुई है. इस्राइल का दावा है कि उसने ईरान के खुफिया प्रमुख और शीर्ष जनरलों को मार डाला है.
दूसरी तरफ, ईरान ने जवाबी कार्रवाई में इस्राइल के तेल अवीव, हाइफा और बेन गुरियन हवाई अड्डे पर मिसाइल और ड्रोन हमले किये. इस बीच अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कनाडा में आयोजित जी-7 की बैठक छोड़कर वाशिंगटन लौट गये हैं. ईरान की धर्मशासित सरकार के लिए अस्तित्व का खतरा है और वह पूरी ताकत से जवाबी कार्रवाई कर रही है. पश्चिम एशिया के एक नये युद्ध की चपेट में आने का असर पूरी दुनिया पर पड़ना तय है. इस संघर्ष के रूस-यूक्रेन युद्ध से कहीं अधिक खतरनाक होने की आशंका है, क्योंकि यह लंबे समय से युद्ध की तैयारी कर रहे दो शक्तिशाली देशों के बीच का संघर्ष है.
युद्ध की जटिलता इसलिए बढ़ जाती है कि इसमें वैचारिक, भू-राजनीतिक और धार्मिक आयाम हैं. दोनों देश एक-दूसरे को अस्तित्व का खतरा मानते हैं और इसलिए अपने सभी संसाधनों के साथ उच्च जोखिम उठाने को तैयार हैं. अमेरिका के नेतृत्व वाला पश्चिमी गुट इस्राइल को अकेला नहीं छोड़ेगा, भले ही इस्राइल इस युद्ध के लिए स्पष्ट रूप से जिम्मेदार हो. पश्चिम एशिया में अमेरिकी शक्ति काफी हद तक इस्राइल के क्षेत्रीय प्रभुत्व पर निर्भर करती है.
बहरहाल, इस समय इस्राइल ने जो जोखिम भरा कदम उठाया, उसके कई कारण हैं. पहला कारण यह कि संयुक्त राष्ट्र की निगरानी संस्था आइएइए (अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी) ने कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट में संकेत दिया था कि ईरान यूरेनियम को उच्च स्तर तक समृद्ध कर परमाणु बम बनाने के करीब है. इस्राइल किसी भी कीमत पर ईरान को परमाणु बम बनाने से रोकने के लिए दृढ़ संकल्पित था. परमाणु क्षमता के साथ ईरान अभेद्य हो जाता और पश्चिम एशिया में उसका रणनीतिक असर कई गुना बढ़ जाता. इस्राइल और ईरान के बीच क्षेत्रीय वर्चस्व का शून्य योग खेल (जीरो-सम गेम) चल रहा है, जिसमें एक का बढ़ता प्रभाव दूसरे के लिए आनुपातिक हानि है.
दूसरा कारण यह कि ईरान पिछले पांच दशकों में सबसे कमजोर दिखाई देता है. वर्ष 1979 की इसलामी क्रांति के बाद ईरान कभी इतना कमजोर नहीं दिखा. पश्चिमी प्रतिबंधों ने इसकी अर्थव्यवस्था को पंगु बना दिया है और सेना के तकनीकी आधुनिकीकरण को रोक दिया है. ईरान की कमजोरी का सबसे महत्वपूर्ण कारण पड़ोस में उसके छद्म गुटों का कमजोर होना है. इस्राइल ने गाजा में हमास को अपंग, लेबनान में हिजबुल्लाह को कमजोर और यमन में हूती को बेअसर कर दिया है. बशर-अल-असद के जाने और सीरिया में सत्ता परिवर्तन ने ईरान के क्षेत्रीय प्रभाव को काफी कम कर दिया है. आज सऊदी अरब और कई सुन्नी देश ईरान का समर्थन करने के बजाय तटस्थता को प्राथमिकता देंगे. इन परिस्थितियों ने इस्राइल को ईरान पर आक्रमण करने का एक दुर्लभ अवसर प्रदान किया.
तीसरा कारण यह है कि मौजूदा भू-राजनीतिक स्थिति भी इस्राइल के अनुकूल है. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और उनके सलाहकार हमेशा ईरान के खिलाफ सख्त कार्रवाई की वकालत करते रहे हैं. राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान ही ओबामा प्रशासन के दौरान संपन्न हुए अमेरिकी-ईरान परमाणु समझौते से हटने का फैसला किया था. यदि वह परमाणु समझौता बच जाता, तो मौजूदा स्थिति पैदा नहीं होती. इसके अतिरिक्त, इस्राइल-गाजा संघर्ष पर राष्ट्रपति ट्रंप ने हमेशा इस्राइल का पक्ष लिया और सभी घातक हथियार मुहैया कराये.
यह विश्वास करना कठिन है कि इस्राइल ने अमेरिकी मंजूरी के बिना हमला किया. यह तथ्य है कि डोनाल्ड ट्रंप ईरान के साथ एक नये परमाणु समझौते पर बातचीत कर रहे थे, लेकिन समझौते की शर्तें ऐसी थीं कि यह सफल नहीं हो सकता था. जबकि इस्राइल ऐसे किसी सौदे का समर्थन नहीं करता, जिसके परिणामस्वरूप ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंध हट जाएं. इस समय ईरान पर हमला इस्राइल द्वारा जानबूझकर वार्ता को रोकने का प्रयास है.
तेल अवीव के दृष्टिकोण से थोड़ा चिढ़ने के बावजूद ट्रंप इस्राइल के साथ खड़े हैं. ट्रंप प्रशासन में यहूदी लॉबी इतनी मजबूत है कि ट्रंप उसे नजरअंदाज नहीं कर सकते. दूसरी ओर, ईरान रूस पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकता, जो यूक्रेन के साथ संघर्ष में उलझा हुआ है. रूस अपने स्वयं के भू-राजनीतिक त्रासदी से गुजर रहा है और ट्रंप को नाराज करने से वह बचना चाहेगा. रूस और चीन इस्राइली हमले की निंदा तो कर रहे हैं, पर इस संघर्ष में शामिल नहीं होंगे. इसलिए इस संघर्ष में इस्राइल का पलड़ा भारी है.
बेंजामिन नेतन्याहू ने ईरान में सत्ता परिवर्तन की संभावना की ओर भी संकेत दिया है, पर इसके लिए जमीनी सैन्य अभियान की जरूरत होगी, जिसे इस्राइल बिना अमेरिका की सीधी भागीदारी के अंजाम नहीं दे सकता. ईरानी शासन को बहुत बड़ा अपमान सहना पड़ा है और वह चुप नहीं बैठ सकता. पिछले दो दशकों में ईरान की विदेश नीति यूरेनियम संवर्धन के इर्द-गिर्द केंद्रित रही है. यूरेनियम संवर्धन के अपने अधिकार की रक्षा के लिए ईरानी लोगों को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा है. इसके शीर्ष सैन्य कमांडरों और परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या कर दी गयी है. इसलिए, ईरान पर उचित कार्रवाई करने के लिए बहुत अधिक दबाव है.
इस्राइल के पास हालांकि अपने शहरों की सुरक्षा के लिए एक विकसित मिसाइल रक्षा प्रणाली, आयरन डोम है. पर कोई भी प्रणाली कभी भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं होती. कोई नहीं जानता कि यह युद्ध किस ओर जा रहा है. पर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि यह विश्व युद्ध का रूप ले रहा है. यह एक क्षेत्रीय संघर्ष ही बना रहेगा. वैश्विक प्रणाली की दुखद वास्तविकता यह है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं युद्ध नियंत्रित करने की स्थिति में नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इस मुद्दे पर विभाजित है. एकमात्र महाशक्ति अमेरिका इस संघर्ष में तटस्थ नहीं है और उभरती शक्ति चीन की तटस्थता किसी काम की नहीं है. भारत भी ‘संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान’ के लिए अपना आह्वान दोहरायेगा, लेकिन वह संघर्ष को रोकने के लिए पक्षों पर दबाव बनाने की स्थिति में नहीं है. इस बीच दुनिया हिंसा, मुद्रास्फीति और अव्यवस्था का एक नया दौर देखेगी. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)