ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों से आ सकती है तबाही

Melting Glaciers : आज सबसे बड़ा खतरा ग्लेशियरों के पिघलने से बन रही झीलों से है, जो तबाही का सबब बन रही हैं. वर्ष 2013 में आयी केदारनाथ आपदा इसका जीता-जागता उदाहरण है. पूरा उत्तराखंड आपदा की दृष्टि से संवेदनशील है.

By ज्ञानेंद्र रावत | July 9, 2025 5:55 AM
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Melting Glaciers : ग्लेशियरों के पिघलने से होने वाली तबाही को लेकर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेस काफी चिंतित हैं. उनकी चिंता का सबब वैज्ञानिकों की वह चेतावनी है, जिसमें कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते सदी के अंत तक हिंदूकुश हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियर 75 फीसदी तक नष्ट हो जायेंगे. समुद्र तल से 5,000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित याला ग्लेशियर एक ऐसा हिमनद है जो विलुप्त होने की कगार पर है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि 21वीं सदी में बहुत से पर्वतीय ग्लेशियर खत्म हो सकते हैं.

गौरतलब है कि 2023 के आखिर में गुटरेस ने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट के आसपास के क्षेत्र का दौरा किया था और हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों के पिघलने से होने वाले खतरों को लेकर आगाह करते हुए कहा था- ‘दो प्रमुख कार्बन प्रदूषकों- भारत और चीन- के बीच इस हिमालयी क्षेत्र में स्थित ग्लेशियर पिछले दशक में 65 प्रतिशत से अधिक तेजी से पिघले हैं. आज जरूरत जीवाश्म ईंधन को समाप्त करने की है. ग्लेशियरों के पिघलने का अर्थ है तेजी से समुद्र का ऊपर उठना और विश्व समुदाय पर बढ़ता खतरा. इसलिए मैं दुनिया की छत से इस वैश्विक खतरे के प्रति आगाह कर रहा हूं.’


आज सबसे बड़ा खतरा ग्लेशियरों के पिघलने से बन रही झीलों से है, जो तबाही का सबब बन रही हैं. वर्ष 2013 में आयी केदारनाथ आपदा इसका जीता-जागता उदाहरण है. पूरा उत्तराखंड आपदा की दृष्टि से संवेदनशील है. यह हर वर्ष अतिवृष्टि, भूस्खलन, बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं से जूझता है. अब इस पर्वतीय राज्य में ग्लेशियर झीलें बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रही हैं. यहां छोटी-बड़ी 1,266 से ज्यादा झीलें हैं. जिनमें से 25 ग्लेशियर झीलें खतरनाक रूप से आकार ले रही हैं. जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे ग्लेशियर और उसके सामने के मोराइन में पिघली बर्फ का पानी नयी ग्लेशियर झीलों के निर्माण के साथ ही मौजूदा झीलों का लगातार विस्तार कर रहा है, जो बेहद खतरनाक है.

वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के शोध में खुलासा हुआ है कि मौजूदा समय में उत्तराखंड में इन 1,266 झीलों की निगरानी चुनौतीपूर्ण है. इनमें सबसे खतरनाक ए श्रेणी की छह झीलें (भिलंगना घाटी की मासर झील, धौलीगंगा घाटी की अनाम झील, मबांग ताल, अलकनंदा घाटी का वसुधारा ताल, अनाम झील और गौरीगंगा की अनाम झील), उससे कम खतरनाक बी श्रेणी की छह झीलें (अलकनंदा घाटी की तीन अनाम झीलें, कुटियांगटी, धौलीगंगा और गौरीगंगा घाटी की एक-एक झील) और सी श्रेणी की 13 झीलें (भागीरथी घाटी में पांच, अलकनंदा में चार, धौलीगंगा में तीन और कुटियांगटी में एक झील ) शामिल हैं.

वैज्ञानिकों द्वारा राज्य के ग्लेशियरों की निगरानी से खुलासा हुआ है कि तापमान बढ़ने के कारण यहां के ग्लेशियर न केवल तेजी से पिघल रहे हैं, बल्कि तेजी से पीछे भी हट रहे हैं. उनके द्वारा खाली की गयी जगह पर ग्लेशियरों द्वारा लाये गये मलबे के बांध या मोराइन के कारण झीलें आकार ले रही हैं. इनसे जोखिम लगातार बढ़ रहा है. यहां केदारताल, भिलंगना और गौरीगंगा ग्लेशियरों ने आपदा के लिहाज से खतरे की घंटी बजायी है. वैज्ञानिकों ने इन्हें संवेदनशील बताया है. नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी के अनुसार, गंगोत्री ग्लेशियर के साथ ही राज्य के पांच जिलों- पिथौरागढ़, चमोली, उत्तरकाशी, बागेश्वर और टिहरी की 13 ग्लेशियर झीलें भी जोखिम के लिहाज से चिह्नित हुई हैं.

अथॉरिटी इनमें से पांच झीलों को उच्च जोखिम की श्रेणी का मानती है. फिलहाल चमोली की वसुधारा झील से दो जगह से पानी रिस रहा है, जो खतरे का संकेत है. राज्य में 1,000 मीटर के दायरे की कुल 426 ग्लेशियर झीलें हैं, जो अलकनंदा, भागीरथी, धौलीगंगा, मंदाकिनी, गौरीगंगा, कुटियांगटी, भिलंगना, टौंस, यमुना आदि घाटियों में फैली हैं. वैसे ग्लेशियर झीलों की अध्ययन रिपोर्ट के आधार पर इनकी निगरानी के लिए सरकार द्वारा एक मजबूत तंत्र विकसित किये जाने की बात की जा रही है. इसमें उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के साथ-साथ कई संस्थानों के विशेषज्ञ शामिल होंगे. इससे आपदा जोखिम न्यूनीकरण में मदद मिलेगी.


हम दुनिया के बहुत से ग्लेशियर खोते चले जा रहे हैं. हिमालयी क्षेत्र की बात करें, तो 2000 से 2020 के दौरान हिमालयी क्षेत्र में अधिकतर ग्लेशियर अलग-अलग दर पर पिघलते रहे हैं. इससे इस अंचल में न केवल हिमालयी नदी प्रणाली का प्रवाह गंभीर रूप से प्रभावित होगा, ग्लेशियर झीलों के फटने की घटनाएं, हिमस्खलन और भूस्खलन जैसी आपदाएं भी आयेंगी. इसे नकारा नहीं जा सकता कि ग्लेशियरों के पिघलने से झील में पानी बढ़ेगा. ऐसी स्थिति आने पर पानी झील के किनारों को तोड़कर बाहर निकल आयेगा. उस दशा में पानी सैलाब की शक्ल में तेजी से बहेगा और आसपास के गांव-कस्बे खतरे में पड़ जायेंगे. यह ठीक उसी तरह की त्रासदी हो सकती है जैसी 2013 में केदारनाथ में आयी थी. इसलिए इस मुद्दे पर प्राथमिकता के आधार पर तत्काल कदम उठाने की जरूरत है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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