आतंकवाद-विरोधी कमेटी में पाकिस्तान!

Pakistan in United Nations : संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आधा दर्जन आतंकवाद-रोधी समितियां हैं और सुरक्षा परिषद के सदस्य बारी-बारी से इन समितियों की अध्यक्षता करते हैं. जब तक पाकिस्तान सुरक्षा परिषद में है, तब तक इस तरह के अवसर उसे मिलते ही रहेंगे.

By अनिल त्रिगुणायत | June 13, 2025 5:50 AM
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Pakistan in United Nations : दो वर्षों के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बने पाकिस्तान को इसकी दो समितियों में जिस तरह जगह मिली है, वह हैरान ही ज्यादा करती है. पाकिस्तान को यूएनएससी की तालिबान प्रतिबंध समिति (1988) का अध्यक्ष और आतंकवाद-रोधी समिति (1373) का उपाध्यक्ष चुना गया है. यह अपने आप में बेहद हास्यास्पद और चिंताजनक भी है कि जो देश पिछले कई दशकों से आतंकवाद का प्रायोजक है, उसे आतंकवाद-विरोधी दो शीर्ष वैश्विक कमेटी में जगह मिली है.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आधा दर्जन आतंकवाद-रोधी समितियां हैं और सुरक्षा परिषद के सदस्य बारी-बारी से इन समितियों की अध्यक्षता करते हैं. जब तक पाकिस्तान सुरक्षा परिषद में है, तब तक इस तरह के अवसर उसे मिलते ही रहेंगे. फिर यह भी देखना चाहिए कि पाकिस्तान आतंकवाद-विरोधी चार समितियों की अध्यक्षता चाहता था, लेकिन सदस्य देशों के विरोध के कारण उसे केवल दो समितियों में ही जगह मिली. चाहकर भी उसे 1267 कमेटी की अध्यक्षता नहीं दी गयी है, जिसमें पाकिस्तान के आतंकियों पर फैसला होता है, क्योंकि सदस्य देश इसके विरोध में थे. यह भी जानना चाहिए कि सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य देश किसी भी समिति का नेतृत्व नहीं करना चाहते, क्योंकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि अध्यक्ष का कोई खास महत्व नहीं है. अध्यक्ष पद दरअसल अस्थायी सदस्यों को शेखी बखारने में मदद करता है, जैसा इस समय पाकिस्तान कर रहा है.


अलबत्ता यह घटनाक्रम उन तमाम देशों के लिए असहज करने वाला है, जो पाकिस्तान को आतंकवाद के प्रायोजक देश के रूप में जानते हैं. यह घटनाक्रम असहज करने वाला इसलिए भी है कि इसी दौरान अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक तथा एशियाई विकास बैंक ने पाकिस्तान को आर्थिक मदद दी है या मदद देने की बात कही है. पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कोई भी जिम्मेदारी देना सिर्फ कूटनीतिक संवेदनहीनता का उदाहरण नहीं है, बल्कि इस पूरे ढांचे की खामी को भी उजागर करता है. चाहे ओसामा बिन लादेन या हाफिज सईद जैसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित आतंकी सरगनाओं को शरण देना हो या फिर लश्कर और जैश जैसे आतंकवादी संगठनों को खुला समर्थन देना, पाकिस्तान ने लगातार खासकर भारत के विरुद्ध आतंकवाद को अपनी नीति बनाया है.

जाहिर है, पाकिस्तान को अहम जिम्मेदारी देने की यह टाइमिंग ठीक नहीं है. ऐसी नियुक्तियां संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की तरफ से हरी झंडी मिलने के बाद ही होती हैं, और हरी झंडी देने का अर्थ सीधे-सीधे यह स्वीकार कर लेना है कि पाकिस्तान का आतंकवाद से कोई संबंध नहीं है. चीन तो हमेशा ही आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान का बचाव करता है, लेकिन अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देश चाहते, तो अध्यक्षता का मामला कुछ दिनों के लिए टाल सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. अगर यह फैसला कुछ महीने पहले लिया गया होता, तब भी उस पर आपत्ति नहीं होती. लेकिन पहलगाम हमले के बाद भारत ने जब 33 देशों में पाक प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ कूटनीतिक अभियान चलाया, उसी दौरान पाकिस्तान को ये जिम्मेदारियां मिलना भारत के लिए असहज करने वाला है. इससे फिर यह स्पष्ट हुआ है कि बड़े देश पाकिस्तान को खुली छूट दे रहे हैं.


एक शीर्ष अमेरिकी सेनाधिकारी और केंद्रीय कमान (सेंटकॉम) के कमांडर जनरल माइकल कुरिल्ला ने कहा है कि आतंकवाद-विरोधी कार्यक्रम में पाकिस्तान एक बेहतरीन साझेदार है और आइएस-के गुट से निपटने में वह हमारा मददगार है. उस जनरल ने यह भी कहा कि अमेरिका को भारत और पाकिस्तान, दोनों के साथ अपने संबंध रखने होंगे. उस जनरल ने आइएसआइएस-के के आतंकी मोहम्मद शरीफुल्लाह उर्फ जफर को अमेरिका प्रत्यर्पित करने के लिए पाकिस्तान की तारीफ भी की. विगत मार्च में अमेरिकी अदालत में शरीफुल्लाह को अगस्त, 2021 में काबुल हवाई अड्डे पर आत्मघाती विस्फोट मामले में दोषी ठहराया था. उस विस्फोट में 13 अमेरिकी सैनिक मारे गये थे. पहले तो अमेरिकी जनरल की यह बात ही हास्यास्पद है कि पाकिस्तान आतंकवाद-विरोधी अभियान में शानदार साझेदार है. फिर इस समय यह कहकर अमेरिका आखिर जताना क्या चाह रहा है? शीर्ष अमेरिकी सेनाधिकारी ने पाकिस्तान की प्रशंसा में यह टिप्पणी तब की है, जब भारत पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान को वैश्विक मंच पर अलग-थलग करने के लिए राजनयिक अभियान तेज कर चुका है.


ट्रंप के नेतृत्व वाले अमेरिका और पाकिस्तान के बीच क्रिप्टोकरेंसी का जो समझौता हुआ है, वही इन दो देशों के बीच के संदिग्ध रिश्तों के बारे में बताने के लिए काफी है. देखने वाली बात यह है कि पाकिस्तान क्रिप्टो काउंसिल (पीसीसी) और अमेरिका के वर्ल्ड लिबर्टी फाइनेंशियल (डब्ल्यूएलएफ) के बीच यह समझौता विगत 26 अप्रैल को-यानी पहलगाम हमले के पांच दिन बाद हुआ. डब्ल्यूएलएफ कंपनी के एक हिस्से पर ट्रंप के परिवार का स्वामित्व है. पाकिस्तान द्वारा क्रिप्टोकरेंसी को बढ़ावा देना भारत के लिए चिंतित करने वाला है, क्योंकि इनका उपयोग पाकिस्तान आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद पहुंचाने में कर सकता है. चिंता की बात इसलिए भी है, क्योंकि क्रिप्टो जैसी डिजिटल करेंसी की वैश्विक करेंसी की निगरानी की अभी तक कोई व्यवस्था नहीं है. इन घटनाक्रमों से यह साफ है कि ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका और पाकिस्तान के बीच ऐसा रिश्ता बना है, जो पाकिस्तान के आतंकी चरित्र के बावजूद मजबूत बना रहने वाला है.

लेकिन इससे पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ भारत का अभियान हतोत्साहित नहीं होने वाला. सच्चाई यह है कि पाकिस्तान के खिलाफ शुरू किये गये हमारे कूटनीतिक अभियान को दुनिया भर में समर्थन मिला है. अमेरिका और सुरक्षा परिषद के दूसरे स्थायी सदस्य देशों का रवैया जो भी हो, हकीकत यह भी है कि ये देश आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई और उसकी प्रतिबद्धता को समझते हैं. भारत ने पाकिस्तान को सुरक्षा परिषद की दो समितियों में जगह देने पर ठीक वैसा ही विरोध दर्ज कराया है, जैसे उसने आइएमएफ द्वारा पाकिस्तान को वित्तीय मदद देने पर विरोध दर्ज कराया था. जाहिर है, ऐसे घटनाक्रमों के बाद आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई की भारतीय प्रतिबद्धता और दृढ़ होती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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