वर्षा जल संचयन और प्रबंधन ही निदान

जल के स्थानीय स्रोतों को विकसित करना ही जल संकट का असली समाधान है. इसके लिए समाज को जगाना होगा. जल के महत्व को समझाना होगा. जिस प्रकार हमारे पूर्वज जल की महत्ता को समझते थे और अपने समाज को प्रबोधित करते थे, उसी प्रकार इसे अभियान के तहत समाज पर लागू करना होगा.

By अशोक भगत | September 19, 2022 8:01 AM
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हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में बारिश का सबसे बड़ा स्रोत मानसून है. यदि यह अनियमित हो जाता है, तो पानी की कमी का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है. इस बार कुछ ऐसा ही हो रहा है. पूर्वी मानसून के कमजोर रहने के कारण झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल आदि प्रांतों में अपेक्षाकृत कम बारिश हो रही है. यह इलाका हमारे खाद्यान्न उत्पादन का महत्वपूर्ण क्षेत्र है.

कम बारिश का सीधा असर खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ेगा. जहां नहरों से सिंचाई की सुविधा है, वहां भी बारिश की कमी का असर पड़ेगा और खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा. झारखंड की राजधानी रांची के चारों ओर बड़े पैमाने पर हरी सब्जी की खेती होती है. पानी की कमी से सब्जी की खेती बुरी तरह प्रभावित हो रही है और हरी सब्जियां लगातार महंगी हो रही हैं.

मौसमी अनुमान में बताया गया था कि इस बार मानसून सामान्य होगा, लेकिन पूर्वी भारत में मानसून बहुत कमजोर पड़ गया. इस कारण बंगाल, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में बारिश बहुत कम हो रही है. बिहार और झारखंड में तो लोग सूखे की स्थिति का सामना कर रहे हैं. उत्तर और पश्चिम भारत में मजबूत पश्चिमी मानसून के कारण बारिश तो हो रही है, लेकिन यहां भी सामान्य से कम बारिश के कारण किसान प्रभावित हैं.

वैसे भी देश का दक्षिण और मध्य क्षेत्र सूखे की समस्या से दो-चार होता रहता है. अगर भारत का पूर्वी क्षेत्र भी सूखा प्रभावित हो गया, तो हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर होगा. मानसून की अनियमितता सामान्य बात है, लेकिन जब विज्ञान का विकास हो चुका है और हमारे पास पूर्वानुमान की बेहतर तकनीक है, तो हमें अपने प्रबंधन में भी सुधार करना चाहिए. दूसरी बात यह है कि पश्चिम से आयातित विकास की नयी शैली बेहद सतही है. जल प्रबंधन के मामले में ही हम इस शैली का उपयोग कर जल की समस्या से जूझने लगे हैं.

जिस देश में हजारों की संख्या में मीठे पानी के स्रोत हों, वहां पेयजल का व्यापार असहज कर देता है. अब तो गांव-गांव में पानी शुद्ध करने की मशीनें लग रही हैं. यदि मशीन नहीं हैं, तो लोग खरीद कर पानी पी रहे हैं. यह प्रबंधन हमें प्रकृति के द्वारा प्रदत्त जल से वंचित कर रहा है. प्रदूषण के नाम पर हमें न जाने कौन-सा पानी पिलाया जा रहा है. इसलिए हमें जल की कमी और उसके प्रबंधन पर तसल्ली से विचार करना होगा. दूसरी बात, हमें सूखे की स्थिति से निपटने की नयी प्रविधि विकसित करनी होगी.

फिलहाल जहां पानी है, वहां से लाने की बात हम करते हैं. कई स्थानों पर हम तकनीक के द्वारा पानी ला भी रहे हैं. उदाहरण के लिए, दिल्ली के लोगों ने यमुना नदी को प्रदूषित कर लिया और अब पीने के पानी के लिए गंगा के पानी पर निर्भर हैं. गंगा के पानी पर प्राकृतिक रूप से पहला अधिकार उसके किनारे बसे लोगों का है, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. पहाड़ के लोग पेयजल के लिए प्रतिदिन 5-10 किलोमीटर की यात्रा करते हैं, लेकिन दिल्ली के लोगों को गंगा नहर के माध्यम से बेहद सहजता से पानी दिया जा रहा है.

उसी प्रकार पंजाब के पानी को हरियाणा, राजस्थान आदि प्रांतों में पहुंचाया जा रहा है, जबकि खुद पंजाब में पानी की भारी कमी है. नदी जल के लिए पंजाब और हरियाणा के बीच तलवारें खिंची हुई हैं. नर्मदा का जल राजस्थान तक पहुंचाया जा रहा है. जल समस्या के समाधान के लिए सरकारों ने जो तकनीक विकसित की है, वह अवैज्ञानिक और अप्राकृतिक है.

जल के स्थानीय स्रोतों को विकसित करना ही जल संकट का असली समाधान है. इसके लिए समाज को जगाना होगा. जल के महत्व को समझाना होगा. जिस प्रकार हमारे पूर्वज जल की महत्ता को समझते थे और अपने समाज को प्रबोधित करते थे, उसी प्रकार इसे अभियान के तहत समाज पर लागू करना होगा. जहां नदी है, वहां नदी के रखरखाव की जिम्मेदारी समाज को सौंपी जाए और जहां नदी नहीं है, वहां जल संरक्षण के लिए अभियान चले.

वर्षा जल संग्रह कर हम उसका बेहतर उपयोग कर सकते हैं. इस जल को हम न केवल पीने के काम में ला सकते हैं, अपितु कृषि कार्य के लिए भी इसका उपयोग हो सकता है. इस दिशा में पहल होनी चाहिए. साथ ही, पूरे देश में वृक्षारोपण का महाअभियान चलाया जाना चाहिए. धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक स्तर पर इसका प्रचार-प्रसार होना चाहिए. पारंपरिक कृषि प्रणाली के सीमित विकल्प के तौर पर उपलब्ध मौसमी फसल चक्र मे परिवर्तन से सूखाग्रस्त क्षेत्र में होने वाले नुकसान की सीमित मात्रा में भरपाई ही संभव है.

मानसून पर निर्भरता और सुखाड़ जैसे हालात से निपटने के लिए जल संचयन और प्रबंधन को बेहतर बनाने के साथ-साथ जन सहभागिता बढ़ाने के लिए जन जागरण का मूल मंत्र ही कारगर विकल्प साबित हो सकेगा.

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