पानी बचाने के पारंपरिक तरीकों को अपनाना होगा

Save Water: एक तरफ बारिश के दिनों में पानी के कारण मचता हाहाकार है, दूसरी तरफ गर्मी में पानी की बूंद-बूंद को तरसते लोग हैं. पानी बचाने के पारंपरिक तरीकों से ही हम इन दो अतिरेकों के बीच संतुलन बना सकते हैं.

By क्षमा शर्मा | July 15, 2025 6:07 AM
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Save Water: कुछ दिन पहले इतनी गर्मी थी कि पूछिए मत. पहाड़, जहां लोग गर्मी से राहत पाने के लिए आते हैं, वे भी तप रहे थे और सब सोच रहे थे कि बारिश हो, तो इस गर्मी से मुक्ति मिले. लेकिन अब जब बारिश हो रही है, तो शहर-दर-शहर डूबते जा रहे हैं. एक ही दिन की बारिश में दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों का क्या हाल होता है, हम सब जानते हैं. सड़कें पानी में डूब जाती हैं. लंबे-लंबे जाम लगते हैं. बहुत-सी दुर्घटनाएं भी होती हैं. इन दिनों भी बारिश के कारण कहीं पुल गिर रहे हैं, कहीं मकान, तो कहीं कारें पानी में नावों की तरह तैर रही हैं. बहुत-सी नदियां अपने विकराल रूप में हैं, उफन रही हैं. लोग अपने घर-बार छोड़ने पर मजबूर हैं. जो ले जा सकते हैं, अपने मवेशियों को भी साथ ले जा रहे हैं. नदियों में बाढ़ का दुखद पहलू यह है कि कुछ ही दिनों में ये नदियां सूख जायेंगी. कल तक जो लोग पानी की अधिकता से परेशान हो रहे थे, वे बूंद-बूंद पानी को तरसेंगे. कई शहरों में पानी पहुंचाने के लिए टैंकरों की मदद लेनी पड़ेगी. कुछ साल पहले चेन्नई के बारे में खबर आयी थी कि वहां पानी की इतनी कमी हो गयी है कि जल्दी ही पानी खत्म हो जायेगा. पिछले दिनों अफगानिस्तान के काबुल से भी ऐसी खबर आयी थी कि वहां पानी बचा ही नहीं है.

पानी का अधिक इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन बचाने के बारे में नहीं सोचते

अपने देश में पानी को लेकर एक समस्या यह है कि नयी जीवनशैली में हम पानी का अधिक इस्तेमाल तो करते हैं, पर इसे बचाने के बारे में नहीं सोचते. क्यों नहीं सोचते? क्योंकि हमें लगता है, पानी तो अपरंपार है, भगवान की देन है. जबकि ऐसा है नहीं. दुनिया में पीने लायक पानी मात्र एक प्रतिशत है. जो है भी, वह बाढ़ के रूप में नदियों में बहते हुए समुद्र में मिल जाता है और उपयोग के लायक नहीं रहता. इस्राइल में समुद्री पानी को पीने लायक बनाया जाता है, पर यह बहुत महंगा पड़ता है. अपना देश तो तमाम तरह के संसाधनों से युक्त है. क्या नहीं है अपने यहां? पहाड़, नदियां, वनस्पतियां. पर हमें इन्हें ठीक तरह से बचाना नहीं आता. कहा तो यह जाता है कि जल है तो कल है. यानी अगर पानी नहीं, तो जीवन भी नहीं. दशकों से विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा. लेकिन शायद हमें इसका ध्यान नहीं. हम इस बारे में सोचते तक नहीं कि जिस दिन पीने लायक पानी नहीं होगा, उस दिन हमारा क्या होगा. एक तरफ बारिश के दिनों में पानी के कारण मचता हाहाकार है, दूसरी तरफ गर्मी में पानी की बूंद-बूंद को तरसते लोग हैं. न जाने कब से वर्षाजल के संचयन की बातें हो रही हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में इसका पालन बहुत कम होता देखने को मिलता है. जिन इलाकों में बाढ़ आती है, वहां बारिश से पहले ही अगर इस पानी को बचाने का इंतजाम कर लिया जाये, तो न बाढ़ की तबाही झेलनी पड़ेगी, न कोई पानी को ही तरसेगा. यह भी सच है कि दूषित पानी के कारण अपने यहां बड़ी संख्या में बच्चे तरह-तरह के रोगों का शिकार होते हैं और जान गंवाते हैं.

पारंपरिक तौर-तरीके से बचाएं पानी

ऐसा भी नहीं है कि अपने देश में पानी बचाने के पारंपरिक तौर-तरीके मौजूद नहीं हैं. बिल्कुल हैं और लोग पानी की कमी इन्हीं तौर-तरीकों से पूरी करते रहे हैं. मशहूर गांधीवादी चिंतक और लेखक स्वर्गीय अनुपम मिश्र ने इस बारे में दो बेहद महत्वपूर्ण किताबें लिखी थीं, ‘आज भी खरे हैं तालाब’ और ‘राजस्थान की रजत बूंदें’. पहली पुस्तक में अनुपम बताते हैं कि कैसे हमारे यहां हर गांव की जरूरत अपने यहां बनाये तालाबों से पूरी होती थी. इन्हें बनाने वाले कारीगर कहीं और से नहीं आते थे, बल्कि वे गांव के ही लोग होते थे. किसी-किसी जगह तो ऐसा था कि तीन गांवों के लिए बारह-बारह तालाब भी थे. अनुपम मिश्र यह भी बताते हैं कि इन तालाबों से गांव की पानी की हर तरह की जरूरतें पूरी होती थीं. इनकी पूरी देखभाल, इनकी साफ-सफाई- सब गांव के लोग ही बारी-बारी से किया करते थे. ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ में वह कहते हैं कि अपने देश में राजस्थान में सबसे कम बारिश होती है. लेकिन यहां के लोगों ने बारिश के जल की एक-एक बूंद को बचाना सीखा. घर के अंदर ही ऐसी व्यवस्था की गयी कि एक बूंद भी खराब न हो और भविष्य के लिए पानी की जरूरतें पूरी हो सकें. वह कहते हैं कि राजस्थान में बादल कम आते हैं, लेकिन उन्हें लोग इतना अधिक चाहते हैं कि बादलों के अनेक नाम रख रखे हैं.

पहाड़ों में भी पानी सहेजने के बहुत-से तरीके हैं

पहाड़ों में भी पानी सहेजने के बहुत-से तरीके हैं. अब कई युवा इन पारंपरिक तरीकों को नये सिरे से वापस ला रहे हैं. इसके फायदे भी मिल रहे हैं. दूधातोली गांव के एक मास्टर सच्चिदानंद ने तो पानी बचाने का अभियान ही चला दिया. इस योजना के लिए विश्व बैंक ने भारी-भरकम रकम देनी चाही, लेकिन उन्होंने मना कर दिया. अपने यहां नदियों को देवी माना जाता है. पर नदियों को सिर्फ देवी कहने से वे देवी नहीं बन जातीं. वे देवी इसीलिए हैं, क्योंकि हमारे पानी की जरूरतें पूरी करती हैं. वही पानी, जिसके बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती. लेकिन नदियां भी देखभाल मांगती हैं. परंतु हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नहीं है. पानी बचाने के पारंपरिक तरीकों को एक बार फिर से जगाने की जरूरत है. इनकी वापसी से हम पानी के बेहतर इस्तेमाल में सक्षम हो सकते हैं.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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