कर्नाटक और केरल में कांग्रेस की मुश्किलें, पढ़ें रशीद किदवई का लेख

Congress: कांग्रेस हाईकमान को राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की गलतियों से सबक लेकर उन्हें कर्नाटक में दोहराने से बचना चाहिए. ऐसे ही, केरल में उसे शशि थरूर पर स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए.

By ArbindKumar Mishra | July 18, 2025 6:04 AM
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Congress: हाल के वर्षों में कांग्रेस बार-बार यह साबित करती रही है कि उसने अपनी गलतियों और विफलताओं से कुछ भी नहीं सीखा. दक्षिण भारत के राज्य आज भी कांग्रेस की प्रतिष्ठा और राजनीतिक अस्तित्व को बचाये रखने में अहम भूमिका निभा रहे हैं. तेलंगाना के बाद कर्नाटक एकमात्र बड़ा राज्य है, जहां कांग्रेस सत्ता में है, जबकि सर्वेक्षणों से संकेत मिलते हैं कि केरल में भी मतदाता अगले चुनाव में उसे सत्ता सौंप सकते हैं. पर आश्चर्यजनक रूप से इन दो अनुकूल राज्यों में भी पार्टी अंदरूनी उलझनों और राजनीतिक असमंजस से जूझ रही है.

कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद को लेकर कशमकश

कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में पार्टी को शानदार विजय मिलने के बावजूद वहां मुख्यमंत्री पद को लेकर शुरू से वैसी ही कशमकश रही, जैसी पहले छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में देखी गयी थी. साल 2018 में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने वापसी की थी. पर छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव, राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट तथा मध्य प्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच सियासी प्रतिद्वंद्विता खुलकर सामने आ गयी. मध्य प्रदेश में तो सिंधिया इतने नाराज हो गये कि भाजपा का दामन थाम लिया. नतीजा यह रहा कि तीनों राज्यों में कांग्रेस सत्ता गंवा बैठी. कर्नाटक में भी यही कहानी दोहरायी जा रही है. वहां कांग्रेस हाईकमान ने सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री के लिए चुना, जबकि डीके शिवकुमार भी मजबूत दावेदार थे. शिवकुमार के समर्थकों ने तब से प्रचार करना शुरू कर दिया कि सिद्धारमैया ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री बने हैं और बाद में शिवकुमार पद संभालेंगे. अब ढाई साल बीतने को हैं और सिद्धारमैया ने स्पष्ट कर दिया है कि वह पूरे पांच साल के लिए मुख्यमंत्री बने रहना चाहते हैं. जबकि डीके शिवकुमार भी अपनी महत्वाकांक्षा को खुलकर प्रकट कर रहे हैं.

सिद्धारमैया करते हैं सधी राजनीति

सिद्धारमैया घाघ राजनेता हैं और बेहद सधी राजनीति करते हैं. उनके मुकाबले में डीके शिवकुमार अपेक्षाकृत युवा हैं, जिनके पास कर्नाटक कांग्रेस प्रदेश कमेटी की कमान भी है. वह कई बार कांग्रेस के लिए संकटमोचक की भूमिका निभा चुके हैं और खुद को मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार के तौर पर पेश करते आये हैं. एक तीसरे कद्दावर नेता गृह मंत्री जी परमेश्वर भी हैं, जो पहले उपमुख्यमंत्री और कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष रह चुके हैं. अगर वह भी दौड़ में शामिल हों, तो अचरज नहीं.

खरगे को कर्नाटक का मुख्यमंत्री नहीं बनने का कसक

कर्नाटक में एक और दिलचस्प एंगल कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का भी है. वह कहने को भले ही ‘हाईकमान’ का एक हिस्सा हैं, पर कहीं न कहीं स्वयं भी मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए उत्सुक नजर आते हैं. छह दशक से अधिक समय से राजनीति में सक्रिय और अनेक बड़े व महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके और फिलहाल राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष खरगे के मन में एक कसक हमेशा रही है कि उन्हें कभी अपने गृह प्रदेश कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य नहीं मिल सका. कभी वह धरम सिंह से मात खा गये, तो कभी एसएम कृष्णा से. हाल ही में जब उन्होंने कहा कि कर्नाटक में मुख्यमंत्री का फैसला कांग्रेस हाईकमान करेगा, तो यही माना गया कि वह खुद भी इस दौड़ में हैं और अंतिम निर्णय गांधी परिवार पर छोड़ना चाहते हैं. इन तमाम अंदरूनी खींचतान के बावजूद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व कोई निर्णायक हस्तक्षेप नहीं कर पाया है. जबकि कांग्रेस हाईकमान को चाहिए कि वह राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की गलतियों से सबक ले और उन्हें कर्नाटक में दोहराने से बचे. राहुल गांधी के साथ समस्या यह है कि वह संकटों की पहचान तो करते हैं, पर समाधान नहीं सुझाते. हाल ही में उन्होंने कहा कि गुजरात कांग्रेस में भाजपा के कई स्लीपर सेल सक्रिय हैं, जिससे पार्टी कमजोर हो रही है. पर उन्होंने यह नहीं बताया कि इनसे निपटने के लिए क्या किया जायेगा. इससे उनके नेतृत्व पर सवाल खड़ा हो जाता है.

थरूर को लेकर कांग्रेस हाईकमान पसोपेश में

दुविधा की ऐसी ही स्थिति केरल को लेकर भी पैदा हो रही है, जहां विधानसभा चुनाव में एक साल से भी कम समय बचा है. कुछ सर्वेक्षणों में कांग्रेसनीत यूडीएफ की सत्ता में वापसी की संभावनाएं जतायी जा रही है. इन सर्वेक्षणों में शशि थरूर सबसे लोकप्रिय नेता के तौर पर उभर रहे हैं और मुख्यमंत्री पद के लिए अच्छा चेहरा हो सकते हैं. पर थरूर को लेकर पार्टी हाईकमान पसोपेश में है. कांग्रेस के साथ एक दिक्कत यह भी है कि उसके नेताओं के बीच बयानबाजियां तो खूब होती हैं, पर पारस्परिक संवाद नहीं होते. जबकि संवाद राजनीतिक दल की कामयाबी के लिए महत्वपूर्ण होते हैं. केरल में तो कांग्रेस यूडीएफ का एक प्रमुख घटक है. उसे यूडीएफ के अपने सहयोगी दलों, जैसे आइयूएमएल, केरल कांग्रेस, आरएसपी, सीएमपी और केडीपी के नेताओं से भी बात कर जानना चाहिए कि शशि थरूर को लेकर उनका क्या रवैया है.

कांग्रेस आंखों पर पट्टी बांधकर चल रही है

चाहे कर्नाटक हो या केरल, ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस आंखों पर पट्टी बांधकर चल रही है. इससे बेशक समस्याएं दिखनी बंद हो जायेंगी, पर वे खत्म नहीं होंगी. फिर, कोई भी आंखों पर पट्‌टी बांधकर लंबी दूरी तक नहीं चल सकता, ठोकर लगना तय होता है. क्या कांग्रेस एक और ठोकर लगने का इंतजार कर रही है?

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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