पीएम मोदी की ट्रंप को खरी-खरी, पढ़ें अनिल त्रिगुणायत का खास लेख

Asim Munir : बेशक अतीत में पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्षों की तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों से मुलाकातें हुई हैं. जैसे, जनरल अयूब खान की जॉन एफ कैनेडी से, जियाउल हक की जिमी कार्टर व रोनाल्ड रीगन से और परवेज मुशर्रफ की जॉर्ज बुश से मुलाकातें हुई हैं.

By अनिल त्रिगुणायत | June 20, 2025 6:09 AM
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Asim Munir : अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पाक सेनाध्यक्ष फील्ड मार्शल आसिम मुनीर से लंच पर मुलाकात को भारत समेत दुनिया भर में आश्चर्य के साथ देखा गया, तो इसकी वजहें हैं. आश्चर्य इस पर है कि अमेरिका ने पहले आसिम मुनीर को आमंत्रित किये जाने से इनकार किया था. फिर ऐसा क्या हुआ कि राष्ट्रपति ट्रंप ने मुनीर को व्हाइट हाउस में लंच पर बुला लिया? ट्रंप पाक सेनाध्यक्ष से औपचारिक बातचीत भी तो कर सकते थे. लेकिन लंच पर बुलाकर ट्रंप ने इस मुलाकात को महत्वपूर्ण बना दिया. आश्चर्य इस कारण भी है कि अमेरिकी राष्ट्रपति आमतौर पर दूसरे देशों के सेनाध्यक्षों से नहीं मिलते.

बेशक अतीत में पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्षों की तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों से मुलाकातें हुई हैं. जैसे, जनरल अयूब खान की जॉन एफ कैनेडी से, जियाउल हक की जिमी कार्टर व रोनाल्ड रीगन से और परवेज मुशर्रफ की जॉर्ज बुश से मुलाकातें हुई हैं. लेकिन अयूब खान, जियाउल हक और परवेज मुशर्रफ तब सिर्फ सेनाध्यक्ष नहीं थे, बल्कि सत्ता उनके पास थी. जबकि आसिम मुनीर सेनाध्यक्ष हैं, जिन्हें हाल ही में फील्ड मार्शल बनाया गया है. आसिम मुनीर से व्हाइट हाउस में मुलाकात कर ट्रंप ने जता दिया है कि अमेरिका के लिए पाक सेनाध्यक्ष वहां के प्रधानमंत्री की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण है. यही वास्तविकता भी है. नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका और पाकिस्तान के सैन्य रिश्ते काफी मजबूत हैं तथा पाकिस्तान अमेरिका का गैर-नाटो सहयोगी भी है. हालांकि भारत-पाकिस्तान संघर्ष के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति का आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में आमंत्रित करना भारत के लिए असहज करने वाला है.


यह बात समझ लेनी चाहिए कि अमेरिका महाशक्ति देश है और वह अपना हित आगे रखता है. हमेशा से ही अमेरिका की यह नीति रही है. तिस पर डोनाल्ड ट्रंप ऐसे राष्ट्रपति हैं, जिन्हें दूसरे देशों या नेताओं की गरिमा या भावना का ख्याल न के बराबर है. वह व्हाइट हाउस में कैमरे के सामने सार्वजनिक तौर पर यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपमानित कर चुके हैं. इसलिए ट्रंप से सौजन्यता की आशा नहीं करनी चाहिए. सवाल यह है कि फिलहाल आसिम मुनीर से मुलाकात के पीछे अमेरिका का क्या हित हो सकता है. अपने पहले राष्ट्रपति काल में ट्रंप के लिए जो पाकिस्तान आतंकवादियों का अड्डा था, दूसरे राष्ट्रपति काल में वही पाकिस्तान अब ट्रंप के लिए इतना प्रिय कैसे बन गया?


दरअसल माना यह जा रहा है कि अमेरिका अब इस्राइल के साथ मिलकर ईरान पर हमला बोलने वाला है. ट्रंप ने हाल ही में जिस तरह ईरान से आत्मसमर्पण करने के लिए कहा, उसे इसी संदर्भ में देखना चाहिए. जहां तक पाकिस्तान की बात है, तो वह ईरान के साथ खड़ा है. पाकिस्तान ने पहले कहा भी था कि इस्राइल ने अगर ईरान पर परमाणु हमला किया, तो वह इस्राइल पर परमाणु बम गिरायेगा. ट्रंप पाकिस्तान को इसी से विरत कराना चाहते हैं. पाकिस्तान परमाणु शक्तिसंपन्न देश है, यह अमेरिका को भलीभांति मालूम है. यही नहीं, दुनिया को यह भी पता है कि पाकिस्तान अपने परमाणु बम को इसलामी बम कहता आया है. लिहाजा ईरान पर परमाणु हमला होता है, तो वह चुप नहीं बैठेगा. कहा यह जा रहा है कि ईरान पर हमला करने के लिए अमेरिका पाकिस्तान का एयरबेस इस्तेमाल करना चाहता है. लेकिन ऐसा होगा नहीं. पाकिस्तान ने बेशक पहले अमेरिका को अपना एयरबेस इस्तेमाल करने दिया था, लेकिन ईरान के खिलाफ वह अमेरिका की मदद कतई नहीं करने वाला. ऐसे में, ट्रंप की कोशिश पाकिस्तान को यह बताने में है कि वह ईरान के मामले से दूर रहे. अगर पाकिस्तान तब भी न माने, तो उसे लालच देकर इस युद्ध में तटस्थ बने रहने के लिए कहा जा सकता है. मुनीर से ट्रंप की मुलाकात को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.


लेकिन इस घटनाक्रम को भारतीय विदेश नीति और कूटनीति के लिए झटका माना जा रहा है. एक अर्थ में ऐसा है भी. यह मानने का कारण है कि ट्रंप भारत से बहुत खुश नहीं है. इसका तात्कालिक कारण भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम का मुद्दा रहा है. ट्रंप कम से कम चौदह बार कह चुके हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम उन्होंने कराया है. दुनिया के कई देश ट्रंप के कहे पर यकीन भी कर चुके हैं. जैसे, रूस का मानना है कि भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम ट्रंप के हस्तक्षेप से संभव हुआ. लेकिन भारत शुरू से ट्रंप के इस दावे को खारिज करता आया है. भारत का साफ कहना है कि संघर्षविराम में अमेरिका या ट्रंप की कई भूमिका नहीं थी. ट्रंप को भारत का यह रवैया नागवार लगा हो, तो आश्चर्य नहीं.


अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस दौरान ट्रंप के साथ टेलीफोन पर बातचीत के दौरान कई चीजें साफ कर दीं. एक तो यही कि ट्रंप ने जी-7 की बैठक से लौटते हुए मोदी से अमेरिका में रुकने का आग्रह किया था, जिसे प्रधानमंत्री ने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया. ट्रंप का सारा ध्यान फिलहाल इस्राइल-ईरान युद्ध पर है, ऐसे में, प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका न जाने के निर्णय को भारत के इन दोनों देशों के साथ संबंध, कूटनीतिक संतुलन, तटस्थता की नीति और सामरिक हित के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. भारत पश्चिम एशिया में अपनी तटस्थ छवि बनाये रखना चाहता है. इस्राइल के साथ अपने रक्षा संबंधों को मजबूती देते हुए भी भारत ने सुनिश्चित किया है कि इससे ईरान के साथ उसके रिश्ते प्रभावित न हों. ईरान के साथ भारत के ऐतिहासिक और सामरिक रिश्ते हैं.

भारत के लिए ईरान मध्य एशिया तक पहुंचने का प्रवेश द्वार तो है ही, चाबहार बंदरगाह परियोजना भी उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए इस युद्ध में भारत किसी एक के पक्ष में खड़े होने से बचना चाहता है. फिर चूंकि इस दौरान पाक सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर अमेरिका में थे, जिसने सुनियोजित भारत-विरोधी टिप्पणियों के जरिये पहलगाम हमले की पटकथा बुनी थी. इसलिए भी प्रधानमंत्री ने अमेरिका न जाने का सही निर्णय लिया. विदेश सचिव ने ट्रंप के साथ प्रधानमंत्री मोदी की बातचीत का हवाला देते हुए फिर जोर देकर कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी की मध्यस्थता न तो पहले स्वीकार्य थी, न अब स्वीकार्य है. प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप से फोन पर बातचीत में भी यह स्पष्ट किया कि संघर्षविराम अमेरिकी मध्यस्थता या किसी व्यापारिक समझौते के कारण नहीं, बल्कि पाकिस्तान के अनुरोध पर हुआ. ट्रंप के सामने प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी वैचारिक दृढ़ता और कूटनीतिक तटस्थता का जैसा प्रदर्शन किया, वह निश्चित रूप से उल्लेखनीय है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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