खतरनाक रोग बनता जा रहा अकेलापन

World Health Organisation report : विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया का हर छठा आदमी अकेलेपन से जूझ रहा है, और इससे हर घंटे सौ लोगों की जान जा रही है. अकेलेपन की समस्या किशोरों, युवाओं, कमजोर वर्ग और कम विकसित देशों में ज्यादा है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 10, 2025 5:40 AM
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संदीप आनंद, प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

World Health Organisation report : अकेला होना समस्या नहीं, परंतु अकेलापन डरावना है. एकांतवास तो बहुत सारी चीजों में सहायक होता है. एकांत मौलिकता का भी प्रतीक है, क्योंकि वैसी अवस्था में ही मौलिक सोच विकसित होती है. लेकिन अक्सर हम एकांत और अकेलेपन में विभेद नहीं कर पाते हैं. जब एकांत में डर लगे या भीड़ में होकर भी व्यक्ति कटा-कटा महसूस करे, तो समझें कि अकेलापन हावी हो रहा है. अकेलेपन से अभिप्राय है कि व्यक्ति की कई जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं. इसमें सबसे जरूरी सामाजिक जरूरतें हैं. अकेलापन समाज को तेजी से ग्रसित कर रहा है.


विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया का हर छठा आदमी अकेलेपन से जूझ रहा है, और इससे हर घंटे सौ लोगों की जान जा रही है. अकेलेपन की समस्या किशोरों, युवाओं, कमजोर वर्ग और कम विकसित देशों में ज्यादा है. किशोर जब अस्मिता के संकट से जूझता है, तो समाज उसे एक या कई पैमाना पेश करता है. पैमाने अगर कृत्रिम होते हैं, तो यह संकट और भीषण हो जाता है. आज की आभासी सामाजिक दुनिया में समाज का आभास तो रहता है, पर समाज उस किशोर के साथ नहीं होता. हजारों आभासी दोस्त तो होते हैं, पर कोई साथ नहीं होता. आज सभी को नंबर एक पर रहना है. आभासी सामाजिक दुनिया इस होड़ को हर तरह से समर्थन देती है. सामाजिक दुराव इसका प्राकृतिक परिणाम है. यह सामाजिक विघटन की ओर गिरावट है, जिसमें अकेलापन अवश्यंभावी है. यह चिंता विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में भी प्रदर्शित होती है.


किशोरावस्था या युवावस्था के साथ-साथ अगर वह महिला है, तो अन्य जटिलताएं पैदा हो जाती हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है कि समाज की मूल सोच अब भी पुरुष प्रधान है. पुरुष अपने साथ नारियों को वही काम करते देख रहा है, जो सदियों से वह अकेले कर रहा था. वह यह भी पा रहा है कि नारी उस काम को पुरुष से बेहतर कर रही है. इससे पुरुष के अचेतन मन पर चोट पहुंच रही है. ऐसे में, पुरुष के अहम से प्रतिक्रियाएं हो रही है. इन कारणों से किशोर-किशोरियों के संबंध भी प्रभावित हो रहे हैं. उनमें दूरी आ रही है. उनके बीच कही या अनकही हिंसा हो रही है. एक स्वस्थ समाज के लिए जरूरी है कि नारी और पुरुष में अच्छे संबंध हों. अकेलेपन की समस्या से उबरने के लिए जरूरी है कि नारी एवं पुरुष विश्वास के स्तर पर जुड़ें. उन्हें एक-दूसरे से दोहन या शोषण का डर न हो.

सामाजिक विघटन वर्ग संघर्षों से सदा प्रभावित होता आया है. वर्ग अनेक प्रकार से परिभाषित होते हैं. लिंग के आधार पर, इसके अलावा ये धर्म, जाति, उम्र, पूंजी, कार्य, विकास के स्तर, भाषा, समस्याओं के प्रकार, शिक्षा के स्तर आदि से भी प्रभावित होते हैं. वर्ग संघर्ष की दिशा सामाजिक विघटन या पुनर्गठन को प्रभावित करती है. हमें एक नये वर्ग को इन सूची में शामिल करने की जरूरत है, जिसे हम सभी भलीभांति जानते हैं, यानी तकनीक. मोबाइल फोन, इंटरनेट, एआइ इस वर्ग में शामिल हैं. एआइ अनेक प्रकार से सामाजिक विघटन में शामिल है, परंतु जिम्मेदार नहीं है. जिम्मेदारी हमें ही लेनी होगी.


अकेलापन कमजोर वर्ग को ज्यादा घेरता है, क्योंकि उसके साथ कोई खड़ा नहीं होना चाहता, चाहे गरीब हो, विकलांग हो या बुजुर्ग. कमजोर वर्ग के साथ खड़े होने को आज का व्यक्ति समय का दुरुपयोग मानता है. अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ऑपर्च्युनिटी कॉस्ट कहते हैं. इसका मतलब है कि जितनी देर कोई एक बुजुर्ग के साथ समय व्यतीत करेगा, उतनी देर में कुछ पैसे कमा लेगा, अपनी सांसारिक तरक्की के साधन जुटा लेगा या व्यक्तिगत खुशी प्राप्त कर लेगा. यह व्यक्तिवादी सोच पूंजीवादी समाज में अपने चरम पर होती है. आज दुनिया का कोई कोना नहीं है, जहां पूंजी और उपभोक्तावाद का प्रभाव नहीं दिखे. मैंने अपने चीन के दौरे में महसूस किया कि वहां का नागरिक भी उपभोग की उन्हीं चीजों को प्राप्त करने में परेशान है, जिनके लिए हम भरसक प्रयास कर रहे हैं. इसके विपरीत, हवाई द्वीप की यात्रा में मैंने देखा कि जापान के परिवार अपने अत्यंत बुजुर्ग माता-पिता को व्हील चेयर पर लेकर आये थे. जापान के समाज में पारिवारिक मूल्य काफी अच्छी तरह से विद्यमान हैं. मूल्यों का पुनर्जागरण और समन्वय ही सामाजिक जुड़ाव पैदा कर सकता है और अकेलेपन की समस्या से निदान पाने में हमारी मदद कर सकता है.


शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसे एकाकीपन कभी महसूस न हुआ हो. पर अगर यह हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हो जाये, तो इसके निदान की आवश्यकता होती है. यह निदान पारिवारिक विचार-विमर्श, दोस्तों के साथ बातचीत, अध्यापकों के मार्गदर्शन, सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग एवं मनोवैज्ञानिक सलाह से संभव है. लंबे समय तक रहने वाला एकाकीपन हमारे आत्म मूल्य को कमजोर कर हमारा मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक पतन कर सकता है. ऐसी अवस्था में खुद के खिलाफ या समाज के खिलाफ हिंसा संभव है. अतः हमें सचेत होने की जरूरत है. अकेलेपन की समस्या से हमारा ग्रामीण अंचल भी अछूता नहीं है. अतः आज जीवन मूल्यों के पुनर्जागरण के लिए वृहद स्तर पर अभियान की आवश्यकता है. इन विषयों को स्वास्थ्य नीति में भी समग्र रूप से शामिल किया जाना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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