नाटकों व रंगमंच को लेकर जिनसे भी बात होती है, वे यही कहते हैं कि चाहे एआइ आ जाए, ओटीटी आ जाए, या कुछ और आ जाए, परंतु अपनी आंखों के सामने जीते-जागते व्यक्ति को अभिनय करते हुए देखने की बात ही कुछ और है. वह आनंद किसी और माध्यम के जरिये प्राप्त ही नहीं हो सकता. यही कारण है कि नाटकों व रंगमंच का दौर कभी भी समाप्त नहीं होगा. तो यह मान लेना कि एआइ के आने से या ओटीटी के आने से रंगमंच कमजोर पड़ जायेगा, सरासर गलत है. यह ठीक उसी तरीके की बात है, जैसे टीवी आया तो लोगों को लगा की फिल्में बंद हो जायेंगी, या थिएटर बिल्कुल बंद हो जायेगा. हम सबने देखा कि इन माध्यमों के आने के बावजूद थिएटर की मौजूदगी बनी रही और आज भी यह अपनी जगह मौजूद है. इस बार थिएटर को लेकर युवा पीढ़ी में गजब का उत्साह देखने को मिला है. भारंगम में हमारी युवा पीढ़ी ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की है. इन सबको देखते हुए लगता है कि भारतीय रंगमंच की स्थिति बहुत अच्छी है. इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है.
हिंदी रंगमंच की यदि बात करें, तो यह भी बहुत अच्छी स्थिति में है. हिंदी की सबसे अच्छी बात यह है कि अधिकतर लोग इसी भाषा में एक-दूसरे से बातचीत करते हैं. अंग्रेजी के बाद यदि हम किसी दूसरी भाषा को कॉमन प्लेटफॉर्म बना सकते हैं, वह हिंदी ही है. इस भाषा को समझने और इसमें बातचीत करने वाले लोगों की संख्या काफी है. हाल के दिनों में हिंदी में संप्रेषण को लेकर लोग आगे आये हैं. तो इस भाषा में जो भी होगा, चाहे वह सिनेमा हो, थिएटर हो, या कुछ और, लोग उसे सराहेंगे ही, इसमें कोई दो राय नहीं है. एक बात आपको बताता हूं. ओडिशा में जब हिंदी फिल्में आती हैं, तो वे उड़िया फिल्मों की तुलना में कई बार तीन गुना अधिक पैसा कमा कर चली जाती हैं. कहने का अर्थ केवल इतना है कि ओडिशा के लोग भी हिंदी को काफी पसंद करते हैं, बावजूद इसके कि उनकी अपनी भाषा में लोकनाट्य के कई स्वरूप मौजूद हैं और वे उससे काफी गहराई से जुड़े हुए हैं. बिहार की बात करें, तो वहां रंगमंच की स्थिति बहुत अच्छी है. पटना तो साहित्य और रंगमंच का बहुत बड़ा केंद्र है. जबकि झारखंड की स्थिति ठीक-ठीक है. हमारे एनएसडी से निकले नाट्यकर्मी के साथ-साथ स्थानीय लोग भी वहां अच्छा काम कर रहे हैं.
इस बार के भारंगम का हमने अंतरराष्ट्रीय फलक पर विस्तार किया है. इससे भारतीय रंगमंच, नाटक, कलाकार, लेखक की पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अवश्य बनेगी. इसके लिए मैं केंद्र सरकार और संबंधित मंत्रालय का आभार प्रकट करता हूं कि हमने जब भारंगम को अंतरराष्ट्रीय फलक पर ले जाने का प्रस्ताव उनके सामने रखा, तो उन्होंने बढ़-चढ़कर हमारा समर्थन किया. जब हम इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले गये, तो दूसरे देशों के लोगों ने हमारे रंगमंच को, हमारे नाटकों को, हमारे साहित्य को काफी सराहा. हालांकि इस बार हम विदेशों में दो ही केंद्र- काठमांडू और कोलंबो- जा पाये. परंतु यदि साधन हो और हम अधिक से अधिक देश तक जाएं तो अच्छा रहेगा. एक समय जिस तरह से रेशम मार्ग (सिल्क रूट) के जरिये व्यापार होता था, उसी तरह का एक सृजनात्मक रेशम मार्ग भी बन सकता है. पर इसके लिए राजाश्रय भी चाहिए और लोकाश्रय भी.
अब बात रंगमंच के प्रासंगिकता की. नाट्यशास्त्र में लिखा गया है कि रंगमंच समाज का प्रतिफलन है. और विकास के सिद्धांत के अनुसार समाज अपना स्वरूप बदलता रहता है. तो समाज जो भी रंग बदलेगा, उसी का प्रतिबिंब आपको नाटकों में दिखाई देगा, वही रंगमंच पर आयेगा. हम जैसे लोग समाज के आईने में देखकर हमेशा कुछ न कुछ सीखने की कोशिश करते हैं. अपने अंदर की त्रुटि को सुधारने की कोशिश करते हैं. अपने अंदर की खूबी का जश्न मनाने की कोशिश करते हैं. इस प्रकार आप कह सकते हैं कि रंगमंच की प्रासंगिकता आज भी पूरी तरह बनी हुई है. एनएसडी की बात करें, तो हमने अभी प्रशिक्षण के छोटे-छोटे मॉड्यूल शुरू किये हैं और बहुत सारे राज्यों के साथ सहयोग करते हुए रंगकर्म को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे हैं. साथ ही अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भी भारतीय रंग परंपरा को लेकर वर्कशॉप करने की कोशिश में लगे हैं. अंत में, हम तो सदैव समग्र वसुधा को संस्कृति के माध्यम से जोड़ना चाहते थे और इसका प्रयास करते थे. आनंददायक है कि इस बार हम ऐसा कर पाये.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)