Table of Contents
- घोषणा से पहले बीबीसी ने देश में इमरजेंसी लगने की सूचना दी
- जेल के अंदर आंदोलनकारियों के साथ राजनीतिक बंदी जैसा व्यवहार
- जेल के बाहर दहशत का माहौल, सड़कों पर सन्नाटा
- इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के जो कारण बताए थे, वो गलत थे
- संजय गांधी तानाशाह थे, लेकिन इंदिरा गांधी को अपने इमेज की चिंता थी
50 Years of Emergency : इमरजेंसी भारतीय राजनीति का एक बड़ा पड़ाव है, जिस दौर में बड़ा बदलाव देश ने देखा. यह भी देखा कि भारतीय लोकतंत्र कितना मजबूत है, जिसके आगे कोई भी तानाशाह टिक नहीं सकता. भारतीय जनता जब गंभीरता से कोई आंदोलन करती है, तो उसका व्यापक प्रभाव पड़ता है. इमरजेंसी से पहले देश में बड़ा जनांदोलन चल रहा था, जो आजादी के बाद पूरे नहीं हो सके सपनों का प्रतिफल था. लोगों में निराशा थी, युवा आक्रोशित था. राजनीतिक पार्टियों से जनता का मोहभंग था. ऐसे में जब संपूर्ण क्रांति का बिगुल देश में बजा तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कुर्सी हिल गई.
घोषणा से पहले बीबीसी ने देश में इमरजेंसी लगने की सूचना दी
25 जून 1975 की रात को देश में इमरजेंसी लागू कर दिया गया था, लेकिन इसकी घोषणा सुबह 8 बजे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आॅल इंडिया रेडियो के जरिए राष्ट्र के नाम संबोधन करके किया था. हालांकि बीबीसी के सुबह के बुलेटिन में इस बारे में लोगों को जानकारी मिल गई थी. बिहार के बेतिया में आंदोलन कर रहे वरिष्ठ पत्रकार श्रीनिवास ने बताया कि मुझे सुबह मेरे पिताजी ने नींद से जगाकर यह सूचना दी. उन्होंने बताया कि जेपी, अटल बिहारी वाजपेयी और आंदोलन के अन्य नेता गिरफ्तार हो गए हैं. जेपी उस वक्त बहुत बड़े नेता थे और हम आंदोलनकारी, तो मैं आक्रोशित हो गया और बेतिया जाने के लिए तैयार हो गया. मेरी बात सुनकर पिताजी ने कहा कि जाओ मैं रोकूंगा नहीं, लेकिन ध्यान रखना इस बार पकड़े गए तो बहुत लंबा जेल में रहना पड़ेगा. मैंने जोश में उनसे कहा कि मैं पकड़ा नहीं जाऊंगा, मुझे भरोसा था कि पुलिस मुझे पकड़ नहीं पाएगी. मैं जब बेतिया पहुंचा तो माहौल देखकर मैं समझ गया कि खतरा बहुत है और मैं गिरफ्तार हो सकता है. मैं अपने मित्र के यहां पहुंचा जो आंदोलन में बहुत सक्रिय थे. मैं पीछे से उनके घर पहुंचा और आवाज लगाई, घर वालों ने बताया कि वो अपने मामा के यहां गए हैं. तब मैं उनके मामा के यहां पहुंचा और फिर कब्रिस्तान में मीटिंग हुई. हमने 28 जून को बेतिया बंद बुलाया और सड़क पर निकल आए. बिहार में आंदोलन को जनसमर्थन था इसलिए जब हम बंद कराने निकले तो हमें जनसमर्थन मिला. हमने एक स्कूल घुसकर कुछ बच्चों को भी अपने साथ ले लिया. लेकिन एक दुकान कांग्रेसी की थी, उसने विरोध किया. इससे नारेबाजी शुरू हुई कुछ प्रतिरोध भी हुआ और फिर पुलिस आ गई. मैं 28 जून को पकड़ा गया और जेल भेज दिया गया. इन सबके बीच एक काम मैंने किया और वह यह था कि मेरे घर में इंदिरा गांधी की तस्वीर लगी हुई थी, मैंने कई बार उस तस्वीर को हटाने की बात कही थी, लेकिन पिताजी ने यह कहकर मना कर दिया था कि तुम्हारी लड़ाई विचारधारा की है, लेकिन यह देश की प्रधानमंत्री हैं. 26 जून की सुबह को जब मैंने अपने भाई से यह कहा कि इंदिरा गांधी तस्वीर घर से हटा दो, पिताजी ने मना नहीं किया. मेरे भाई ने उस तस्वीर पर कुछ कलाकारी की और उसे बाहर एक बिजली के खंभे से टांग दिया था, हालांकि कुछ घंटे में ही वह तस्वीर वहां से गायब हो गई थी.
जेल के अंदर आंदोलनकारियों के साथ राजनीतिक बंदी जैसा व्यवहार
इमरजेंसी के दौरान 1 लाख से अधिक लोग जेल गए थे. इन कैदियों को मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार किया गया था. आंदोलनकारी और वरिष्ठ पत्रकार मधुकर बताते हैं कि बिहार में इमरजेंसी के दौरान जो गिरफ्तारियां हुईं, उनके साथ राजनीतिक बंदी जैसा ही व्यवहार होता था. बिहार पुलिस ने आंदोलनकारियों के साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं किया था. उनके लिए अलग से वार्ड बनाया हुआ था, जहां जेल के आकार के अनुसार बंदियों को रखा जाता था. कहीं 200 कहीं 150 लोग समूह में रहते थे. खाने-पीने का भी कोई कष्ट नहीं था, हां यह बात जरूर थी कि आप आंदोलन से अलग हो गए थे और बाहर का माहौल अलग था.
श्रीनिवास बताते हैं कि इमरजेंसी के दौरान गिरफ्तार होने वालों का अनुभव अलग-अलग तरह का है, लेकिन ज्यादातर लोग यही बताएंगे कि उनके साथ कोई अत्याचार नहीं हुआ. मैं भी बेतिया जेल, भागलपुर जेल में रहा और कोई अत्याचार हमारे साथ नहीं हुआ. हां, यह बात भी सही है कि कुछ लोगों को अत्याचार सहना पड़ा. जेपी और जॉर्ज फर्नांडिस के साथ कुछ गलत व्यवहार की बातें होती हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों के साथ राजनीतिक बंदी वाला व्यवहार ही था. बिहार पुलिस में आंदोलनकारियों के समर्थक काफी थे और उन्हें यह लगता था कि आंदोलनकारी अपराधी नहीं है, इसलिए हमारे साथ व्यवहार भी उसी तरह का हुआ.
जेल के बाहर दहशत का माहौल, सड़कों पर सन्नाटा
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का इमरजेंसी लगाने का फैसला बहुत ही डराने वाला था. इमरजेंसी की घोषणा से आम जनता दहशत में थी. मधुकर बताते हैं कि सड़कों पर सन्नाटा पसरा था, इसकी वजह यह थी कि लोगों को यह पता नहीं था कि आगे क्या होने वाला है. किसी को भी गिरफ्तार कर लिया जा रहा था, आंदोलनकारी या उसके समर्थक निशाने पर थे. इसकी वजह से आम जनता डर गई थी. आम जनता आंदोलनकारियों से डर रही थी, उन्हें यह लगता था कि अगर वे उनका समर्थन करेंगे या फिर उनके साथ दिखेंगे तो उन्हें भी पुलिस गिरफ्तार कर सकती है. हमारे मामा ने भी मुझे जमशेदपुर से अपने घर इसलिए भेज दिया था क्योंकि उन्हें गिरफ्तारी का डर था. दूसरा डर जनसंख्या नियंत्रण को लेकर किए जा रहे नसबंदी का भी था. मधुकर बताते हैं कि मैं अपने साथ हुई घटना के बारे में बताता हूं कि मैं एक 14 साल के बच्चे को लेकर अस्पताल गया था, उसका हाथ टूट गया था. कुछ लोगों ने मुझे घेर लिया और बच्चे की नसबंदी कराने की बात करने लगे, जबकि वह सिर्फ 14 साल का था. दरअसल सरकार की ओर से जो टारगेट दिया गया था उसे पूरा करने की हड़बड़ी में थे वो लोग.
श्रीनिवास बताते हैं कि जेल से बाहर आंदोलनकारियों पर अन्याय हो रहा था. उन्हें पर्चा बांटने नहीं दिया जाता था, अगर वे कोई प्रदर्शन करते थे तो उसे दबाया जाता था. रिश्तेदार और दोस्त बात करने के बचते थे. उन्हें यह भय था कि कहीं हमारी भी गिरफ्तारी ना हो जाए. हम भी इस बात को समझते थे इसलिए हमने किसी को भी जबरदस्ती परेशान नहीं किया, जो हमसे बचते थे हम उनसे दूर ही रहते थे.
इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के जो कारण बताए थे, वो गलत थे
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा के वक्त यह कहा था कि सेना और पुलिस को भड़काया जा रहा है. चुनी हुई सरकार को गिराने की साजिश की जा रही है, जबकि ये आरोप सही प्रतीत नहीं होते हैं. जयप्रकाश नारायण का जो आंदोलन चल रहा था वह संपूर्ण क्रांति के लिए था, उसमें सत्ता परिवर्तन की कोई बात नहीं थी. श्रीनिवास कहते हैं कि जेपी के आंदोलन से इंदिरा की सरकार को कोई खतरा नहीं था. आंदोलन के दौरान उनके इस्तीफे की बात भी नहीं हुई थी, इस्तीफे की मांग तब हुई, जब 12 जून को इंदिरा गांधी का चुनाव हाईकोर्ट ने अवैध घोषित कर दिया. इंदिरा गांधी का आरोप गलत था, देश में कोई अराजकता नहीं फैला रहा था और ना ही शासन के खिलाफ साजिश हो रही थी.
संजय गांधी तानाशाह थे, लेकिन इंदिरा गांधी को अपने इमेज की चिंता थी
संजय गांधी इमरजेंसी के वक्त किसी सरकारी पद पर नहीं थे, लेकिन उनका रुतबा एक तानाशाह का ही थी. ऐसा भी माना जाता है कि संजय गांधी ही वह शख्स थे जिन्होंने इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने के लिए बाध्य किया. इस बारे में बात करते हुए मधुकर बताते हैं कि दरअसल संजय गांधी तो तानाशाह थे ही, उनकी ही सलाह पर देश में इमरजेंसी लगाया गया था. लेकिन इंदिरा गांधी को इस बात की चिंता थी कि उनकी छवि खराब हो रही है, इसलिए को खुद को तानाशाह की इमेज से बाहर निकालना चाहती थीं. इसी वजह से उन्होंने चुनाव भी करवाया, लेकिन यहां उनसे गलती यह हुई कि उन्होंने जनता के मूड को सही तरीके से भांपा नहीं, जो उनकी हार का कारण बना.
श्रीनिवास बताते हैं कि इंदिरा गांधी को उनकी एजेंसियों ने जो रिपोर्ट दी उसमें यह बताया गया कि जनता बहुत खुश है, गाड़ियां समय पर चल रही हैं, सरकारी अधिकारी समय पर काम कर रहे हैं. लेकिन यह गलत रिपोर्टिंग थी. इंदिरा गांधी पर विदेशों से दबाव भी पड़ रहा था और वह यह बिलकुल भी नहीं चाहती थी कि कोई उन्हें तानाशाह कहे इसी वजह से उन्होंने चुनाव कराया, भले ही वो चुनाव हार गईं, लेकिन उन्होंने शांति से सत्ता छोड़ दी. इससे यह साबित होता है कि इंदिरा गांधी को अपनी छवि की चिंता थी, अन्यथा वह कुछ और रुख भी अख्तियार कर सकती थीं. उन्होंने हमेशा यही बयान दिया कि देश की प्रगति के लिए इमरजेंसी लगाया गया है.
Also Read : 50 Years of Emergency : इमरजेंसी की घोषणा से बना था डर का माहौल, शाम 5 बजे के बाद घरों में दुबक जाते थे लोग
50 Years of Emergency : क्या था तुर्कमान गेट कांड, जिसे बताया गया इमरजेंसी का काला अध्याय
विभिन्न विषयों पर एक्सप्लेनर पढ़ने के लिए क्लिक करें
जब शिबू सोरेन ने कहा था- हमें बस अलग राज्य चाहिए
संताल आदिवासी थे शिबू सोरेन, समाज मरांग बुरू को मानता है अपना सर्वोच्च देवता
शिबू सोरेन ने अलग राज्य से पहले कराया था स्वायत्तशासी परिषद का गठन और 2008 में परिसीमन को रुकवाया
Dictators and his Women 1 : हिटलर अपनी सौतेली भांजी के लिए था जुनूनी, ईवा ब्राउन से मौत से एक दिन पहले की शादी