Bihar Day : अतीत का गौरव वर्तमान में कैसे होगा सच?

Bihar Day : अकाल, राजनीतिक अस्थिरता, जातीय संघर्ष, नक्सल आंदोलन, सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के उबड़-खाबड़ रास्तों से सफर तय करते हुए बिहार की तस्वीर आज कई मोर्चों पर बदली हुई सी दिखती है. लेकिन आज भी राज्य की तरक्की में कई विकट समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं. जिसमें सबसे अहम बेरोजगारी और पलायन का दंश है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 22, 2025 6:09 AM
an image

Bihar Day : 22 मार्च, 1912 को बंगाल प्रेसिडेंसी से अलग होकर एक स्वतंत्र प्रांत बना बिहार आज 113 वर्ष का होने जा रहा है. ऐसे मौकों पर अक्सर हम बिहार के गौरवशाली अतीत का बखान कर गर्व से भर जाते हैं. आर्यभट्ट, चाणक्य, सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य, पाटलिपुत्र, नालंदा जैसे नाम लेते हुए हमारी पेशानी चमक उठती है. बेशक ये सिर्फ नाम नहीं, हमारी धरोहर हैं. लेकिन सिर्फ अतीत के गौरवगान से वर्तमान की चुनौतियां ओझल नहीं हो जातीं और वर्तमान की चुनौतियों से पार पाते हुए ही हम बेहतर भविष्य की दिशा तय कर सकते हैं.

बिहार की तस्वीर कई मोर्चों पर बदली हुई

अकाल, राजनीतिक अस्थिरता, जातीय संघर्ष, नक्सल आंदोलन, सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के उबड़-खाबड़ रास्तों से सफर तय करते हुए बिहार की तस्वीर आज कई मोर्चों पर बदली हुई सी दिखती है. लेकिन आज भी राज्य की तरक्की में कई विकट समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं. जिसमें सबसे अहम बेरोजगारी और पलायन का दंश है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी(CMIE) के आंकड़ों के अनुसार राज्य में बेरोजगारी की दर 17.6 प्रतिशत है, जो राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों के मुकाबले कम है. लेकिन इसकी कसर पलायन पूरी कर देती है, क्योंकि पलायन के आंकड़े भायवह हैं. केवल ई-श्रम पोर्टल के आंकड़ों के अनुसार अबतक 2.9 करोड़ लोग रोजी-रोटी की तलाश में बिहार से अन्य राज्यों की ओर पलायन कर चुके हैं. देश में पलायन करने वाली कुल आबादी का यह 13 प्रतिशत है और देश में पलायन के मामले में बिहार को शीर्ष पर रखता है. कोरोना काल के दौरान बिहार लौटे प्रवासी मजदूरों के लिए राज्य सरकार द्वारा स्थानीय स्तर पर रोजगार की व्यवस्था के प्रयास किये गए, लेकिन वे प्रयास अधूरे और नाकाम ही साबित हुए. पलायन एक चक्र है, जो एकबार शुरू होकर बढ़ता ही रहता है. बाहर बस गए लोग रोजगार और बेहतर जीवन के लिए अपने परिवारों और परिचितों को भी पलायन के लिए प्रेरित करते रहते हैं. जनसंख्या विस्फोट, खनिज संसाधन वाले हिस्से का झारखंड के रूप में अलग हो जाना, औद्यौगिक निवेश की वृद्धि में राजनीतिक इच्छाशक्ति का आभाव, उच्च तकनीकी शिक्षा में पिछड़ापन, रोजगार के सीमित अवसर और सरकारी मशीनरी का भ्रष्टाचार इसके प्रमुख कारकों में से हैं.

शिक्षा व्यवस्था रोजगार और पलायन के लिए जिम्मेदार

रोजगार और पलायन की कड़ी शिक्षा व्यवस्था से गहरे तौर पर जुड़ती है. बीते कुछ समय में स्कूली शिक्षा की तस्वीर सुधरी है. शिक्षकों की संख्या बढ़ी है और स्कूली व्यवस्था में सख्ती आई है. लेकिन विश्वविद्यालय शिक्षा की स्थिति बेहद त्रासद है. कई विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों और सहायक प्रोफेसरों के पद वर्षों से खाली पड़े हैं. सत्रों में देरी बिहार के विश्वविद्यालयों की पहचान है. परीक्षा परिणाम का समय पर घोषित न होना और मूल्यांकन में गड़बड़ी की समस्या भी आम है. विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों को दशकों से अपडेट नहीं किया गया है. जिस कारण यहां से निकले विद्यार्थी आगे की शिक्षा और बाजार की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं. बिहार में प्रतियोगी परीक्षाएं युवाओं के भविष्य का आधार हैं. लेकिन परीक्षा आयोजित करने वाले आयोगों के लचर प्रबंधन की वजह से अधिकांश परीक्षाएं पेपर लीक और धांधली की भेंट चढ़ जाती हैं. जिससे युवाओं का भविष्य अधर में लटकता रहता है.

बिहार में डाॅक्टरों की कमी

कहते हैं, स्वस्थ मानव संसाधन किसी राज्य की तरक्की की नींव होते हैं. लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि एक लोक कल्याणकारी राज्य अपने नागरिकों के लिए कैसी स्वास्थ्य व्यवस्थाएं निर्मित करता है. आज बिहार के जिलों और प्रखंडों में सरकारी अस्पतालों की चमचमाती बिल्डिंगें तो दिखाई देती हैं, किन्तु डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की आज भी भारी कमी है. कैग की हालिया रिपोर्ट के अनुसार बिहार के स्वास्थ्य विभागों में करीब 49% पद खाली पड़े हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार राज्य में 1,24,919 डॉक्टरों की आवश्यकता है, लेकिन फिलहाल केवल 58,144 डॉक्टर ही उपलब्ध हैं. ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति बेहद दयनीय है. डॉक्टरों की कमी के अलावा डायग्नोस्टिक सुविधाएं, जैसे- अल्ट्रासाउंड, एक्स-रे, पैथोलॉजी लैब, ऑपरेशन थियेटर या तो उपलब्ध नहीं हैं, या खराब स्थिति में हैं. आज भी बिहार की बड़ी आबादी बेहतर इलाज के लिए दिल्ली एम्स का रूख करती है.

बाढ़ की विभीषिका से प्रदेश त्रस्त

बिहार की तरक्की में अगली बाधा, जिसका उल्लेख महत्वपूर्ण है, वह है बाढ़ की विभीषिका. खासकर उत्तरी बिहार के लिए बाढ़ किसी शाप और प्रकोप से कम नहीं. लोग तिनका-तिनका जोड़कर अपना घर-बार बसाते हैं, लेकिन नेपाल से होकर आने वाली नदियां हर साल इन्हें लील जाती हैं. इस तरह एक बड़ी आबादी का हर वर्ष उजड़ने और बसने का संघर्ष चलता रहता है. कोसी, गंडक, बागमती, कमला बलान और महानंदा जैसी नदियां मानसून के समय अपने उफान पर होती हैं. बाढ़ से खेती, पशुधन और लोगों की संपत्ति का भारी नुकसान होता है. आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2024 में 12 लाख से अधिक लोग बाढ़ की चपेट में आए और उन्हें अपना घर छोड़ अस्थायी शिविर में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा. बाढ़ जाने के बाद भी लोगों को अस्वच्छता और जल जनित गंभीर बीमारियां देकर जाती है. हालांकि पहले की तुलना में राहत व बचाव कार्य और तटबंधों के निर्माण एवं मरम्मत जैसै सरकारी प्रयासों में तेजी आई है, लेकिन नेपाल के साथ समझौता, नदियों से सिल्ट हटाने की प्रक्रिया (नदी ड्रेजिंग), बाढ़ से प्रभावित लोगों को तत्काल मुआवजा और फसल नुकसान के बीमा जैसै मुद्दों पर सरकार आज भी लचर नजर आती है.

बिहार की बेहतरी वर्तमान के साथ कदमताल करने से हो सकती है, न कि पीछे मुड़कर देखने से. बिहार की प्रगति की राह में चुनौतियां और भी हैं, लेकिन यहां जिन चुनौतियों की चर्चा की गई है, उससे निबटने और उसपर काबू पाने से ही विकसित बिहार की यात्रा प्रारंभ होगी. तब हम अपने गौरवशाली अतीत के बखान के साथ सुनहरे वर्तमान पर गर्व कर सकेंगे और समृद्ध भविष्य के स्वप्न को भी साकार कर सकेंगे. तभी सही मायनों में “बढ़ता बिहार, बदलता बिहार” का नारा भी साकार हो सकेगा.

(रिपोर्ट पल्लव आनंद की)


संबंधित खबर
संबंधित खबर और खबरें
होम E-Paper News Snaps News reels
Exit mobile version