–डॉ सहदेव राम–
BR Ambedkar : आज 14 अप्रैल है, इसी 14 अप्रैल 1891 को भारत के इतिहास में एक दूरदर्शी नेता डॉ बीआर आंबेडकर का जन्म हुआ था. उन्होंने छोटी उम्र से ही जातिगत भेदभाव का सामना किया. जाति आधारित भेदभाव के अनुभव की वजह से उनके मन में समानता का एक दृष्टिकोण पनपा और इसका गहरा प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा.भारत में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान उन्हें अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा. डॉ बीआर आंबेडकर ने 32 डिग्रियां हासिल की थी, जिनमें बॉम्बे विश्वविद्यालय से बीए, कोलंबिया विश्वविद्यालय से एमए और पीएचडी, लंदन स्कूल आॅफ इकोमिक्स से एमएससी और डीएससी और ग्रेज इन से बैरिस्टर-एट-लॉ शामिल है.जहां से उन्होंने अपने जिंदगी को आकार देने का काम किया, जब भारतवर्ष में उनकी वापसी हुई तो समाज सुधार की दिशा में पहला कदम रखते हुए बहिष्कृत हितकरणी सभा की स्थापना करते हुए समान अधिकारों के लिए पहला सार्वजनिक आंदोलन आरंभ किया.फिर महार सत्याग्रह जो सामाजिक न्याय में एक मील का पत्थर साबित हुआ.सामाजिक समानता हासिल करने में प्रत्यक्ष कार्रवाई और शांतिपूर्ण विरोध भारत के समक्ष रखा.फिर दलितों के अधिकारों के लिए कानूनी वकालत शुरू की.
डॉ बीआर आंबेडकर का जीवन सिर्फ संघर्षों की श्रृंखला नहीं था, यह अन्याय के खिलाफ एक क्रांति था.लोकतंत्र को फिर से परिभाषित करने का एक मिशन था और सम्मान के लिए एक आंदोलन जो आज भी गूंजता है.भारत के लिए उनका योगदान विशेष रूप से संविधान, सामाजिक न्याय आंदोलनों और उत्पीड़ित समुदायों के उत्थान के लिए अद्वितीय था, लेकिन आंबेडकर की यात्रा कभी भी सिर्फ अपने बारे में नहीं थी, यह उन लाखों के बारे में थी जिन्हें समाज में उनके उचित स्थान से वंचित किया गया था.यह न्याय के बारे में था, दान के बारे में नहीं.गरिमा के बारे में था, दया के बारे में नहीं और समानता के बारे में था ना कि केवल प्रतीकात्मक समावेश के बारे में.
वे तब बोलते हैं, जब एक दलित के बच्चे को स्कूल में भेदभाव का सामना करना पड़ता है.वे तब बोलते हैं जब एक महिला को उसकी जाति या पृष्ठभूमि के कारण न्याय से वंचित किया जाता है.वे तब बोलते हैं जब आर्थिक असमानता और सामाजिक बाधाए भी तय करती हैं कि किसे अवसर मिलेंगे.आंबेडकर एक ऐसे सामाजिक योद्धा थे, जिनके लिए न्याय पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता था, उनका मानना था कि अगर न्याय सभी नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध नहीं है तो कोई राष्ट्र खुद को लोकतांत्रिक नहीं कह सकता.उन्होंने एक ऐसी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी जिसने अन्याय को जीवन का तरीका बना दिया था.उन्होंने सुनिश्चित किया कि न्याय को व्याख्या के लिए नहीं छोड़ा जाय इसे संविधान में लिखा जाय.उन्होंने चेतावनी दी की सामाजिक और आर्थिक न्याय के बिना राजनीतिक लोकतंत्र विफल हो जायेगा.उन्होंने कहा कि “न्याय समानता के लिए एक और नाम है न्याय के बिना एक राष्ट्र कुछ के लिए विशेषाधिकार का घर बन जाता है, और कई लोगों के लिए पीड़ित की जेल बन जाती है.
डॉ बीआर आंबेडकरने एक ऐसी व्यवस्था को चुनौती दी, जहां कुछ सत्ता में पैदा हुये थे, जबकि अन्य सेवा करने के लिए पैदा हुए थे.उन्होंने स्वतंत्रता की मांग की जो सशर्त नहीं थी, लेकिन निरपेक्ष थी.उनहोंने देश को जगाते हुए कहा था कि जब तक लिबर्टी को सक्रिय रूप से संरक्षित नहीं किया जाता, तब तक इसे दूर ले जाया जा सकता है.डॉ बीआर आंबेडकर ने स्वतंत्रता पर जोर देते हुए कहा था कि स्वतंत्रता लोकतंत्र का जीवन है.स्वतंत्रता के बिना लोकतंत्र केवल चुनावों में काम आता है और लोग समाजिक और आर्थिक ताकतों द्वारा गुलाम बने रहते हैं. डॉ बीआर आंबेडकर एक इस तरह के समाज को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, जहां कुछ लोग शासक थे और अन्य सेवा करने के लिए पैदा हुये थे.उन्होंने कहा कि “जाति की नींव पर राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते” जब कुछ लोग खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मानते हैं, तो आप एकता नहीं बना सकते.उन्होंने कहा कि सामाजिक न्याय के बिना सामाजिक सद्भाव संभव नहीं है.
डॉ बीआर आंबेडकर एक ऐसे नेता थे जिन्होंने बचपन से लेकर अंतिम तक समाज को दिखाया कि उत्पीड़न से कैसे लड़ना है? लेकिन यह सुनिश्चित करना हम पर निर्भर है कि किसी को अन्याय का सामना न करना पड़े. डॉ बीआर आंबेडकर ने समाज को बताया कि न्याय के लिए लड़ाई कभी खत्म नहीं होती.हर पीढ़ी को सम्मान-समानता और स्वतंत्रता के लिए अपना संघर्ष खुद करना चाहिए.
डॉ बीआर आंबेडकर ने भारतीय संविधान के प्रारूपण का नेतृत्व किया तो उन्होंने सुनिश्चित किया कि यह केवल कानूनी दस्तावेज ना हो, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के लिए एक क्रांतिकारी उपकरण हो.उनका दृढ़ विश्वास था कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र निरर्थक होगा.इस प्रकार उन्होंने सुनिश्चित किया कि मौलिक अधिकार और सामाजिक न्याय न्यायपूर्ण समाज की नींव के रूप में काम करेगें.डॉ बीआर आंबेडकर का दृष्टिकोण स्पष्ट था कि संविधान को ऐसे अधिकारों की गारंटी चाहिए जो उत्पीड़ितों का उत्थान करें, जातिगत भेदभाव को मिटायेंऔर सभी नागरिकों के लिए समान अवसर पैदा करें.यह भारत के लिए एक क्रांतिकारी बदलाव था, जो सदियों से एक गहरी जड़े जमाये हुए जाति पदानुक्रम द्वारा शासित था, जिसने दलितों को हाशिए के समुदायों को बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया था.
डॉ बीआर आंबेडकर को दृढ़ विश्वास था कि कोई भी समाज तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक कि उसकी महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रूप से स्वतंत्र और समान रूप से व्यवहार न करें.ऐसे समय में जब भारतीय समाज ने महिलाओं को बड़े पैमाने पर घरेलू भूमिकाओं तक सीमित कर दिया था, आंबेडकर उन कुछ पुरूष नेताओं में से एक थे, जिन्होंने शिक्षा और रोजगार में महिलाओं के अधिकारों की सक्रिय रूप से वकालत की.
उन्होंने लैंगिक असमानता और जातिगत भेदभाव को आपस में जुड़े मुद्दों के रूप में देखा, विशेष रूप से दलित महिलाओं को जाति, लिंग और आर्थिक हाशिए पर होने के कारण तिहरे उत्पीड़न का सामना करना पड़ा.इसे संबोधित करने के लिए उन्होंने प्रगतिशील नीतियों पर जोर दिया, जिससे महिलाओं को शिक्षा, उचित वेतन और श्रम अधिकारों तक पहुंच सुनिश्चित हो सके. डॉ बीआर आंबेडकर ने भारत में महिला सशक्तिकरण की नींव के रूप में शिक्षा का अधिकार, वोट का अधिकार, नौकरी का अधिकार, तलाक का अधिकार, काम-काजी महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश, समान कार्य के लिए समान वेतन, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा में महिलाओं का आरक्षण, सम्पत्ति का अधिकार आदि शामिल हैं.
डॉ बीआर आंबेडकर ने सिर्फ समाज की दलित महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई नहीं लड़ी बल्कि देश के विकास के लिये उन्होंने भारत सरकार को पंचवर्षीय योजना, दामोदर घाटी परियोजना, भाखड़ा नांगल डेम, आईआईटी, एम्स, आदि की स्थापना हेतु योजनाए तैयार की.डॉ बीआर आंबेडकर के द्वारा लिखित थेसीस “द प्रोब्लेम आॅफ रूपीज” के आधार पर ही 01 अप्रैल 1935 को भारत में भारतीय रिर्जव बैंक की स्थापना की गई, जिसके कारण भारत में प्रत्येक वर्ष 01 अप्रैल से वित्तीय वर्ष की शुरूआत होती है.अगर वास्तव में कहा जाय तो डॉ बीआर आंबेडकर एक युग पुरूष थे, जिन्होंने अपने विचार और विवेक से राष्ट्र की दिशा और दशा तय की.
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