Table of Contents
- कौन था ब्रह्मेश्वर मुखिया?
- अगड़ी और पिछड़ी जाति की वर्चस्व की लड़ाई में रणवीर सेना की भूमिका
- ब्रह्मेश्वर मुखिया पर 277 लोगों की हत्या का आरोप था
- जुल्म सहने के बाद बनी रणवीर सेना
- 2012 में आरा में हुई हत्या
Brahmeshwar Mukhiya Ranvir Sena : क्या 277 हत्याओं को अंजाम देने वाला ब्रह्मेश्वर मुखिया एक राक्षस था? अगर नहीं तो क्या वह सचमुच नक्सलियों के खिलाफ अपने हक की लड़ाई लड़नेवाला एक योद्धा था? बिहार में कई नरसंहारों को अंजाम देने वाले ब्रह्मेश्वर मुखिया को लेकर यह दो तरह की विचारधारा समाज में मौजूद है. ब्रह्मेश्वर मुखिया ने जब रणवीर सेना का गठन किया था, तो उसने यह कहा था कि वह नक्सलियों को जवाब देना चाहता है, लेकिन उसने जिस तरह महिलाओं और बच्चों को अपना शिकार बनाया, उसके दावे झूठे साबित हो गए.
कौन था ब्रह्मेश्वर मुखिया?
ब्रह्मेश्वर मुखिया रणवीर सेना का संस्थापक था. हालांकि रणवीर सेना नाम का कोई संगठन रजिस्टर्ड नहीं था, लेकिन ब्रह्मेश्वर मुखिया ने एमसीसी के नक्लियों को जवाब देने के लिए इसका गठन किया था. ब्रह्मेश्वर मुखिया ने जो संगठन बनाया था उसका नाम रणवीर किसान महासंघ था, जिसे पुलिस ने रणवीर सेना का नाम दे दिया था. 1990 से 2002 के बीच बिहार में नक्सलियों ने दलितों की आवाज बनने की कोशिश की और यह भी कहा कि जो लोग गरीबों को उनका हक नहीं दे रहे हैं उन्हें हथियारों से जवाब दिया जाएगा. नक्सलियों के इस तरह के ऐलान के बाद बिहार में जातीय संघर्ष बढ़ गया था. जब दलितों की सामूहिक हत्या के बाद बदला लेने की नीयत से नक्सलियों ने सेनारी नरसंहार( 1999) और अफसर नरसंहार(2000) को अंजाम दिया, तो अगड़ी जाति के लोगों का गुस्सा बहुत बढ़ गया. सेनारी नरसंहार में 34 भूमिहारों की और अफसर में 11 भूमिहार और राजपूत की हत्या हुई थी. एमसीसी के उग्रवादियों ने अगड़ी जाति के लोगों के घर में घुसकर उनकी हत्या की थी. तब ब्रह्मेश्वर मुखिया ने 1994 में रणवीर सेना का गठन किया. रणवीर सेना ने बिहार में लक्ष्मणपुर बाथे जैसे नरसंहारों को अंजाम दिया, जिसमें 58 दलितों की हत्या हुई थी. ब्रह्ममेश्वर मुखिया बिहार के भोजपुर जिला के खोपिरा गांव का रहने वाला था. मुखिया उसे इसलिए कहा जाता था क्योंकि वह अपने गांव का मुखिया था.
अगड़ी और पिछड़ी जाति की वर्चस्व की लड़ाई में रणवीर सेना की भूमिका
रणवीर सेना ने बिहार में अगड़ी और पिछड़ी जाति की लड़ाई को बहुत क्रूर बना दिया. रणवीर सेना ने नक्सलियों को जवाब देने के नाम पर दलितों को अत्याचार किए और बथानी टोला नरसंहार (1996),लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार (1997) और शंकरबिगहा नरसंहार (1999) जैसी घटनाओं को अंजाम दिया. इन नरसंहारों को बहुत ही क्रूर तरीके से अंजाम दिया गया था. रणवीर सेना ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं छोड़ा था और उनके साथ भी क्रूरता की थी. गोली मार कर आग में झोंक देना जैसी घटनाएं आम थीं.
ब्रह्मेश्वर मुखिया पर 277 लोगों की हत्या का आरोप था
ब्रह्मेश्वर मुखिया को भूमिहार और अगड़ी जाति के लोग अपना मसीहा मानते थे क्योंकि वह उनके हक की बात कर रहा था, जबकि दलित उसे राक्षस मानते थे. पांच लाख के इनामी ब्रह्मेश्वर मुखिया को पटना से पुलिस ने गिरफ्तार किया था. उसपर कई मामलों में केस चला, कई केस में वह साक्ष्य के अभाव में छूट गया, बावजूद इसके नौ साल की जेल हुई. जेल से छूटने के बाद उसने यह कहा था कि वह मुख्यधारा में आकर किसानों के लिए काम करेगा.
जुल्म सहने के बाद बनी रणवीर सेना
ब्रह्मेश्वर मुखिया के करीबी रहे बांके बिहारी शर्मा का कहना है कि ये सही है कि मुखिया जी ने रणवीर सेना बनाई, लेकिन इसकी जरूरत क्यों हुई, इसपर कोई बात नहीं करता है. बिहार में भूमिहार जाति पर अत्यधिक अत्याचार एमसीसी के लोग कर रहे थे. आखिर कब तक कोई बर्दाश्त कर सकता है, उस वक्त बिहार में लालू यादव की सरकार थी. एक बार की घटना मैं बताना चाहता हूं कि कुछ लोगों की हत्या एमसीसी वालों ने कर दी और लाश तीन दिनों तक गांव में पड़ा रहा. सरकार ने दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. भूमिहारों को जमीन जोतने नहीं दिया जा रहा था. उनसे उनके लाइसेंसी हथियार छीने जा रहे थे, मजदूरों को मारा जा रहा था. पैसा नहीं देने पर हत्या हो रही थी और सरकार चुप थी, थक कर रणवीर सेना का गठन किया गया. मुखिया जी आतंक नहीं शांति चाहते थे, लेकिन कितने लोगों की बलि होते चुपचाप देखते. वे तो शुरुआत में गांधीवादी थे. 80-85 बीघा के गृहस्थ. अपने मजदूरों की चिंता करने वाले सबको खिलाकर खाने वाले, लेकिन कोई भी कितना अत्याचार सह सकता है? क्रिया के विपरीत तो प्रतिक्रिया होगी ना, सो हुई. मुखिया जी को बदनाम किया जाता है, उन्होंने जिस वजह से रणवीर सेना बनाई , उन कारणों को मिटाने के लिए कुछ नहीं किया गया. सरकारें अत्याचार देखती रही.
2012 में आरा में हुई हत्या
ब्रह्मेश्वर मुखिया के जितने प्रशंसक थे उतने ही आलोचक भी. यही वजह था कि उसकी हत्या 1 जून 2012 में कर दी गई. मुखिया के शव को जब अंतिम संस्कार के लिए पटना लाया जा रहा था, तो उसके समर्थकों ने पटना की सड़कों पर खूब बवाल काटा. हिंसा हुई और पुलिस पर यह आरोप लगा कि उसने दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की. लेकिन डीजीपी अभयानंद ने बल प्रयोग ना करने के अपने निर्णय को सही ठहराया था. 2005 के बाद से बिहार में नरसंहारों का क्रम रूक गया है, लेकिन उसकी यादें आज भी रोंगटे खड़े कर देती है.
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