Table of Contents
- कौन थे डॉ सच्चिदानंद सिन्हा
- बिहार को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग करने की जरूरत क्यों पड़ी?
- डॉ सच्चिदानंद सिन्हा बिहार अलग राज्य के लिए बिहारी अस्मिता को जगाया
- डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के आंदोलन को इमाम ब्रदर्स ने भी दिया भरपूर सहयोग
History of Bihar : बिहार यानी मगध का इतिहास काफी समृद्धशाली रहा है, लेकिन कालांतर में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिसने बिहार को दबा कुचला राज्य बना दिया. स्थिति इतनी खराब हो गई कि बिहार का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं बचा और यह बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा बनकर रहा गया, जहां बिहारियों और बिहार के संसाधनों का महज दुरुपयोग हुआ. उस दौर में डॉ सच्चिदानंद सिन्हा हुए जिन्होंने बिहारी अस्मिता की लड़ाई लड़ी और बिहारी गौरव को जगाकर बिहार को राज्य का दर्जा वापस दिलाया.
कौन थे डॉ सच्चिदानंद सिन्हा
डॉ सच्चिदानंद सिन्हा का जन्म ब्रिटिश राज्य में बिहार के शाहाबाद जिले में हुआ था. अब शाहाबाद जिला अस्तित्व में नहीं है, अब उनका गांव बिहार के बक्सर जिले में आता है. डॉ सच्चिदानंद सिन्हा ने काफी उम्र में लंदन का रुख किया और वहां से वकालत की पढ़ाई करके लौटे. उन्होंने 10 साल तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वकालत की प्रैक्टिस की थी, उसके बाद वे ब्रिटिश शासन में 1921 में बिहार के कानून मंत्री भी रहे थे. डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के पिता बख्शी शिव प्रताप सिन्हा डुमरांव महाराज के तहसीलदार थे. उन्हें भारत की संविधान सभा का प्रथम अध्यक्ष होने का गौरव भी प्राप्त है.
बिहार को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग करने की जरूरत क्यों पड़ी?
बिहार राज्य की प्राचीन काल से अपनी पहचान रही है और यहां की भाषा, संस्कृति भी काफी समृद्ध है. ब्रिटिश काल में बिहार को बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा बना दिया गया, जिसकी वजह से बिहार की अपनी पहचान और संस्कृति सबकुछ समाप्त हो गई. इस संबंध में बात करते हुए Bihar Institute of Public Finance and Policy के प्रोफेसर और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ बख्शी अमित कुमार सिन्हा ने कहा कि बंगाल प्रेसीडेंसी से बिहार को अलग करने की मांग इसलिए उठी क्योंकि बंगाल प्रेसीडेंसी में प्रोडक्शन पर परमानेंट सेटलमेंट लागू था. परमानेंट सेटलमेंट का अर्थ यह था कि राजस्व तय कर दिया गया था. इसका अर्थ यह था कि फसल चाहे जैसी भी हो, किसानों को एक तय रकम कर के रूप में जमींदारों के जरिए ब्रिटिश सरकार को देनी पड़ती थी. इसका परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार को तो एक तय रकम मिलने लगी और जमींदारों को भी भूमि का स्थायी अधिकार मिल गया, लेकिन किसान बेहाल हो गए. उन्हें किसी भी कीमत पर निर्धारित कर चुकाना पड़ता था. इससे किसानों के अंदर रोष फैल गया था. बिहार अलग राज्य की मांग की दूसरी सबसे बड़ी वजह यह थी कि बंगाल प्रेसीडेंसी में जो कुछ भी विकास हो रहा था वह बंगाल केंद्रित था, इसमें कोलकाता पर फोकस था. बिहार में विकास की रोशनी नहीं पहुंच पा रही थी और बिहार का इलाका पिछड़ता जा रहा था, गरीबी बढ़ रही थी. तीसरी वजह यह थी कि उच्च पदों पर सिर्फ बंगालियों की ही नियुक्ति होती थी, बिहारियों को वहां भागीदारी ना के बराबर मिलता था और अगर मिलता भी था, तो वह काफी कम था. इसकी वजह यह थी कि बिहार में शिक्षा का अभाव था. उच्च शिक्षा के कोई भी संस्थान बिहार में नहीं थे.
डॉ सच्चिदानंद सिन्हा बिहार अलग राज्य के लिए बिहारी अस्मिता को जगाया
डॉ सच्चिदानंद सिन्हा जो एक पढ़े-लिखे बिहारी थे और उनके अंदर बिहारी अस्मिता को जगाकर रखने की भावना थी. उन्होंने यह महसूस किया कि बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा बनने से बिहारियों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है. बिहारियों को ना तो विकास में हिस्सेदारी मिल रही है और ना ही उनकी भाषा और संस्कृति सुरक्षित बच रही है. तब उन्होंने बिहारी पहचान बिहारी अस्मिता की बात उठाई, जिसका समर्थन उस समय के शिक्षित परिवारों ने किया. बिहार अलग राज्य के आंदोलन में जिन्होंने उनका बढ़-चढ़कर साथ दिया, उनमें प्रमुख थे महेश नारायण, रायबहादुर कृष्ण सहाय और किशोरीलाल. डॉ बख्शी अमित कुमार सिन्हा बताते हैं कि The Partition of Bengal or the Separation
of Behar? इस पुस्तक को डॉ सच्चिदानंद सिन्हा और महेश नारायण ने तब लिखा जब बंगाल विभाजन की बात हो रही थी. इस पुस्तक को एक तरह से बिहार को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग करने की बौद्धिक नींव कहा जा सकता है. इस पुस्तक में यह बताया गया है कि बंगाल के साथ बिहार को रखने पर प्रशासनिक परेशानियां आती हैं और प्रदेश का विकास नहीं हो पा रहा है. उन्होंने यह बताया कि बिहार को बंगाल से अलग करना केवल राजनीतिक रूप से उचित नहीं, बल्कि यह ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी आवश्यक था इसके पीछे उन्होंने यह तर्क दिया कि दोनों प्रदेशों की संस्कृति में अंतर है. भाषाई भिन्नता है और बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा होने की वजह से बिहार पिछड़ता जा रहा है. इस पुस्तक पर इंग्लैंड में भी चर्चा हुई. डॉ सच्चिदानंद सिन्हा ने इस बात पर जोर दिया कि बिहार के विकास के लिए यह जरूरी है कि उसका एक स्वतंत्र अस्तित्व हो. डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के प्रयासों को उस वक्त के अखबारों का भी सहयोग मिला.
डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के आंदोलन को इमाम ब्रदर्स ने भी दिया भरपूर सहयोग
डॉ सच्चिदानंद सिन्हा ने बिहार अलग राज्य के गठन को लेकर जो आंदोलन चलाया उसे समाज के पढ़े-लिखे लोगों का भरपूर साथ मिला. बिहार के पढ़े-लिखे मुसलमान भी इसमें आगे आए और आंदोलन को विभिन्न तरीकों से समर्थन दिया. इसमें इमाम ब्रदर्स का नाम सबसे प्रमुख है, जिन्होंने आंदोलन का पूरा साथ दिया. इमाम ब्रदर्स सर अली इमाम और इमाम हसन ने ब्रिटिश सरकार को भेजे जाने वाले हर पत्र और ज्ञापन में साइन करके आंदोलन को अपना समर्थन दिया. इतना ही नहीं इन दोनों भाइयों ने उर्दू अखबारों के जरिए भी आंदोलन को समर्थन दिया और बिहारी अस्मिता की रक्षा के लिए लोगों को जागरूक किया. इन्होंने हरसंभव यह कोशिश की कि बिहार अलग राज्य के आंदोलन को समाज के हर वर्ग का समर्थन मिले और इसमें मुसलमान कहीं से भी पीछे ना रहें.
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