Justice Yashwant Varma Case: दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर पर कथित रूप से करोड़ों रुपये मिलने के बाद उनके खिलाफ महाभियोग की मांग की जा रही है. करोड़ों रुपये मिलने के मामले के बाद जज यशवंत वर्मा को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर कर दिया था. लेकिन सोशल मीडिया पर मामला सामने आने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट सहित कई बार एसोसिएशन ने यशवंत वर्मा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. सुप्रीम कोर्ट में ने जस्टिस यशवंत वर्मा पर लगे आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया है.
न्यायाधीश जांच अधिनियम 1968
किसी भी जज पर महाभियोग चलाए जाने की प्रक्रिया न्यायाधीश जांच अधिनियम 1968 में निर्धारित की गई है. महाभियोग की शुरू करने की पहली प्रक्रिया संसद के सदस्यों के हस्ताक्षर लेकर समर्थन जुटाना है. महाभियोग का प्रस्ताव लाने के बाद लोकसभा अध्यक्ष व राज्यसभा के सभापति जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन करते हैं. इस समिति की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश या अन्य कोई जज करता है. इस समिति में किसी हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को शामिल किया जाता है. लोकसभा के अध्यक्ष या राज्य सभा के सभापति कानून के प्रतिष्ठित जानकार को तीसरे सदस्य के रूप में नामित करते हैं. इस समित को जांच के लिए सबूत मांगने और गवाही लेने का अधिकार होता है.
क्या है महाभियोग
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज को केवल महाभियोग से ही हटाया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने की प्रक्रिया की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 124(4) में की गई है. वहीं हाईकोर्ट के जज को हटाने की प्रक्रिया का प्राविधान अनुच्छेद 218 में किया गया है. संविधान का अनुच्छेद 124(4) कहता है कि किसी जज को केवल प्रमाणित कदाचार और अक्षमता के आधार पर ही हटाया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जा सकता, जब तक कि संसद के दोनों सदन में बहस न हो जाए. महाभियोग प्रस्ताव को उस सदन के कुल सदस्यों में से दो तिहाई का समर्थन होना जरूरी है. इस प्रस्ताव को राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिलना जरूरी है. यही नहीं यह प्रस्ताव जिस सत्र में लाया जाए, उसी सत्र में उसे पारित करना होता है. संसद में मतदान के जरिए महाभियोग का प्रस्ताव पारित हो जाने पर राष्ट्रपति जज को हटाने का आदेश जारी करते हैं.
अब तक छह बार कोशिश
देश में जजों के हटाने के अब तक छह बार प्रयास किए गए हैं. इनमें पांच में वित्तीय अनियमितता और एक यौन कदाचार का मामला था. जस्टिस रामास्वामी और जस्टिस सौमित्र सेन के मामले में ही जांच समिति ने आरोपों को सही पाया था. वर्ष 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज वीरास्वामी रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग लाया गया था. जज वीरास्वामी रामास्वामी पर पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश रहते हुए अनियमितता का आरोप लगाया गया था. समिति की जांच में 14 में से 11 आरोप सही साबित हुए थे. संसद में कपिल सिब्बल ने जस्टिस रामास्वामी के वकील के रूप में उनका बचाव किया था. महाभियोग का प्रस्ताव संसद में पारित नहीं हो पाया था. इसके एक साल बाद जस्टिस रामास्वामी सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में रिटायर हुए. बाद में वो राजनीति में शामिल हो गए थे.
- इसी तरह कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन के खिलाफ भी 2011 महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई थी. सामित्र सेन जब वकील थे, कोलकाता हाईकोर्ट ने उन्हें एक मामले में रिसीवर नियुक्त किया था. इसी मामले में उन पर वित्तीय अनियमितता का आरोप लगा था. संसद में महाभियोग प्रस्ताव पारित हो जाने के बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.
- सिक्किम हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पीडी दिनाकरन के खिलाफ भी 2011 में भ्रष्टाचार की जांच के लिए न्यायिक समित का गठन किया गया था. इससे पहले की महाभियोग की कार्रवाई शुरू होती, जस्टिस पीडी दिनाकरन ने इस्तीफा दे दिया था.
- गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस पारदीवाला के खिलाफ भी 2015 में महाभियोग का प्रस्ताव आया था. उन्होंने अपने एक फैसले में आरक्षण के खिलाफ टिप्पणी की थी. लेकिन विरोध होने पर उन्होंने अपने जजमेंट से विवादित टिप्पणी को हटा दिया था. जिससे महाभियोग का कोई मतलब नहीं रह गया था.
- मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस एसके गंगेले के खिलाफ महिला जज ने 2015 यौन शोषण का आरोप लगाया था. इस राज्यसभा के 58 सांसदों ने महाभियोग का नोटिस दिया था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तीन सदस्यों की जांच कमेटी बनाई थी. जिसने यौन उत्पीड़न के आरोप को साबित करने के सबूतों को अपर्याप्त बताया था.
- आंध्र प्रदेश और तेलांगना के हाईकोर्ट के जस्टिस सीवी नागार्जुन के खिलाफ 2016 और 2017 में दो बार महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हुई. लेकिन दोनों बार ही इसे संसद में पूरा समर्थन नहीं मिला.
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