बिहार की राजनीति में कितना इंपॉर्टेंट हैं मुसलमान?

Muslims in Bihar Politics : बिहार की राजनीति में मुसलमान बहुत महत्वपूर्ण हैं. उन्होंने ना सिर्फ आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया, बल्कि देश के बंटवारे के विरोध में इंडिया गेट पर प्रदर्शन भी किया था. आजादी के बाद संसद और विधानसभा में भी उनकी भागीदारी रही, बावजूद इसके मुसलमान समाज आज भी विकास की दौड़ में काफी पिछड़ा है. बिहार में एक बार फिर चुनाव होने हैं, ऐसे में यह सवाल सबके मन में उठता है कि जब मुसलमान बिहार के लिए इतना जरूरी थे, तो फिर वे सिर्फ वोटबैंक बनकर क्यों रह गए, क्यों नहीं उनका उसी तरह विकास हुआ, जैसे समाज के अन्य वर्ग का हुआ.

By Rajneesh Anand | July 5, 2025 11:11 PM
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Muslims in Bihar Politics : बिहार का विधानसभा चुनाव अगले कुछ महीनों में होने वाला है.बिहार की राजनीति में जिस वर्ग पर सबकी नजरें रहती हैं वो है मुस्लिम समाज. मुसलमानों का वोट हमेशा एकमुश्त पड़ता है, जिसकी वजह से कई बार सरकारें बदलती और बनती रही हैं. 2023 की जाति आधारित जनगणना के अनुसार बिहार में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी का 17.70% है. इतनी बड़ी आबादी होने की वजह से मुसलमानों को इग्नोर करना किसी भी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल होता है.

बिहार की राजनीति में मुसलमान

बिहार की राजनीति में मुसलमानों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है. अगर हम स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में जाएंगे तो पाएंगे कि बिहार में कई ऐसे नेता हुए जिन्होंने आजादी से पहले भी राजनीति के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. सबसे पहला नाम मोहम्मद युनूस का आता है,जो 1936-37 में बिहार के पहले प्रधानमंत्री बने थे. उस दौर में प्रांतीय सरकारों के प्रमुख को प्रधानमंत्री कहा जाता था. मोहम्मद अब्दुल बारी और मौलाना मजरूहल हक भी ऐसे नेता थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई. इनके अलावा कुछ और नाम भी हैं, जिन्होंने बिहार की राजनीति में अपना योगदान दिया था. इमाम ब्रदर्स सर अली इमाम और इमाम हसन ने भी आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया.

आजादी के बाद कई बिहारी मुसलमान संसद और विधानसभा पहुंचे

आजादी के बाद जब देश में अपनी सरकार बनी, तो उस दौर में भी कई मुस्लिम नेताओं ने राजनीति में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई. इनमें प्रमुख हैं – सैयद महमूद, मोहम्मद इस्लामुद्दीन और अब्दुल इब्राहिम, जो संसद पहुंचे. बिहार विधानसभा पहुंचने वाले नेताओं के नाम थे-नवाबजादा सैयद,ताजुद्दीन,मुहम्मद अकील सईद,मंजूर अहमद,एसएम लतीफुर्रहमान,अब्दुल गफ्फार मियां,सगीरूल हक,फैजुल रहमान,मसूद मौलवी,डाॅक्टर हबीब,अब्दुस्मी नदवी, सईउल हक, शफी,शकूर अहमद, शाह मुश्ताक साहब, मोहिउद्दीन मोख्तार और सैयद मकबूल अहमद जैसे नाम प्रमुख हैं.

जेपी के आंदोलन में भी सक्रिय रहे मुसलमान

1974 जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश में संपूर्ण क्रांति की शुरुआत हुई, तो कई मुस्लिम नेताओं ने उसमें भागीदारी दी और जेल गए, हालांकि उस दौर में अधिकतर मुसलमान कांग्रेस के साथ थे और उन्होंने जेपी का साथ नहीं दिया था. बावजूद इसके कुछ मुस्लिम नेता जेपी मूवमेंट में भागीदार थे और उनमें से सबसे प्रमुख नाम है अब्दुल बारी सिद्दीकी का, जो जेपी के आंदोलन में काफी सक्रिय थे और जेल भी गए.

लालू यादव ने मुसलमानों का विश्वास जीता

1990 के दशक में जब लालू यादव का उदय बिहार की राजनीति में हुआ तो उन्होंने मुसलमानों और यादवों को साथ लाकर एमवाई समीकरण बनाया और राज्य की सत्ता पर काबिज हुए. उन्होंने मुसलमानों का विश्वास जीता, लेकिन उसके बाद जब नीतीश कुमार की एंट्री बिहार की राजनीति में हुई तो मुसलमानों का वोट बंट गया. अब मुसलमानों का वोट बिहार में एकमुश्त नहीं पड़ता, बल्कि वो परिस्थितियों के अनुसार कभी राजद, कभी कांग्रेस, कभी जदयू तो कभी एआईएमआईएम के खाते में जाता है.

इतना महत्वपूर्ण होने के बाद भी बिहारी मुसलमान हैं पिछड़े

बिहारी मुसलमानों की सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति पर गौर करें, तो वे काफी पिछड़े हुए हैं. मुसलमानों की आबादी का 70 प्रतिशत पसमांदा मुसलमान का है जो सामाजिक रूप से पिछड़े और गरीब है. अशराफ मुसलमान यानी ऊंची जाति के मुसलमानों की स्थिति ही थोड़ी बेहतर है. शिक्षा की बात करें तो 3%-5% लोग ही ऊंची शिक्षा ग्रहण करते हैं. इस बारे में पूर्व सांसद और ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष अली अनवर ने कहा कि कौन सा ऐसा व्यक्ति होगा जो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दिलाना चाहता है या अच्छा जीवन नहीं देना चाहता है, लेकिन मुसलमानों की सच्चाई यह है कि आजादी के बाद से अबतक उन्हें उनका हक नहीं मिला.सरकारों ने मुसलमानों का वोट तो लिया लेकिन उन्हें उनका हक नहीं दिया, जिसकी वजह से मुसलमान गरीब और पिछड़े हैं. मुसलमानों का स्वास्थ्य खराब है, उनकी लड़कियों में शिक्षा का अभाव है, लेकिन इस ओर किसी सरकार का ध्यान नहीं जाता है. सरकारी स्कूलों में सबसे ज्यादा ड्राॅपआउट मुसलमान बच्चों का होता है, क्योंकि उन्हें गरीबी की वजह से काम पर लगना पड़ता है. निजी स्कूलों की फीस इतनी ज्यादा है कि पसमांदा मुसलमान परिवार अपने बच्चों को वहां पढ़ा नहीं पाता है. यह सरकार को देखना चाहिए कि मुसलमानों की स्थिति कैसे सुधरेगी.

मुसलमानों को इग्नोर करना मुश्किल

बिहार में मुसलमानों की आबादी 2.31 करोड़ है. इस स्थिति में उन्हें इग्नोर करना बहुत ही मुश्किल है. प्रभात खबर के पॉलिटिकल एडिटर मिथिलेश कुमार कहते हैं कि बिहार की राजनीति पर गौर करें, तो हम पाएंगे कि आजादी के वक्त से ही मुसलमानों ने अपना योगदान दिया है. मोहम्मद युनूस,मोहम्मद अब्दुल बारी और मौलाना मजरूहल हक जैसे नाम इस श्रेणी में सर्वोपरि हैं. वर्तमान दौर में भी बिहार की राजनीति में अब्दुल बारी सिद्दीकी, गुलाम गौस जैसे नेता अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. मुसलमानों की आबादी राज्य में 17.70% प्रतिशत है इसलिए उन्हें दरकिनार करके कोई भी पार्टी बिहार में राजनीति नहीं कर सकती है. AIMIM के नेता अखतरुल इमाम बताते हैं कि मुसलमानों ने आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कइयों ने अपनी जान की कुर्बानी दी. बावजूद इसके जब देश का बंटवारा हुआ तो भारत में रह गए मुसलमानों के लिए नफरत और शक की भावना लोगों के मन में रह गई, जिसकी वजह से मुसलमानों के साथ भेदभाव हुआ. उनकी शिक्षा और सामाजिक स्थिति को सुधारने की कोशिश नहीं की गई. मुसलमान गरीब होते गए, लेकिन सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया. आज स्थिति यह है कि सरकारी नौकरियों में उनकी भागदीरी आबादी के हिसाब से काफी कम है. वोट बैंक के तौर पर उनका इस्तेमाल तो हुआ, लेकिन उन्हें हक नहीं मिला. मुसलमानों में शिक्षा का अभाव है, जिसकी वजह से उन्होंने अपने हक और अधिकारों के लिए बल्कि पार्टी के आधार पर वोटिंग की. यह उनके लिए बहुत खतरनाक साबित हुआ.

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