Table of Contents
- कश्मीर पर क्या सोचते थे पंडित नेहरू और सरदार पटेल
- कबायली हमले के वक्त कश्मीर में क्या हुआ
- संयुक्त राष्ट्र में क्यों उठाया गया कश्मीर का मसला?
- 1948 में सीजफायर के बाद भी कश्मीर के कुछ हिस्सों से क्यों नहीं हटा पाकिस्तान
Patel Nehru Kashmir Dispute : जम्मू-कश्मीर को भारत का मस्तक कहा जाता है. भारत का यह राज्य धरती पर का स्वर्ग है और इसी स्वर्ग को हथियाने के लिए पाकिस्तान हमेशा अपनी आसुरी शक्तियों का प्रयोग करता रहता है. भारत के बंटवारे के बाद से ही पाकिस्तान ने कश्मीर को हथियाने के लिए गलत प्रयास किए हैं. आजादी के तुरंत बाद ही उसने कबायलियों के जरिए जम्मू-कश्मीर पर हमला किया था. इस हमले की वजह से जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों पर पाकिस्तान का कब्जा है. उसी पाक अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तान आतंकवादियों को शरण देता है, उनके लिए ट्रेनिंग की व्यवस्था करता है और भारत को आतंकवाद की आग में जलाता रहता है. 1948 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो रहा था तो पंडित नेहरू और सरदार वल्लभाई पटेल के बीच कश्मीर के मसले को लेकर कुछ मतभेद थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि अगर उस वक्त सरदार पटेल के सुझावों को मान लिया जाता, तो हमें पहलगाम अटैक ना झेलना पड़ता. प्रधानमंत्री के इस बयान का अर्थ यह है कि कश्मीर को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू से कुछ गलतियां हुईं, जिनका खामियाजा आज हम भुगत रहे हैं. वे यह भी कहना चाहते हैं कि सरदार पटेल उस वक्त सही थे, अगर उनकी बात मान ली जाती, तो आज परिस्थितियां अलग होतीं.
कश्मीर पर क्या सोचते थे पंडित नेहरू और सरदार पटेल
पंडित नेहरू और सरदार पटेल दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि कश्मीर को भारत का अंग होना चाहिए. जब आजादी के वक्त कश्मीर ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए और स्वतंत्र रहने की इच्छा जताई तो नेहरू और पटेल दोनों को यह बात पसंद नहीं आई थी. भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी सी दासगुप्ता ने अपनी किताब- War and Diplomacy in Kashmir, 1947–48 में यह स्पष्ट लिखा है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल दोनों ही कश्मीर के स्वतंत्र या तटस्थ रहने के पक्ष में नहीं थे. दोनों का ही यह मानना था कि कश्मीर का स्वतंत्र रहना भारत की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए खतरा होगा. हां, यह भी एक सच्चाई है कि कश्मीर के मसले को सरदार पटेल सैन्य कार्रवाई से हल करना चाहते थे, जबकि पंडित नेहरू कूटनीतिक तरीके से.
कबायली हमले के वक्त कश्मीर में क्या हुआ
कश्मीर को ललचाई नजरों से देखने वाला पाकिस्तान किसी भी हालत में कश्मीर को हड़पना चाहता था. इसी सोच की वजह से जब भारत का बंटवारा हुआ और देश के तीन टुकड़े हुए तो पाकिस्तान कश्मीर को हथियाना चाह रहा था, क्योंकि आजादी के वक्त कश्मीर ने स्वतंत्र रहने का विकल्प चुना था. वह ना तो भारत के साथ था और ना ही पाकिस्तान के साथ. इसी बात का फायदा उठाते हुए पाकिस्तान ने कबायलियों की मदद से वहां के राजा हरि सिंह पर हमला कर दिया. हमले के बाद राजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी. नेहरू और पटेल दोनों ही उस वक्त कश्मीर को सैन्य मदद देने के पक्षधर थे, लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें रोका. उनका यह मानना था कि अगर भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र की मदद करेगा, तो भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ जाएगा. उन्होंने बिना विलय पत्र के कश्मीर को मदद देने से रोका था. कश्मीर ने जब विलयपत्र पर हस्ताक्षर किया, तब जाकर भारत कश्मीर में सैन्य कार्रवाई कर सका. War and Diplomacy in Kashmir, 1947–48 में लिखा गया है कि सरदार पटेल कश्मीर मुद्दे पर निर्णायक सैन्य कार्रवाई के पक्षधर थे, जबकि नेहरू अधिक कूटनीतिक दृष्टिकोण अपनाना चाहते थे. कश्मीर का मसला ब्रिटिश अधिकारियों की भूमिका और नेहरू-पटेल के बीच मतभेदों के कारण काफी जटिल हो गया था.
संयुक्त राष्ट्र में क्यों उठाया गया कश्मीर का मसला?
1947-48 में जब जम्मू-कश्मीर पर कबायलियों ने हमला किया और बाद में यह युद्ध भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध में बदल गया, तो पंडित नेहरू ने चाहा कि वे इस मसले को संयुक्त राष्ट्र में लेकर जाएं और पाकिस्तान को बेनकाब करें. उन्होंने एक बार यह कहा था -‘Kashmir’s accession is final. The only thing left is to ratify the will of the people.’ पंडित नेहरू के इन शब्दों से यह स्पष्ट है कि वे कश्मीर का भारत में विलय तो अंतिम रूप में चाहते ही थे, लेकिन उनका तरीका थोड़ा अलग था, वे सैन्य कार्रवाई की बजाय कूटनीतिक प्रयासों के समर्थक थे. कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में उठाया जाए, सरदार पटेल इस बात के सख्त खिलाफ थे. वे यह कहते थे कि कश्मीर भारत का आंतरिक मसला है और इस मसले को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने की जरूरत नहीं है. वे किताब में इस बात का जिक्र भी है कि कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में उठाने की जानकारी भी सरदार पटेल को देर से दी गई थी और वे इससे नाखुश भी थे. पंडित नेहरू का कश्मीर को लेकर साॅफ्ट कार्नर था. वे मूलत: कश्मीर के रहने वाले थे, इसलिए वे कश्मीर के मसले को दिल से देखते थे. सरदार पटेल ने लार्ड माउंटबेटन के सामने ही कश्मीर के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय विषय मानने से इनकार किया था और कहा था कि इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाना रणनीतिक भूल होगी. उन्होंने कहा था -If Hyderabad is our internal matter, so is Kashmir.’ यानी अगर हैदराबाद हमारा आंतरिक मसला है,तो कश्मीर भी है. लेकिन पंडित नेहरू ने सरदार पटेल की नहीं सुनी और 1 जनवरी 1948 को कश्मीर का मसला भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र में उठाया गया.
1948 में सीजफायर के बाद भी कश्मीर के कुछ हिस्सों से क्यों नहीं हटा पाकिस्तान
भारत ने जब कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में उठाया, तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने 13 अगस्त 1948 और 5 जनवरी 1949 को प्रस्ताव पास किए, जिनमें कहा गया कि पाकिस्तान सभी कबायली लड़ाकों और अपनी सेना को कश्मीर से पूरी तरह हटाए. भारत भी अपनी सेना की मौजूदगी कम करे और कश्मीर में जनमत संग्रह कराया जाए. लेकिन पाकिस्तान ने अपनी सेना नहीं हटाई, जिसकी वजह से भारत ने भी अपनी सेना नहीं हटाई और जनमत संग्रह कभी नहीं हो पाया. आजादी के वक्त भारत की सेना और पाकिस्तान की सेना का नेतृत्व ब्रिटिश जनरल कर रहे थे. भारतीय सेना के अधिकारी सर रॉय बुचर थे, जबकि पाकिस्तान में जनरल ग्रेस्सी थे. सर रॉय बुचर ने भारतीय सेना को पूरी तरह आगे बढ़ने और कश्मीर के उन इलाकों पर पुनः कब्जा लेने से रोका, जिसपर पाकिस्तानी सेना ने युद्ध के दौरान कब्जा कर लिया था. जनरल बुचर का कहना था कि इससे युद्ध और बड़ा हो सकता है. परिणाम यह हुआ कि कश्मीर के उन हिस्सों पर पाकिस्तान को कब्जा मिल गया और सीजफायर होने की वजह से भारतीय सेना ने कार्रवाई नहीं की. पंडित नेहरू संयुक्त राष्ट्र और ब्रिटिश अधिकारियों के दबाव में था और इस तरह कश्मीर का मसला पूरी तरह हल नहीं पाया.
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Shibu Soren : बात साल 2000 की है. बिहार तब अविभाजित था. झारखंड अलग राज्य निर्माण के लिए लड़ाई चल रही थी. झारखंड मुक्ति मोर्चा इसकी अगुआई कर रहा था. बिहार में राजद की सरकार थी और राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं. उसी साल के शुरू में बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ. 13 राजनीतिक पार्टियों ने बिहार विधानसभा की कुल 324 में से 304 सीटें जीती थीं. 20 सीटों पर निर्दलीय निर्वाचित हुए थे. लालू प्रसाद की अगुआई वाली पार्टी राजद को सबसे अधिक 123 सीटें मिली थीं. सरकार बनाने के लिए 163 विधायकों का समर्थन चाहिए था. कांग्रेस, बसपा, माकपा और केएसपी के समर्थन के बाद भी राजद गठबंधन के विधायकों की संख्या 156 ही हो रही थी. सरकार बनाने के लिए और सात विधायकों का समर्थन चाहिए था. दूसरी ओर भाजपा, समता पार्टी और जनता दल यूनाईटेड के राजग गठबंधन को 122 सीटें मिली थीं. उसे सरकार बनाने के लिए 41 और विधायकों का समर्थन चाहिए था. भाकपा, माले और मासस के 12 विधायक थे, मगर इन दलों ने दोनों गठबंधन से इतर तीसरे मोर्चे के निर्माण के लिए संघर्ष जारी रखने का एलान कर दिया था. एक निर्दलीय विधायक ने भी तटस्थ रहने का फैसला सुना दिया था.
उधर, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ की यात्रा बीच में छोड़ कर दिल्ली लौट गये थे और 27 फरवरी को उनके आवास पर राजग गठबंधन के नेताओं की तीन घंटे तक बैठक चली. नीतीश कुमार को राजग का नेता चुन लिया गया. तय हुआ कि अगले दिन, 28 फरवरी को नीतीश कुमार दिल्ली से पटना पहुंचेंगे और राज्यपाल विनोद चंद्र पांडेय से मिल कर सरकार बनाने का दावा पेश करेंगे. सरकार बनाने के लिए 41 और विधायक कहां से आयेंगे, राजग में इसे लेकर माथापच्ची करने में लगा था.
दूसरी ओर, 27 फरवरी की ही रात मुख्यमंत्री आवास, पटना में राजद गठबंधन ने राबड़ी देवी को विधायक दल का नेता चुन लिया और उसने भी अगले ही दिन, 28 फरवरी को राज्यपाल से मिल कर सरकार बनाने का दावा पेश करने का फैसला कर लिया, मगर सरकार बनाने के लिए बहुमत का आंकड़ा न तो राजग के पास था, न राजद के पास.
ऐसे में राजद और राजग, दोनों की नजर बाकी निर्दलीय और झामुमो विधायकों पर थी. उस चुनाव में झामुमो के 12 उम्मीदवार जीते थे. पार्टी के अध्यक्ष शिबू सोरेन किंग मेकर की भूमिका में थे. सब की नजर उन पर थी. इधर, शिबू सोरेन अचानक पटना से निकल पर 27 फरवरी की रात दुमका आ गये.
गुरुजी शिबू सोरेन को अलग राज्य से कम कुछ नहीं चाहिए था
मैं दुमका में प्रभात खबर का ब्यूरो चीफ था. मुझे सूचना हुई और मैं उस सर्द रात में दुमका शहर के खिजुरिया मुहल्ला स्थित उनके आवास पहुंचा. बाकी पत्रकारों को उनके अचानक दुमका पहुंचने की या तो भनक नहीं थी या फिर उनसे मिलने की उन्होंने जरूरत नहीं समझी. गुरुजी यानी शिबू सोरेन ने तब पहली बार बिहार का मुख्यमंत्री बनने की इच्छा व्यक्त की थी. कहा, जो ‘मंझिया’ (खुद के विषय में) को मुख्यमंत्री बनायेगा, उस को समर्थन देंगे. उनका यह बयान बिल्कुल अप्रत्याशित था. उनसे इस पर मेरी लंबी बातचीत हुई. प्रदेश के सियासी हालात को लेकर उस रात गुरुजी बेहद सख्त थे. उन्होंने कहा, ‘सीएम कुर्सी के अलावा कोई भी मुद्दा मेरे लिए मतलब नहीं रखता है. हमें न तो ‘जैक’ (झारखंड एरिया ऑटॉनमस काउंसिल) चाहिए, न ही सड़क, हमें बस अलग राज्य चाहिए और जब तक अलग राज्य नहीं बनता है, तब तक के लिए मुझे मुख्यमंत्री (बिहार के मुख्यमंत्री) की कुर्सी मिलनी चाहिए. ’
आदिवासी मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता, गुरुजी ने कहा था
बिहार विधानसभा की 12 सीटों पर सफलता और त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में झामुमो की अत्यधिक राजनीतिक भूमिका के कारण गुरुजी काफी आत्मविश्वास में नजर आ रहे थे. उन्होंने बार-बार यही दोहराया, ‘दूध का जला मट्ठा फूंक-फूंक कर पीता है. हमें सभी दलों ने लगातार छला है. हमारे साथ हर बार विश्वासघात किया गया. अब हमें किसी पर भरोसा नहीं रहा. अब अगर कोई दूसरा आदमी मुख्यमंत्री बनता है, तो अलग राज्य की प्रक्रिया लटका दी जायेगी. इसलिए हम खुद ही मुख्यमंत्री बनकर अलग राज्य की प्रक्रिया को आसान बनाना चाहते हैं. सब हमको मांझी (आदिवासी) समझ कर ठगना चाहते हैं. हम और ठगे जाने के लिए तैयार नहीं हैं. सभी जाति के लोग मुख्यमंत्री की कुर्सी पा चुके हैं, तो फिर एक आदिवासी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर क्यों नहीं बैठ सकता? हम बिहार को 70 प्रतिशत रॉयल्टी देते हैं. लालू प्रसाद बताएं कि वह कितनी रॉयल्टी देते हैं? जब 30 प्रतिशत रॉयल्टी देकर दूसरे लोग और लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तो 70 फीसदी रॉयल्टी देने वाले को क्यों मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता? अगर राजग हमारा प्रस्ताव मान ले, तो उसे भी समर्थन देने में हमें कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि झारखंड में सांप्रदायिकता कोई मुद्दा नहीं है. भाजपा वाले भी आदमी हैं और हम किसी को अछूत नहीं मानते हैं.’
1980 में पहली बार दुमका से लोकसभा सांसद निर्वाचित
बहरहाल, गुरुजी 1980 में पहली बार दुमका से लोकसभा सांसद निर्वाचित हुए थे. उन्होंने कांग्रेस के तत्कालीन सांसद पृथ्वीचंद किस्कू को हराया था. यहीं से उनकी संसदीय यात्रा आरंभ हुई और 1980 से 2014 तक, 2002 के उपचुनाव सहित, वे आठ बार दुमका के सांसद रहे। 1984 में कांग्रेस लहर में लोकसभा चुनाव हार गये, तो 1985 में दुमका जिले के जामा विधानसभा सीट से चुनाव लड़े और बिहार विधानसभा के लिए एक बार विधायक बने। वे 2004 में मनमोहन सिंह सरकार में केंद्रीय कोयला मंत्री बने, लेकिन चिरूडीह कांड में जब उन्हें गिरफ्तारी का वारंट जारी होने पर केंद्रीय मंत्रीमंडल से 24 जुलाई, 2004 को इस्तीफा दिया, तब उन्होंने दुमका केंद्रीय जेल में समय बिताया था. दुमका गुरुजी की राजनीतिक कर्मभूमि थी और यहां से उनका गहरा लगाव रहा. वे जब भी दुमका आते, एक राजनीतिक उत्सव का माहौल होता. उनके निधन से दुमका आज उदास है.
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शिबू सोरेन ने अलग राज्य से पहले कराया था स्वायत्तशासी परिषद का गठन और 2008 में परिसीमन को रुकवाया
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संताल आदिवासी थे शिबू सोरेन
दिशोम गुरु शिबू सोरेन संताल आदिवासी थे. आदिवासी यानी देश के सबसे पुराने वासी. संताल आदिवासी झारखंड के आदिवासियों में जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़ी जनजाति है. संताल आदिवासी ऑस्ट्रो-एशियाई भाषा परिवार की मुंडा शाखा से संबंधित हैं और संताली भाषा बोलते हैं. संताल आदिवासी झारखंड के अलावा, बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा और त्रिपुरा में भी निवास करते हैं.
संताल आदिवासी प्रकृति पूजक हैं और मरांग बुरू उनके सर्वोच्च देवता
संताल आदिवासी भी अन्य आदिवासियों की तरह प्रकृति पूजक हैं. ये मरांग बुरू को अपना सर्वोच्च देवता मानकर उसकी पूजा करते हैं. संताल आदिवासी यह मानते हैं कि मरांग बुरू ने ही इस सृष्टि की रचना की है और वही इसके पालनकर्ता हैं. मरांग बुरू को नदी, पहाड़ों और जंगलों के रूप में पूजा जाता है. संताल आदिवासी जाहेर थान में अपनी पूजा करते हैं, जो उनके लिए एक पवित्र स्थल होता है और पूजा सामूहिक तौर पर की जाती है. संतालों के धर्मगुरु सोमाई किस्कू बताते हैं कि मरांग बुरू हमारे सर्वोच्च देवता हैं हम उनकी सर्वोच्चता में विश्वास करते हैं, उनके अलावा भी हमारे कुछ देवता और देवी हैं, जिनकी पूजा होती है. संताली भाषा की असिस्टेंट प्रोफेसर डाॅ दुमनी माई मुर्मू बताती हैं कि मरांग बुरू हमारे सर्वोच्च देवता है. संताली जाहेर थान में जाहेर आयो की पूजा भी करते हैं, जो देवी का स्वरूप हैं. जाहेर थान में पत्थर और सखुआ का पेड़ होता है और उसकी पूजा की जाती है.
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संताल आदिवासियों में अंतिम संस्कार की विधि
संताल आदिवासियों में अंतिम संस्कार के रूप में ज्यादातर जलाने की परंपरा मौजूद है, लेकिन स्थान विशेष और परिस्थिति विशेष में दफनाने की परंपरा भी है. जैसे कि अगर किसी बच्चे की मौत हो, किसी गर्भवती स्त्री की मौत हो तो उसे दफनाया जाता है. इसी वजह से गुरुजी शिबू सोरेन के पार्थिव शरीर को जलाया जा रहा है. उनका पुत्र उन्हें अग्नि प्रदान करेगा. धर्मगुरु सोमाई किस्कू बताते हैं कि हमारे यहां ज्यादातर जलाने की परंपरा है. बड़ा बेटा आग देता है, लेकिन गुरुजी का बड़ा बेटा तो जीवित है नहीं इसलिए हेमंत सोरेन या बसंत सोरेन में से कोई उन्हें अग्नि देगा. उसके बाद उनकी अस्थि नदी में प्रवाहित होगी. शुद्धता के लिए तेल नहान की परंपरा होती है और उसके बाद श्राद्धकर्म होता है.डाॅ दुमनी माई मुर्मू बताती हैं कि हमारे यहां जब किसी प्रसिद्ध व्यक्ति की मौत होती है तो गाजे-बाजे का प्रयोग शवयात्रा में होता है. शव को जलाया जाता है या तो उसे दफनाया जाता है. उसके बाद शुद्धता के लिए तेल नहान की विधि होती है, जिसमें घर के स्त्री-पुरुष स्नान करते हैं और फिर ‘उम्बुल आदेर’ यानी आत्मा को घर बुलाने की विधि होती है. उसके बाद दशकर्म यानी भंडान होता है, जिसमें परिवार और गांव के लोगों के लिए भोज की व्यवस्था होती है.
प्रबुद्ध संताली रजनी मुर्मू बताती हैं कि हमारे समाज में अंतिम संस्कार को लेकर कोई कठोर नियम नहीं हैं. घर से शव को निकाल दिये जाने के बाद घर और परिवार की महिलाएं नदी पर स्नान के लिए जाती हैं, उसी तरह पुरुष अंतिम संस्कार के बाद स्नान करते हैं और घर में शुद्धिकरण होता है. उसके बाद सबकुछ शुद्ध मान लिया जाता है. अंतिम संस्कार में भी बाध्यता नहीं है कि आपको जलाना है या दफनाना है आपकी मर्जी पर है. हां, ज्यादातर लोग शव को जलाते हैं, जहां तक श्राद्धकर्म की बात है, तो वो परिवार के पास जब संसाधन होगा सामूहिक भोज का आयोजन करते हैं, इसमें कोई टाइम लिमिट नहीं है, लेकिन जल्दी करना लोग चाहते हैं.
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[post_title] => संताल आदिवासी थे शिबू सोरेन, समाज मरांग बुरू को मानता है अपना सर्वोच्च देवता [post_excerpt] => Shibu Soren Religion : शिबू सोरेन संताल आदिवासी थे, जो झारखंड की सबसे बड़ी आबादी वाली जनजाति है. संताल आदिवासी भी बाकी आदिवासियों की तरह प्रकृति पूजक होते हैं और मरांग बुरू को अपना सर्वोच्च देवता मानते हैं, इनके यहां अंतिम संस्कार के नियम बहुत ही सादगी के साथ किए जाते हैं, कोई आडबंर नहीं होता है. जहां तक गुरुजी की बात है, तो वे एक बेहद ही सहज-सरल व्यक्ति थे और उन्होंने आदिवासियों के जीवन की सबसे बड़ी खूबी सामूहिकता यानी पूरे समाज के बारे में विचार करना इसे अपनाया और आजीवन वे पूरे समाज के लिए संघर्ष करते रहे. [post_status] => publish [comment_status] => closed [ping_status] => closed [post_password] => [post_name] => shibu-soren-religion-was-santal-tribal-society-considers-marang-buru-as-supreme-god [to_ping] => [pinged] => [post_modified] => 2025-08-05 14:49:46 [post_modified_gmt] => 2025-08-05 09:19:46 [post_content_filtered] => [post_parent] => 0 [guid] => https://www.prabhatkhabar.com/?p=3645981 [menu_order] => 0 [post_type] => post [post_mime_type] => [comment_count] => 0 [filter] => raw [filter_widget] => newsnap ) [2] => WP_Post Object ( [ID] => 3643518 [post_author] => 3143 [post_date] => 2025-08-04 13:04:36 [post_date_gmt] => 2025-08-04 07:34:36 [post_content] =>Shibu Soren : शिबू सोरेन ने झारखंड अलग राज्य के लिए बड़ा आंदोलन चलाया और आदिवासियों को अपने हक और अधिकारों के लिए जागरूक किया. उन्होंने ना सिर्फ आदिवासियों के हक के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि वे हर झारखंडी का हित चाहते थे. इसी वजह से वे ना सिर्फ आदिवासियों के बल्कि गैर आदिवासियों के भी सर्वमान्य नेता बने.
1995 में हुआ था झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद का गठन
झारखंड अलग राज्य की मांग जब बहुत तेज हो गई तो केंद्र सरकार और बिहार सरकार ने झारखंड के लोगों की मांग का सम्मान करते हुए एक राजनीतिक समझौते और प्रशासनिक समाधान के रूप में झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद का गठन किया, ताकि झारखंड के लोगों को आत्मनिर्णय अधिकार मिले और उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा किया जा सके.झारखंड के आदिवासी यह चाहते थे कि उनके संसाधनों का उपयोग उनके हित में हो और उनकी संस्कृति की रक्षा हो, इसके लिए वे अपने तरीके से निर्णय ले पाएं, इसके लिए अलग राज्य की जरूरत थी, लेकिन बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री राज्य लालू यादव इसके लिए तैयार नहीं थे, लेकिन गुरुजी के काफी संघर्ष के बाद 1995 में झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद का गठन हुआ, जो राज्य निर्माण के क्षेत्र में एक बड़ा कदम था. यह पहली बार था जब झारखंड के लोगों को उनकी प्रशासनिक व्यवस्था में अधिकार और भागीदारी दी गई थी.
स्वायत्तशासी परिषद के गठन के लिए रातभर बैठक चली थी : रतन तिर्की
झारखंड आंदोलन की लड़ाई में सक्रिय योगदान देने वाले रतन तिर्की बताते हैं कि स्वायत्तशासी परिषद के गठन के लिए रात भर बैठक चली थी. यह बैठक कांग्रेस नेता राजेश पायलट के घर में 1993 में बैठक हुई थी. यह बैठक रातभर चली थी, इसमें शिबू सोरेन, साइमन मरांडी, प्रभाकर तिर्की, लालू यादव, रामदयाल मुंडा, स्टीफन मरांडी, सुधीर महतो,सूरज मंडल, प्रभाकर तिर्की, रतन तिर्की,अल्फ्रेड एक्का,सूर्य सिंह बेसरा, संजय बसु मल्लिक, देवशरण भगत, विनोद भगत,जोय बाखला, राजेंद्र मेहता एवं अन्य लोग उपस्थित थे. और मैं भी बैठक में शामिल था और परिषद के गठन के दस्तावेज पर साइन किया था. यह शिबू सोरेन के जीवन की ऐतिहासिक उपलब्धि थी, क्योंकि इस परिषद के गठन के बाद ही राज्य गठन का रास्ता खुला. लालू यादव स्वशासी परिषद देना नहीं चाहते थे, वे चाहते थे कि झारखंड क्षेत्र विकास परिषद का गठन हो.
2008 में परिसीमन का विरोध किया
शिबू सोरेन ने 2008 में झारखंड में परिसीमन का विरोध किया था और उन्होंने कहा था कि परिसीमन से झारखंड के आदिवासियों की राजनीतिक ताकत कमजोर हो जाएगी. उनके मुखर विरोध की वजह से ही 2008 में झारखंड में परिसीमन नहीं हुआ, जबकि देश भर में परिसीमन हुआ. रतन तिर्की बताते हैं कि परिसीमन का विरोध और उसके बाद परिसीमन का ना होना गुरुजी के आंदोलन की बड़ी उपलब्धि है. 2007 में परिसीमन के आंदोलन में गुरुजी शिबू सोरेन की अगुवाई में दो महीने तक दिल्ली में आंदोलन किया गया. जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन और संसद मार्च भी किया गया. उस वक्त यूपीए सरकार की अध्यक्ष सोनिया गांधी, कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज, आदिवासी मामलों के मंत्री और गृहमंत्री प्रणब मुखर्जी सबसे मुलाकात करके झारखंड को परीसीमन से मुक्त रखने का आग्रह किया किया और आंदोलन का असर ऐसा हुआ कि केंद्र सरकार ने वर्ष 2026 तक झारखंड को परीसीमन से मुक्त रखने का निर्णय किया.
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गुरुजी के कद का दूसरा नेता झारखंड में नहीं है : प्रकाश टेकरीवाल
गुरुजी शिबू सोरेन के करीबी मित्र प्रकाश टेकरीवाल का कहना है कि उनके जाने से झारखंड की राजनीति को बड़ा नुकसान हुआ है, क्योंकि उनके कद का कोई दूसरा नेता यहां नहीं है. वे बहुत ही आत्मीय व्यक्ति थे. मैं जब भी उनसे मिलता था, वे मेरा हाथ पकड़कर ही मुझसे बात करते थे. वे बहुत प्रेम से मिलते थे. मैं उनसे मिलने दिल्ली गया था, लेकिन वे काफी बीमार थे. हेमंत सोरेन से मुलाकात हुई थी. जो लोग ये कहते हैं कि वे सिर्फ आदिवासियों की सोचते थे, वे बहुत गलत हैं, क्योंकि गुरुजी हर झारखंडवासी को अपना मानते थे, फिर चाहे वो आदिवासी हो या गैर आदिवासी.
झारखंड की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है: प्रभाकर तिर्की
झारखंड आंदोलन में गुरुजी के करीबी सहयोगी रहे प्रभाकर तिर्की कहते हैं कि गुरुजी का जाना एक बड़े शून्य को जन्म देता है. शिबू सोरेन का व्यक्तित्व कैसा था यह उनका काम बताता है. उन्होंने महाजनी का विरोध करके आदिवासियों में जागरूकता लाई. यही आगे जाकर राजनीतिक आंदोलन बना. झारखंड का जो आंदोलन था, उसे धक्का लगा है. एक बड़ा नुकसान हुआ है. यहां के लोगों के लिए भी यह बड़ी क्षति है. मैं उनके साथ लंबे तक रहा, चाहें क्षेत्र में जाना हो, मीटिंग हो, दिल्ली जाना हो मैं उनके साथ रहा. जेएमएम की नीतियों को बनाने में हम साथ थे. शिबू सोरेन जेएमएम की जड़ थे, उनके जैसा कोई दूसरा नेता नहीं है. यह बड़ी क्षति है, जो पार्टी के लिए बड़ी चुनौती है. शिबू सोरेन ने अपना पूरा जीवन आंदोलन को दिया, राजनीति तो बाद की चीज है. वे हमारे लिए मील का पत्थर थे, उनके आदर्श को हमेशा याद करेंगे. शिबू सोरेन हर किसी को साथ लेकर चलने वाले नेता थे, चाहे आदिवासी हो या गैर आदिवासी. उन्होंने पार्टी में सबको जगह दी. सूरज मंडल पहले गैर आदिवासी विधायक बने. अभी भी महुआ माजी सांसद हैं, तो यह उनकी खासियत थी.
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[post_title] => शिबू सोरेन ने अलग राज्य से पहले कराया था स्वायत्तशासी परिषद का गठन और 2008 में परिसीमन को रुकवाया [post_excerpt] => Shibu Soren : झारखंड के महानायक शिबू सोरेन की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए अगर हम झारखंड अलग राज्य बनने के संघर्ष में झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद के गठन की चर्चा ना करें, तो गलत होगा. गुरुजी शिबू सोरेन ने इस परिषद का गठन करवाकर झारखंड अलग राज्य के गठन का मार्ग प्रशस्त किया था और यह शिबू सोरेन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी. [post_status] => publish [comment_status] => closed [ping_status] => closed [post_password] => [post_name] => shibu-soren-role-in-formation-jharkhand-area-autonomous-council [to_ping] => [pinged] => [post_modified] => 2025-08-04 13:13:37 [post_modified_gmt] => 2025-08-04 07:43:37 [post_content_filtered] => [post_parent] => 0 [guid] => https://www.prabhatkhabar.com/?p=3643518 [menu_order] => 0 [post_type] => post [post_mime_type] => [comment_count] => 0 [filter] => raw [filter_widget] => newsnap ) [3] => WP_Post Object ( [ID] => 3641398 [post_author] => 3143 [post_date] => 2025-08-03 17:55:50 [post_date_gmt] => 2025-08-03 12:25:50 [post_content] =>Dictators and his Women : 20वीं सदी का सबसे चर्चित तानाशाह था हिटलर. अपने जीवनकाल में वह करोड़ों लोगों की मौत की वजह बना और 60 लाख यहूदियों की मौत का वह सीधे तौर पर जिम्मेदार था. उसने जर्मनी से लोकतंत्र को समाप्त किया और तानाशाह बना. उसने कई जघन्य अपराध किए,लेकिन सुकून के लिए उसे महिलाओं का साथ चाहिए था. हिटलर जिन महिलाओं के संपर्क में आया उनमें से अधिकांश से उसने बस मतलब की यारी की, उसे कुछ का पल सुकून चाहिए होता था, लेकिन इन लड़कियों ने जिनमें ईवा ब्राउन सबसे प्रमुख थी, उसने हिटलर से सच्चे दिल से प्यार किया और उसके लिए अपनी जान भी दे दी. हिटलर की इस बेरुखी की एक वजह भी थी कि वह यह साबित करना चाहता था कि उसका प्रेम सिर्फ और सिर्फ जर्मनी से है और वह सिर्फ जर्मनी को समर्पित है. हिटलर के जीवन में आने वाली महिलाएं तो कई हैं, लेकिन एक महिला ऐसी थी, जिसने हिटलर का साथ अंतिम पल तक दिया और साइनाइड की गोली खाकर जान दे दी थी.
ईवा ब्राउन से हिटलर ने मरने से पहले की थी शादी
ईवा ब्राउन एक ऐसी महिला थी, जिसने अपना पूरा जीवन हिटलर के प्यार में कुर्बान कर दिया और संभवत: वह एक जुनूनी महिला थी, जिसे हिटलर की पत्नी कहलाने का शौक था. हेइक बी गोर्टेमेकर एक जर्मन इतिहासकार हैं उन्होंने अपनी किताब Eva Braun: Life with Hitler में लिखा है कि ईवा ब्राउन केवल हिटलर की छाया में रहने वाली महिला नहीं थीं,बल्कि उन्होंने नाजी शासन के भीतर एक भूमिका निभाई थी. ईवा ब्राउन का पूरा नाम ईवा अन्ना पाउला ब्राउन था उसका जन्म 1912 में हुआ था और मात्र 33 वर्ष की उम्र में उसने हिटलर के साथ मौत को गले लगा दिया था. ईवा ब्राउन ने 30 अप्रैल 1945 को मौत से एक दिन पहले यानी 29 अप्रैल को हिटलर से शादी की थी. वह लगभग 13 साल तक हिटलर के साथ प्रेमसंबंध में रही, लेकिन उसके साथ अपने रिश्ते को हिटलर ने छुपाकर रखा. सार्वजनिक जीवन में वह बहुत कम दिखाई देती थीं और राजनीति से तो उनका कोई लेना-देना ही नहीं था. ईवा पेशे से शुरुआत में एक फोटोग्राफर की सहायक थी बाद में वह हिटलर की निजी फोटोग्राफर और संगिनी बनी.
ईवा ब्राउन ने हिटलर से जो प्यार चाहा वो उसे नहीं मिला
हेइक बी गोर्टेमेकर ने अपनी किताब में लिखा है कि -Hitler saw Eva not as a partner, but as a part of his private sphere — someone who brought calm, not challenge.’ इसका अर्थ है कि हिटलर ने ईवा को कभी एक ‘साथी’ के रूप में नहीं देखा, बल्कि केवल अपने निजी जीवन का एक हिस्सा माना जो उसे शांति देती थी, चुनौती नहीं. इससे यह साफ जाहिर है कि ईवा का प्रेम तो गहरा था, पर हिटलर के लिए वह सिर्फ जरूरत थी. वह उसे अपने जीवन से दूर रखता था, जिसकी वजह से उसने दो बार आत्महत्या की कोशिश भी की थी. इसकी वजह उसका अकेलापन और हिटलर की उपेक्षा थी. हिटलर और ईवा में उम्र में 23 साल का अंतर था, लेकिन वह उसे शिद्दत से चाहती थी. 1945 में जब रूस ने जर्मनी पर कब्जा किया, उस वक्त उसने बंकर में उससे शादी की और उसके साथ ही आत्महत्या कर लिया. ईवा ने साइनाइड खाया, जबकि हिटलर ने खुद को गोली मारी थी.
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हिटलर के जीवन की कुछ और औरतें
एचएफ इलिंग की किताब - The Women in Hitler's Life में बताया गया है कि हिटलर के जीवन में कई महिलाएं थीं, जिनसे उसका संबंध प्रेम का कम अधीनता का ज्यादा था. वह सुकून और शांति के लिए महिलाओं से संबंध बनाता तो था, लेकिन वह संबंध बराबरी का नहीं होता था, वह महिलाओं को अपने अधीन रखना चाहता था. उसके अधिकतर संबंध बहुत ही विवादास्पद रहे, कुछ महिलाओं ने तो आत्महत्या तक ली थी. ऐसा ही एक नाम है गेली राउबल का. गेली हिटलर की सौतेली भांजी थी. उससे हिटलर के विवादित संबंध थे, वह उसे अपनी प्रेमिका की तरह साथ रखता था, लेकिन वह अपने संबंध उजागर नहीं करता था. हिटलर ने उसपर अत्यधिक नियंत्रण और निगरानी कर रखा था, वह उसे किसी से मिलने नहीं देता था और बाहर भी जाने नहीं देता था. 1931 में गेली ने खुद को हिटलर की पिस्तौल से गोली मार ली थी, इससे हिटलर बुरी तरह टूट गया था. इसे लेखक इलिंग हिटलर के जीवन की बड़ी चोट मानते हैं. इसके अलावा मारिया रेइटर र यूनिटी मर्चिफोर्ड का नाम भी हिटलर की पसंदीदा महिलाओं की लिस्ट में शामिल है.
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