समुद्र पर मंडराता प्लास्टिक कचरे का खतरा

प्लास्टिक के छोटे-छोटे छर्रे अब गंभीर पर्यावरणीय संकट पैदा कर रहे हैं. ये छर्रे विषैले तो नहीं होते, पर इनसे उपजा प्रदूषण जहर से कम नहीं होता. इनके अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रभावों में आवासीय पर्यावरण का प्रदूषण, इनके माइक्रो और नैनो प्लास्टिक में टूटना और खाद्य शृंखला में प्रवेश करना शामिल है.

By पंकज चतुर्वेदी | June 13, 2025 11:05 AM
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बीते 26 मई को कोच्चि के पास जलमग्न हुए लाइबेरिया के जहाज से फिलहाल तेल के फैलाव और उसमें भरे रसायनों से संभावित प्रदूषण का खतरा तो सामने नहीं आया है, लेकिन जहाज में लदे कुछ कंटेनर के टूटने के बाद उसमें भरे अनगिनत प्लास्टिक को छोटी-छोटी गेंद के आकार के छर्रों का, जिन्हें नर्डल्स भी कहा जाता है, फैलाव अब कन्याकुमारी तक हो गया है और जो जल- जीवन के लिए बड़ा संकट बन गया है. छोटे और हल्के होने के कारण नर्डल पानी पर तैरते हैं और समुद्री धाराओं, नालों और नदियों द्वारा दूर-दूर तक ले जाये जाते हैं. इस बार मानसून के पहले आने और अरब सागर में बड़ी लहरों व छोटे चक्रवात के चलते प्लास्टिक के ये छर्रे दूर तक फैल गए हैं. समुद्री कंटेनरों में भरे सामान को सुरक्षित रखने के लिए इस तरह के छर्रे भरे जाते हैं. तमिलनाडु में कन्याकुमारी जिले के 42 तटीय गांवों में से 36 के समुद्र तटों पर इन प्लास्टिक कचरों का ढेर है. प्लास्टिक के ये टुकड़े कन्याकुमारी शहर के निकट मणाकुड़ी नामक तटीय गांव तक पहुंच चुके हैं. इस बात की भी पुष्टि हो चुकी है कि बीते दिनों कोंकलेच के वानियाकुड़ी तट के पास समुद्र में बह आये कंटेनर के टूटने से ये छर्रे बहे हैं. कन्याकुमारी के कलेक्टर के मुताबिक अभी तक 858 बैग नर्डल्स के एकत्रित किये गये हैं, जिनमें से प्रत्येक का वजन लगभग 25 किलोग्राम है. फिलहाल इस प्लास्टिक कचरे को बंदरगाहों में रखा गया है. इससे पहले केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के तीन समुद्री तटों-कोचकहू वेली, थुंबा और वेट्टुकाड पर इनका प्रकोप दिख चुका है. कॉलम और अलापुजा के कई तटीय गांवों में भी प्लास्टिक कचरा है और आम लोग स्वयंसेवक के रूप में इनकी सफाई कर रहे हैं.

प्लास्टिक के छोटे-छोटे छर्रे अब गंभीर पर्यावरणीय संकट पैदा कर रहे हैं. ये छर्रे विषैले तो नहीं होते, पर इनसे उपजा प्रदूषण जहर से कम नहीं होता. इनके अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रभावों में आवासीय पर्यावरण का प्रदूषण, इनके माइक्रो और नैनो प्लास्टिक में टूटना और खाद्य शृंखला में प्रवेश करना शामिल है. जो प्लास्टिक कण समुद्र में ही रह गये, उनके दुष्प्रभावों से निजात पाने का कोई तरीका नहीं हैं. समुद्र रातों-रात ठीक नहीं होता. मैंग्रोव, प्रवाल भित्तियां और कीचड़ वाले तट जैसे तटीय पारिस्थितिकी तंत्र विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं. प्लास्टिक के कण इनकी जड़ों को ढक सकता है और ऑक्सीजन के आदान-प्रदान को रोक सकता है, जिसे पारिस्थितिकविद ‘पारिस्थितिक मृत क्षेत्र’ कहते हैं-ऐसे क्षेत्र जहां जीवन वापस आने के लिए संघर्ष करता है. व्हेल, मछलियां और कछुए प्लास्टिक के कचरे को अपना शिकार समझकर खा लेते हैं पेट में प्लास्टिक भरे होने की वजह से वे अंदरूनी चोटों का शिकार होते हैं तथा उनके तैरने की क्षमता कम हो जाती है. प्लास्टिक का कचरा छोटे-छोटे हिस्सों में टूट जाता है, जो माइक्रोप्लास्टिक कहलाता है और यह इतना महीन होता है कि हम इसे देख भी नहीं पाते. यह माइक्रोप्लास्टिक जलीय जीवों के अंदर जाता है और फिर उनके जरिये यह हमारी फूड चैन का हिस्सा बन जाता है. हाल में श्रीलंका को छूती हिंद महासागर की सीमा पर प्लास्टिक नर्डल्स का आतंक देखा जा चुका है. इस खतरे को देखते हुए केरल और तमिलनाडु सरकार ने आसपास के इलाकों में मछली पालन पर रोक लगा दी है. फिलहाल भारत के दक्षिणी समुद्री तट पर मंडरा रहा यह संकट पर्यावरण के साथ-साथ लाखों लोगों की रोजी-रोटी से भी जुड़ा है. केरल में मत्स्य पालन क्षेत्र राज्य की कुल आबादी के लगभग 2.98 फीसदी को आजीविका प्रदान करता है. इसमें से 77 प्रतिशत समुद्री क्षेत्र में आठ लाख मछुआरे मछली पकड़ते हैं. राज्य में मछली उत्पादों की वार्षिक घरेलू बिक्री लगभग 600 करोड़ रुपये होने का अनुमान है. प्लास्टिक कचरे की बरामदगी के बाद उस इलाके से पकड़ी गयी मछलियों के खरीदार नहीं मिल रहे. ऐसे में, पहले से गिरावट का शिकार मछली पालन उद्योग घुटनों पर आ जायेगा. वर्ष 2022-23 में केरल में कुल समुद्री उत्पादन 6.90 लाख टन था, जो 2023-24 में घटकर 5.8 लाख टन रह गया. इसके बावजूद केरल अब भी समुद्री मछली पकड़ने में देश में दूसरे स्थान पर है. यह मछली प्रजनन का चरम काल है और इस समय प्लास्टिक का प्रदूषण इस पर बुरा असर डालता है.

नर्डल्स दाने मुख्य रूप से पॉलीथीन, पॉलीप्रोपाइलीन, पॉलीस्टाइनिन और पॉलीविनाइल क्लोराइड जैसे विभिन्न पॉलिमर से निर्मित होते हैं. बुनियादी पॉलिमर के अलावा नर्डल्स में हानिकारक रसायनों का एक मिश्रण होता है, जिनमें थैलेट्स, बिस्फेनॉल ए (बीपीए), लौ रिटार्डेंट, ऑर्गेनोटिन, भारी धातुएं और पीएफएएस शामिल हो सकते हैं. ये ‘गायब नहीं होते’ और इनके टूटने में 100 से 1,000 साल लगते हैं. सारी दुनिया के समुद्र इसके कारण हैरान-परेशान हैं. इसके बावजूद प्लास्टिक हर्डल्स को अब भी अंतरराष्ट्रीय समुद्री संगठन द्वारा खतरनाक सामग्री के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है. केरल के तट पर हुई इस दुर्घटना के बाद समय आ गया है कि भारत विश्व समुदाय के सामने समुद्री जहाज में इस जहरीले नर्डल्स के परिवहन पर रोक और इसके विकल्प के बारे में आवाज उठाये.

नर्डल्स दाने मुख्य रूप से पॉलीथीन, पॉलीप्रोपाइलीन, पॉलीस्टाइनिन और पॉलीविनाइल क्लोराइड जैसे विभिन्न पॉलिमर से निर्मित होते हैं. बुनियादी पॉलिमर के अलावा नर्डल्स में हानिकारक रसायनों का एक मिश्रण होता है, जिनमें थैलेट्स, बिस्फेनॉल ए (बीपीए), लौ रिटार्डेंट, ऑर्गेनोटिन, भारी धातुएं और पीएफएएस शामिल हो सकते हैं. ये ‘गायब नहीं होते’ और इनके टूटने में 100 से 1,000 साल लगते हैं. सारी दुनिया के समुद्र इसके कारण हैरान-परेशान हैं. इसके बावजूद प्लास्टिक हर्डल्स को अब भी अंतरराष्ट्रीय समुद्री संगठन द्वारा खतरनाक सामग्री के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है. केरल के तट पर हुई इस दुर्घटना के बाद समय आ गया है कि भारत विश्व समुदाय के सामने समुद्री जहाज में इस जहरीले नर्डल्स के परिवहन पर रोक और इसके विकल्प के बारे में आवाज उठाये.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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