जय-जय जगन्नाथ… झारखंड में शुरू हुआ 333 साल पुराना मेला, मौसीबाड़ी की यात्रा करेंगे प्रभु

Rath Yatra 2025 : झारखंड के सर्वप्रमुख त्योहार रथयात्रा की शुरुआत हो चुकी है. अगले नौ दिनों तक भगवान जगन्नाथ मौसीबाड़ी यानी अपनी मौसी के घर में रहेंगे. इस दौरान वहीं उनकी पूजा-अर्चना होगी. झारखंड की राजधानी में बने जगन्नाथ मंदिर में इस अवसर पर नौ दिनों का रथमेला लगता है, जहां यहां की अनोखी संस्कृति के झलक देखने को मिलते हैं. जब आदिवासी, गैर आदिवासी और मूलवासी एक साथ भगवान जगन्नाथ की पूजा करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, इस मेले का इतिहास 333 साल पुराना है.

By Rajneesh Anand | June 26, 2025 11:24 PM
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Rath Yatra 2025 : झारखंड में सरहुल के बाद अगर किसी त्योहार की सबसे ज्यादा धूम रहती है तो वो है यहां की रथयात्रा. झारखंड की राजधानी रांची में रथमेला का इतिहास 333 साल पुराना है. नागवंशी राजा एनीनाथ शाहदेव ने 1691 में यहां भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी की तर्ज पर बनवाया था उसके एक साल बाद यानी 1692 से रथमेले की शुरुआत हुई. झारखंड की रथयात्रा देश में पुरी के बाद सबसे अनोखी और विशेष है.

नागवंशी राजाओं ने रथयात्रा की शुरुआत की थी

नागवंशी राजा ठाकुर एनीनाथ शाहदेव ने अपने सपने को आधार बनाकर जगन्नाथपुर गांव में भगवान जगन्नाथ का मंदिर बनवाया. चूंकि मंदिर के साथ ही रथयात्रा का इतिहास भी जुड़ा है, इसलिए यहां भी पुरी की तर्ज पर गुंडिचा मंदिर यानी मौसीबाड़ी बनाया गया. रथयात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ भाई बलभद्र और सुभद्रा के साथ सिंहासन पर विराजमान होकर अपनी मौसी के घर जाते हैं और नौ दिन वहां रहते हैं. इस अवसर पर झारखंड की राजधानी रांची में विशाल मेले का आयोजन होता है, जो 333 साल पुराना है. इस मेले की खासियत यह है कि यहां झारखंडी परंपरा के दर्शन होते हैं. पूरे झारखंड से आदिवासी और मूलवासी समाज के लोग इस मेले में आते हैं और झारखंडी विरासत को संजोकर रखने का एक तरह से संकल्प लेते हैं. चूंकि नागवंशी राजाओं का इतिहास मुंडा पड़हा राजा मदरा मुंडा से जुड़ा है, इसलिए इस मेले में आदिवासी संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखती है.

रथयात्रा में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व

नागवंशी राजाओं ने एक ओर जहां आदिवासियों को अपना बड़ा भाई मानकर मान सम्मान दिया, वहीं उन्होंने दूसरे समाज के लोगों को भी अपने राज्य में बसाया. यही वजह है कि उनके द्वारा शुरू कराए गए रथयात्रा में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व दिखता है. मुंडा, उरांव और महतो समाज के लोगों की भागीदारी रथयात्रा में स्पष्ट दिखती है. मुंडा समाज के लोग आज भी पूजा में अपनी भागीदारी देते हैं, उसी तरह महतो परिवार के जिम्मे भगवान के तीनों विग्रहों को मंदिर से निकालकर सिंहासन पर बैठाने की जिम्मेदारी है, जिसका निर्वहन वे आज भी करते हैं. मुसलमानों को भी एनीनाथ शाहदेव ने रथयात्रा के समय जिम्मेदारी सौंपी थी, जिसका निर्वहन वे करते थे.

भगवान जगन्नाथ को लगता है छिलका रोटी का भोग

रांची में भगवान जगन्नाथ की पूजा तो पुरी के तर्ज पर ही होती है, लेकिन यहां जो भोग लगाया जाता है, उसमें झारखंडी परंपरा की झलक मिलती है. सुबह भगवान को सूजी का हलवा, दोपहर में दाल, भात और मौसमी सब्जी और रात को छिलका रोटी का भोग लगाया जाता है. छिलका रोटी चावल से बनायी जाने वाली खास तरह की रोटी है, जिसका प्रयोग झारखंड के आदिवासी और मूलवासी अपने भोजन में करते हैं.

रथमेला में स्थानीय मिठाइयों और हथियारों की भी होती है खूब बिक्री

झारखंड की रथयात्रा में स्थानीय संस्कृति की झलक साफ दिखाई देती है. यहां के मेले में धुस्का, बालूशाही, गाजा और गुलगुला जैसे व्यंजन खास तौर पर बिकते हैं. इसके साथ ही यहां पारंपरिक वाद्ययंत्र बांसुरी, मांदर और ढोल भी मिलते हैं. साथ ही कई तरह के हथियार जैसे

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