Save Forest Movement: ‘साल’ के जंगल बचाने के लिए 18 आदिवासियों ने दी थी कुर्बानी

Save Forest Movement: हैदराबाद के कांचा गाजीबोवली, मुंबई के आरे कॉलोनी, छत्तीगढ़ के हसदेव जंगल की तरह ही 1982 में सिंहभूम जिले में भी 'साल' के जंगलों को बचाने के लिए आंदोलन किया गया था. इसमें आदिवासी और ग्रामीण शामिल थे. कई आंदोलनकारियों की इस विरोध प्रदर्शन के दौरान मौत भी हो गई थी. इस विरोध के बाद तत्कालीन सरकार को जंगल काटने का अपना फैसला वापस लेना पड़ा था.

By Amit Yadav | April 8, 2025 3:47 PM
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Save Forest Movement: झारखंड में शामिल सिंहभूम जिले के लोगों ने साल के जंगलों को बचाने के लिए 1978 से लेकर 1983 तक एक बड़ा आंदोलन किया था. उस समय बिहार से झारखंड अलग नहीं हुआ था. तत्कालीन सरकार ने कुदरती साल के जंगलों को काटकर सागौन लगाने की तैयारी शुरू की थी. इस पर आदिवासियों और ग्रामीणों ने वनों की कटाई के खिलाफ विरोध किया. सरकार के इस कदम को तब ‘सियासत का लालची खेल’ करार दिया गया था. सरकार की तत्कालीन सरकार ने 1978 में सिंहभूम में साल के जंगलों को काटकर यहां कीमती सागौन के जंगल लगाने की योजना बनाई थी. जब आदिवासियों को इसकी जानकारी हुई वो जंगल को बचाने के लिए एकजुट हो गए. उन्होंने जंगल काटने का विरोध शुरू किया, जो समय के साथ हिंसक हो गया था. कई जगह आंदोलनकारियों ने सागौन के पौधों की नर्सरी नष्ट कर दी थी.

पुलिस गोलीबारी में 18 की हुई थी मौत

इस आंदोलन को दबाने के लिए तत्कालीन सरकार ने पुलिस का सहयोग लिया था. जिससे मामला और बिगड़ गया. 6 नवंबर 1978 को पुलिस ने आंदोलनकारियों को रोकने के लिए इचाहातु गांव में गोली चलाई. इसके बाद 25 नवंबर 1978 को सेरेंगदा के साप्ताहिक बाजार में आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया गया. 8 दिसंबर 1980 को पुलिस ने एक बार फिर आंदोलनकारियों पर गोली चलाई थी. पुलिस की गोलीबारी और आंदोलन को कुचलने के प्रयास में 1983 तक चले विरोध प्रदर्शन के दौरान 18 आंदोलनकारी मारे गए थे. सैकड़ों घायल हुए थे. लगभग 15 हज़ार केस दर्ज किए गए थे. हजारों आंदोलनकारियों को चाईबासा और हाजीबाग जेल में कैदकर दिया गया था.

‘साल’ के पेड़ की पूजा करते हैं आदिवासी

आदिवासी साल के वृक्ष की पूजा करते हैं. वो इसे ‘सरहुल पूजा’ के रूप में मनाते हैं. सरहुल पर्व की कोई निश्चित तिथि नहीं है. ये नए साल की शुरुआत का त्योहार है. इसे चैत्र माह की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है. इस समय साल के पेड़ों पर फूल आने लगते हैं. ये पर्व खासतौर से झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के आदिवासी मनाते हैं. सरहुल पूजा के लिए साल के फूलों, फलों और महुआ के फलों को जायराथान या सरनास्थल पर लाया जाता है. वहां पाहन या लाया (पुजारी) और देउरी (सहायक पुजारी) जनजातियों के सभी देवताओं की पूजा करते हैं. यह ग्राम देवता, जंगल, पहाड़ तथा प्रकृति की पूजा है, जिसे जनजातियों का संरक्षक माना जाता है. देवताओं की साल, महुआ फलों और फूलों के साथ पूजा की जाती है. आदिवासी भाषाओं में साल (सखुआ) वृक्ष को ‘सारजोम’ कहा जाता है. ये त्योहार धरती माता को समर्पित है. इस दिन सूर्य और धरती का विवाह भी किया जाता है. आदिवासी व अन्य लोग साल के फूल को अपने कानों व सिर पर लगाते हैं. झारखंड के रांची सरहुल पर्व पर बड़ा जलूस निकलता है और सरना पूजा स्थल पर सभी इकठ्ठा होते हैं. यहां सरना स्थल की तीन बार परिक्रमा की जाती है.

वन अधिकार विधेयक से मिली राहत

जंगलों को बचाने के लिए आदिवासियों और सरकार के बीच इस हिंसक लड़ाई पर विरोध 2006 में लगा था. तत्कालीन यूपीए की केंद्र सरकार ने वन अधिकार विधेयक को लोकसभा में पारित किया. इसके बाद आदिवासियों को उनका हक वापस मिल पाया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए ने वन अधिकारी विधेयक को 1 जनवरी 2008 को इसका नोटिफिकेशन जारी किया. इसके बाद से जंगलों पर आश्रित आदिवासियों उनका अधिकार पूरी तरह से वापस मिला पाया था.

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