भावना शेखर
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बदलते जमाने के साथ-साथ जिंदगी के मायने बदलते जा रहे हैं. पुराने रिश्ते-नाते और मूल्य बदल गये हैं. पहले बहनें अपने भाइयों पर आश्रित हुआ करती थीं. पिता के नहीं रहने पर भाई से ही उनका मायका आबाद रहता था. भाई चाहे जिस स्थिति में रखे, उसे उसकी सत्ता को स्वीकारते हुए उसी स्थिति में रहने को मजबूत होना पड़ता था. आज के दौर की लड़कियां शिक्षित और स्वावलंबी हैं.
अब किसी तरह का संकट आने या विधवा होने पर वे भाई के सिर पर बोझ नहीं बनती. वे खुद अपने पैरों पर खड़ी हैं. भाई से आर्थिक मदद लेने के बजाय जरूरत पड़ने पर वे उनकी आर्थिक मदद करने में सक्षम हैं. कानून ने भी उन्हें संपत्ति में अधिकार दिया है, इसलिए अब पहले की तरह वे दीन-हीन नहीं रहीं. आज कितनी ही नौकरीशुदा लड़कियां अपने भाइयों को पालती देखी जा सकती हैं.
एक तरह से कहें, तो आज हर दृष्टि से स्त्री की स्थिति मजबूत हुई है. पूर्व की भांति भाई के साथ उसके रिश्ते में भी दया, अनुकंपा की जगह मान-सम्मान ने ली है. ऐसे में अब भाइयों को भी चाहिए कि वे बहनों को समुचित सम्मान, सहयोग अधिकार और बराबर की हिस्सेदारी दें, ताकि आजीवन उन्हें अपनी बहनों का निश्छल प्रेम और संभाल मिलता रहे.
हर भाई अपने बचपन की ओर पलट कर देखें, तो पायेगा कि उसकी बड़ी बहन ने अमूमन मां की और हमउम्र बहन ने दोस्त की भूमिका निभायी है.
मां -बाप से डांट पड़ने पर बहन द्वारा उनकी ढाल बन जाना, टेस्ट में फेल हो जाने पर उसके डूबते हौसले को थामना, देर से घर आने पर उसके कमरे में चुपचाप खाने की थाली ले जाना, कंधे पर हाथ रख कर ‘चल, सब ठीक हो जायेगा’ कहना… इनमें से किसी-न-किसी याद के अक्स उनकी स्मृतियों में उभरेंगे. इन सबके बावजूद कहीं-न-कहीं परंपराएं उसमें एक ‘भाई के रूप में बहनों का संरक्षक’ होने का दंभ भरती हैं. वह खुद को ‘बहनों का सरपरस्त’ समझ कर उनकी जिंदगी के फैसले करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है.
उन पर तरह-तरह के अंकुश लगाना, जीवन और कैरियर के लिए खुली आजादी न देना और संपत्ति में हिस्सा मांगने पर रिश्ते में तल्खी लाना…. जैसी घटनाएं भी हमें अपने आस-पास अक्सर देखने को मिलती हैं. यह बिल्कुल भी उचित नहीं है या कहें कि यह एक अच्छे भाई का चरित्र नहीं है, तो यह भी गलत नहीं होगा.
बहनों के जीवन में है भाई की अहम भूमिका
राखी को भाई द्वारा बहन की रक्षा का त्योहार मानने पर अनेक नारीवादी चिंतकों को आपत्ति भी है. उनके अनुसार यह सोच स्त्रियों को पुरुषों के मुकाबले कमजोर बनाती है, पर यह विचार उचित नहीं है. स्नेह व विश्वास की डोर से बंधे राखी जैसे पवित्र त्योहार की कोई एक रूढ़ परिकल्पना नहीं हो सकती. स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं.
हर रिश्ते का जीवन में अपना एक अलग महत्व होता है. कोई किसी से ऊंचा या बड़ा नहीं. न ही कोई किसी से कमतर या कमजोर है. जिस तरह पति-पत्नी का रिश्ता एक-दूसरे के बिना अधूरा है, उसी तरह बहन-भाई भी एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं. स्त्री के जीवन में शामिल तमाम रिश्तों में से भाई की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है.
राखी का महत्व क्या है, यह उन बहनों से पूछिए, जो इस एक दिन के त्योहार के लिए महीनों पहले से तैयारियां शुरू कर देती हैं या फिर उन भाइयों से पूछिए जिनकी कलाइयां रक्षाबंधन के दिन सूनी रह जाती हैं. राखी बहन-भाई के पर्व से कहीं ज्यादा आपसी प्यार, विश्वास एवं समझदारी का पर्व है, जो सामनेवाले को यह भरोसा देता है कि ‘मैं हूं न!’
बहुरंगी इतिहास है रक्षाबंधन का
किसी भी पर्व की महत्ता उसके पीछे जुड़ी मिथकों की लंबी फेहरिस्त से आंकी जा सकती है. रक्षाबंधन के आख्यानों को भी
अनेक लोकगीतों, लोक परंपराओं, नाटकों, चलचित्रों, मूर्तिकलाओं और चित्रकलाओं में उकेरा गया है.
प्रसिद्ध लोककथा के अनुसार, श्रीहरि विष्णु ने जब वामन रूप में अपना तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रखा, तो वह पाताल चला गया. तब विष्णु जी पाताल में बलि के द्वारपाल बन कर रहे थे. तब उनके वियोग में लक्ष्मी जी ने एक दरिद्र ब्राह्मणी का वेश धर कर राजा बलि को राखी बांधी और उपहार में अपना पति मांग लिया.
इस प्रकार विष्णु जी को पाताल से मुक्ति मिली. भविष्य पुराण के अनुसार, 12 वर्षों तक चले देव- दानव युद्ध में इंद्र की पत्नी शची ने रणभूमि में जाते पति की कलाई पर धागा बांध कर उनके रक्षा की कामना करते हुए निम्न मंत्र पढ़ा, जो विधिवत आज भी पढ़ा जाता है-
‘येन बद्धोबली राजा दानवेंद्रो महाबलः
दानवेंद्रो मा चल मा चल॥’
इंद्र को इस युद्ध में विजय प्राप्त हुई थी.
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