Madhushravani Puja 2025: मिथिलांचल की सांस्कृतिक परंपराओं में सुहाग से जुड़ा विशेष पर्व मधुश्रावणी व्रत एक अनोखा लोकपर्व माना जाता है. यह पर्व श्रावण कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से आरंभ होकर श्रावण शुक्ल पक्ष की तृतीया तक मनाया जाता है. इस वर्ष यह पावन व्रत शतभिषा नक्षत्र और सौभाग्य योग में शुभारंभ हुआ है और इसका समापन 27 जुलाई, रविवार को होगा.
मिथिलांचल की पारंपरिक संस्कृति में मधुश्रावणी व्रत एक विशेष स्थान रखता है, जिसे मुख्य रूप से ब्राह्मण, कर्ण कायस्थ और स्वर्णकार समुदाय की नवविवाहिताएं सावन माह में मनाती हैं. विवाह के पहले वर्ष में, नवविवाहिता कन्या लगभग 14 से 15 दिनों तक विधिपूर्वक भगवान शिव और नाग देवताओं की पूजा-अर्चना करती है. इस अनुष्ठान का उद्देश्य वैवाहिक जीवन की सुख-समृद्धि और पति की लंबी उम्र की कामना होता है. व्रत की अंतिम तिथि पर एक विशेष परंपरा निभाई जाती है, जिसे ‘टेमी देना’ कहा जाता है. परंपरागत रूप से इसमें नवविवाहिता के घुटनों को अग्नि के हल्के संपर्क में लाया जाता था. मान्यता यह है कि जितना बड़ा घाव बनेगा, पति की आयु उतनी ही लंबी मानी जाती है. हालांकि, अब ‘शीतल टेमी’ की परंपरा अधिक प्रचलित हो गई है, जिसमें आग का सीधा संपर्क नहीं किया जाता. आजकल बस दीपक की लौ को प्रतीकात्मक रूप से घुटनों के पास लाया जाता है और तुरंत हटा लिया जाता है, जिससे रीति निभ भी जाए और कोई शारीरिक क्षति न हो. यह पर्व आस्था, संयम और वैवाहिक जीवन की गहराई को दर्शाने वाला एक गूढ़ प्रतीक बन चुका है.
मधुश्रावणी व्रत: मिथिलांचल की संस्कृति से जुड़ा विशेष पर्व
मधुश्रावणी व्रत मिथिलांचल की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं में एक विशिष्ट स्थान रखता है. इस पर्व का महत्व इतना अधिक है कि अब यह न केवल मिथिला क्षेत्र तक सीमित है, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी नवविवाहिताएं इसे पूरी श्रद्धा के साथ मनाने लगी हैं. मान्यता है कि जिस वर्ष किसी कन्या का विवाह होता है, उसी वर्ष सावन मास में आने वाला पहला मधुश्रावणी व्रत वह विधिपूर्वक करती है.
पर्व की विशेषताएं और परंपराएं
इस व्रत की खास बात यह है कि इसमें ‘विषहरा पूजन’ का विशेष विधान होता है, और इससे जुड़ी एक पारंपरिक पौराणिक कथा भी सुनाई जाती है. यह व्रत ना केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसमें निभाई जाने वाली परंपराएं भी अत्यंत अनोखी होती हैं.
सबसे खास बात यह है कि इस पूजन में पुरोहित की भूमिका महिलाएं निभाती हैं. मधुश्रावणी व्रत मिथिलांचल का ऐसा एकमात्र पर्व है, जिसमें पुरुष पुरोहितों की जगह महिलाएं ही विधि-विधान से पूजा कराती हैं. इस आयोजन में पुरुषों की सहभागिता नहीं होती, जिससे यह पर्व स्त्री-शक्ति और पारंपरिक ज्ञान की एक अनूठी मिसाल बन गया है.
संस्कार और संस्कृति का प्रतीक
मधुश्रावणी व्रत केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह नवविवाहित स्त्रियों के लिए वैवाहिक जीवन की शुरुआत को पवित्रता और संयम के साथ जीने का एक मार्ग भी दिखाता है. यह पर्व मिथिलांचल की गहराई से जुड़ी परंपराओं, स्त्री सम्मान और लोक संस्कृति का जीवंत प्रतीक है.
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