Mrityubhoj Ka Khana खाने से होता है क्या असर? जानें संत प्रेमानंद जी की वाणी से

Mrityubhoj Ka Khana: मृत्युभोज को लेकर समाज में तरह-तरह की धारणाएं हैं. क्या इसमें भोजन करना उचित है? संत प्रेमानंद जी महाराज ने इस परंपरा को लेकर स्पष्ट और संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है. जानिए उनकी वाणी से कि मृत्युभोज में भोजन करने का आध्यात्मिक और सामाजिक असर क्या होता है.

By Shaurya Punj | June 26, 2025 1:38 PM
an image

Mrityubhoj Ka Khana: हिंदू धर्म में मृत्यु के उपरांत की जाने वाली सभी क्रियाएं आत्मा की शांति, श्रद्धा और शुद्धता से जुड़ी होती हैं. इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण परंपरा है “मृत्युभोज” या “श्राद्ध भोज”, जिसे पितृ कर्मों का अहम हिस्सा माना जाता है. इस परंपरा को लेकर समाज में मतभेद हैं—कहीं इसे धर्म का आवश्यक अंग समझा जाता है, तो कहीं इसे अंधविश्वास या सामाजिक दिखावे से जोड़ा जाता है.

संत प्रेमानंद जी महाराज इस विषय पर संतुलित और गूढ़ दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं. उनका कहना है कि मृत्युभोज का उद्देश्य केवल सामाजिक भोज या प्रदर्शन नहीं होना चाहिए. इसका असली मकसद होता है – पितरों की आत्मा की तृप्ति और उनके प्रति श्रद्धा व कृतज्ञता का भाव प्रकट करना. यदि यह कर्म पूरी निष्ठा, संयम और धार्मिक मर्यादा के अनुरूप किया जाए, तो यह एक पवित्र धार्मिक अनुष्ठान बन जाता है. परंतु, यदि इसे केवल दिखावा, प्रतिस्पर्धा या सामाजिक दबाव के रूप में किया जाए, तो इसका आध्यात्मिक असर नकारात्मक भी हो सकता है.

मृत्युभोज में किन लोगों को भोजन करने से करना चाहिए परहेज

मृत्युभोज में किन्हें आमंत्रित करना उचित?

  • संत प्रेमानंद जी का मानना है कि मृत्युभोज में उन्हीं लोगों को शामिल करना चाहिए जो इसे एक धार्मिक कर्तव्य मानते हैं और श्रद्धा से भाग लेते हैं. विशेष रूप से:
  • सनातन धर्म में किसी की मृत्यु होने पर सामर्थ्य के अनुसार ब्रह्मणों को भोजन करवाना और मृतक आत्मा की शांति की बात कही गई है.
  • वैसे तो शास्त्रों में मृत्यु भोज निषेध है पर यह भी ध्यान देने वाली बात है कि मृत्युभोज कहां है.
  • अगर मृत्युभोज खुद या किसी करीबी के घर है, उसमें 50-100 लोग शामिल हो रहे हैं तो उसमें मना नहीं कर सकते हैं.
  • प्रेमानंद महाराज ने कहा कि मृत्युभोज में जो मिले उसे ईश्वर का नाम लेकर ग्रहण कर लेना चाहिए.

संत जी यह भी स्पष्ट करते हैं कि यदि किसी को मृत्युभोज में भाग लेने में संकोच हो, तो उसे बाध्य नहीं करना चाहिए. भोजन से कहीं अधिक आवश्यक है – पितृ-प्रार्थना और आत्मिक श्रद्धांजलि. मृत्युभोज में भोजन केवल एक सामाजिक परंपरा नहीं, बल्कि आत्मिक प्रक्रिया है. यदि इसे श्रद्धा, संयम और धार्मिक भाव से किया जाए, तो यह पितृ तृप्ति का माध्यम बनता है. संत प्रेमानंद जी की वाणी हमें यह सिखाती है कि हर परंपरा का अनुसरण विवेक और आस्था से करें, न कि केवल सामाजिक रीति के दबाव में. यही सच्चा धर्म है.

संबंधित खबर
संबंधित खबर और खबरें
होम E-Paper News Snaps News reels
Exit mobile version