सलिल पांडेय
Ramadan 2024: इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार, रमजान नौवां महीना है, जबकि 10वें शव्वाल महीने में ईद का पर्व मनाया जाता है. इस दृष्टि से 10वें महीने के स्वागत का महीना है रमजान. अंक के हिसाब से देखें, तो नौ का अंक इकाई ही है और 10वां माह इकाई से दहाई में बदल जा रहा है. इसकी गहराई पर नजर डालें, तो व्यक्ति को समूह में जीने का संदेश भी दे रहा है रमजान का महीना. समूह में जीने के लिए स्नेह, प्रेम, दया की जरूरत होती है और जिसके पास यह है, उसका जीवन खुद-ब-खुद खुशी से भर जाता है.
10वें माह में आने वाले ईद पर्व के लिए तन-मन को तैयार करने हेतु रमजान महीने के कुछ नियम बने, ताकि व्यक्ति अपने निजी जीवन में भी नियम के साथ रह सके. सहरी यानी सूरज निकलने के पहले फजीर के नमाज के पहले सो कर उठना मेडिकल साइंस के हिसाब से सेहत के लिए लाभप्रद है. ताजा रिसर्च के अनुसार, शरीर के हार्मोंस आंतरिक सफाई का काम उसी समय करते हैं और उसके बाद सूरज डूबने के पहले (मगरिब की नमाज) का समय इफ्तार का वक्त होता है. इस समय वातावरण में ऐसी तरंगें होती हैं, जिसमें किये गये खान-पान से तन और मन स्वस्थ रहता है. विभिन्न धर्मावलंबी भी सूर्य डूबने के पहले भोजन कर लेते हैं. रमजान महीने में रात को एशा के नमाज में कुरान पढ़ी और सुनी जाती है.
जीवन को सुगंधित बनाने का पवित्र माह
कुरान का शुद्ध उच्चारण ‘क़ुर-आन’ है, जिसे आसमानी किताब माना जाता है. इसमें तीस ‘पारे’, छोटी-बड़ी 114 ‘सूरतें’, 6640 ‘आयतें’ और 540 ‘रकूअ’ हैं. एक रकूअ में एक बार खड़े होकर बैठने तक शामिल है, जिसमें 2 सजदे (जमीन पर माथा टेकना) भी किये जाते हैं. इसमें ईद के आने के पहले मन-मस्तिष्क में खुशियों का सैलाब पैदा करने की प्रक्रिया शामिल है, जो पूरी तरह मेडिकल साइंस पर आधारित है. ‘क़ुर-आन’ शब्द को देखें तो ‘क़ुर’ का आशय शीतलता और ‘आन’ का आशय लम्हा है. यानी जिंदगी में उत्तेजना, क्रोध, तनाव की हालत न आने पाये. इस प्रकार धार्मिक पद्धति से एक माह कुरान को पढ़ या सुनकर शव्वाल महीने में आने वाले ईद के लिए पूरी तरह चुस्त-दुरुस्त होने के रिहर्सल का रमजान महीना है. ईद भी ‘ऊद’ शब्द से बना है, जिसका मतलब सुगंध है. जीवन को सुगंधित बनाने के लिए आये रमजान का माह यह संदेश लेकर हर साल आता है कि इस्लाम धर्मावलंबी ऐसा कार्य करें, जिससे वह जहां रहें और जहां जायें, खुशबू बिखेर दे.
अन्न-जल से परहेज याद दिलाता है ईमान
रमजान महीने में रोजा के दौरान अन्न-जल से परहेज के भी कई संदेश हैं. प्रथम तो जिंदगी में यदि कोई ऐसी स्थिति आ जाये कि दाना-पानी नसीब न हो तो शरीर इसके लिए तैयार रहे. ऐसा न हो कि भोजन के लिए नापाक तरीका अपनाया जाये. शरीर को इंसान जिस तरह के ढांचे में ढालता है, उसी के अनुसार जीने की आदत पड़ जाती है. बहुत सुख-सुविधा और आरामतलब जीवन जीने के चलते यदा-कदा जब उस तरह की परिस्थितयां नहीं मिल पातीं, तो व्यक्ति बीमार पड़ जाता है. दूसरी ओर, मजदूरी करने वाले धूप-छांव, गर्मी-ठंडक की परवाह किये बिना आसान जीवन जीते हैं. ऐसे लोग मौसम के आगे घुटने नहीं टेकते, जबकि मौसम इनकी बंदगी करने लगता है.
उन्हें भी याद करें जिन्हें दो वक्त का भोजन नसीब नहीं होता
शरीर की आंतरिक तंत्रिका-प्रणाली बिल्कुल रबड़ की तरह होती है. बहुतेरे अल्पाहारी होकर बड़े-बड़े काम करते हैं जबकि अधिक आहार लेने वाले आलस्य की चपेट में रहते हैं. इसके अलावा रोजा के दौरान दिन भर भूखे रहने की धार्मिक व्यवस्था यह भी याद दिलाती है कि जो जिंदगी की दौड़ में पीछे छूट गये हैं और जिनको दो वक्त का भोजन नहीं नसीब हो पा रहा है, उनकी भूख से किस प्रकार की हालत होगी, इसे सोचकर आसपास पड़ोस में यह पता लगाया जाना चाहिए कि कोई भूखा तो नहीं सो रहा है? मशहूर गीतकार गोपालदास नीरज के गीत की पंक्ति- ‘मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा, मैं रहूं भूखा तो तुझसे भी न खाया जाये’ को जो जीवन में लागू करता है वह इंसान नहीं, फरिश्ता होता है.
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