Sawan 2025 Kanwar Yatra Story: भारतीय पौराणिक कथाएं अक्सर हमें यह सिखाती हैं कि हर पात्र केवल अच्छा या बुरा नहीं होता. इनमें ऐसे कई किरदार हैं जिनमें अच्छाई और कमजोरियाँ दोनों होती हैं. रावण भी ऐसा ही एक नाम है—एक ओर वह राक्षस और अहंकार का प्रतीक है, तो दूसरी ओर वह भगवान शिव का परम भक्त, महान विद्वान और तपस्वी भी था. कम ही लोग जानते हैं कि रावण को पहला कांवड़िया भी कहा जाता है.
कौन थे पहले कांवड़िया?
मान्यता है कि रावण ही वह पहला भक्त था जिसने सावन के महीने में भगवान शिव का गंगाजल से अभिषेक किया. उसने गंगाजल हिमालय की नदियों से लाकर अपने कंधों पर ‘कांवड़’ में भरकर भगवान शिव को अर्पित किया. यही परंपरा आज “कांवड़ यात्रा” के रूप में देखी जाती है, जिसमें करोड़ों शिवभक्त भाग लेते हैं.
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क्या है कांवड़ यात्रा?
कांवड़ यात्रा सावन मास में की जाने वाली एक पवित्र यात्रा है जिसमें भक्त गंगाजल लाकर उसे अपने क्षेत्र के शिव मंदिर में चढ़ाते हैं. यह जल हरिद्वार, गंगोत्री या सुल्तानगंज जैसे तीर्थों से लाया जाता है. इस यात्रा में आस्था, अनुशासन और श्रद्धा का अद्भुत संगम देखने को मिलता है.
समुद्र मंथन, विषपान और रावण की भक्ति
जब समुद्र मंथन से हलाहल विष निकला और ब्रह्मांड संकट में पड़ गया, तब भगवान शिव ने वह विष पी लिया और ‘नीलकंठ’ बन गए. कहा जाता है कि विष के प्रभाव को शांत करने के लिए रावण ने गंगाजल से शिव का अभिषेक किया, जिससे उन्हें राहत मिली. यह अभिषेक बागपत (उत्तर प्रदेश) के पुरा महादेव मंदिर में हुआ था, जो आज भी श्रद्धालुओं के लिए पूजनीय है.
इतिहास में कांवड़ यात्रा का जिक्र
कांवड़ यात्रा केवल पौराणिक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक भी है. ब्रिटिश काल में भी इसका उल्लेख मिलता है. 19वीं सदी में यह यात्रा सीमित साधुओं और श्रद्धालुओं द्वारा की जाती थी. 1980 के बाद इसमें तीव्र वृद्धि हुई और यह एक विशाल जनआंदोलन जैसी बन गई.
रावण का दूसरा पक्ष: भक्ति और ज्ञान
रावण को केवल राक्षस कहना अधूरी बात होगी. उसकी शिवभक्ति, वेदों का ज्ञान और तपस्या आज भी प्रेरणा हैं. कांवड़ यात्रा एक धार्मिक परंपरा ही नहीं, बल्कि भक्ति, त्याग और आत्मसमर्पण का पर्व है—जिसकी शुरुआत कहीं न कहीं रावण जैसे भक्त से हुई.
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ज्योतिषाचार्य संजीत कुमार मिश्रा
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